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यह कहकर विक्रम ने प्रिया के कोमल कण्ठ में नवलखा रत्नहार पहनाया और शेष सारे अलंकरण उसको वैसे ही अर्पित कर दिये।
बाहर के उपवन में चिड़ियां चहचहाने लगीं। पक्षियों का श्रुति-मधुर कलव होने लगा। नवदम्पत्ति परस्पर में मस्त मुग्ध होकर परम आनन्द का अनुभव कर रहे थे।
दूसरे दिन मध्याह्न की वेला में अग्निवैताल अपने निवास स्थान की ओर चला गया।
पन्द्रह दिन देखते-देखते बीत गए। दोनों में से किसी को यह भान नहीं रहा कि नूतन जीवन की पन्द्रह रात्रियां बीत गईं। दोनों यही मानते थे कि नूतन जीवन का पहला क्षण भी अभी पूरा नहीं हुआ है।
२६. आंसूभरी याद मनुष्य जब रूप और यौवन के रंग-राग में मस्त बन जाता है, तब उसे न समय का भान होता है और न स्वयं का।
विक्रमादित्य और सुकुमारी के विवाहित जीवन के पचास दिन बीत गए। विक्रमादित्य ने अभी तक अपना मूल परिचय नहीं दिया था। वे कलाकार विजयसिंह के रूप में ही रह रहे थे।
एक बार सुकुमारी ने स्वामी को कोई प्रभावक राग गाने की प्रार्थना की। विक्रम अब राग-रागिनी के झंझट में फंसना नहीं चाहते थे। पत्नी ने जब अति आग्रह किया तब विक्रम ने कहा-"प्रिये! जिसकी गोद में स्वयं संगीत क्रीड़ा कर रहा हो, उसको किसी दूसरी राग-रागिनी में रस नहीं रहता। दूसरी बात है कि मैं तुम्हारे प्रेम में इतना मस्त बन गया हूं कि संगीत की ऊर्मी हृदय में उठती ही नहींतुम्हारा सहवास ही मेरा प्रभावक संगीत है।'
नारी चाहे कितनी ही चतुर क्यों न हो, जब वह स्व-प्रशंसा सुनती है, तब सब कुछ भूल जाती है।
जल-विहार, वन-विहार, वीणावादन, कभी मंजरी देवी की आराधना, कभी रूपमाला का नृत्य-संगीत-इस प्रकार बहुविध आनन्द-प्रमोद में दो मास बीत गए।
एक दिन सुकुमारी जल्दी जाग गई। उसका मन व्याकुल था। उसने अपने स्वामी को जगाते हुए कहा-'प्राणनाथ! मुझे आज विचित्र स्वप्न आया है।'
'अरे! तुम स्वप्न से घबरा गई हो?' 'हां, स्वामिन् ! विचित्र स्वप्न था।'
१३२ वीर विक्रमादित्य