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हुई थी। उसने वैताल को पहचान लिया। वह मुस्कराती हुई बोली- 'आओ महापुरुष!'
'महादेवी! महाराजा का एक पत्र लाया हूं।' कहकर वैताल ने विक्रमादित्य का पत्र महादेवी के हाथों में थमा दिया। वह एक आसन पर बैठ गया।
महादेवी पत्र पढ़ने लगी। पन को पढ़कर उसका रोम-रोम हर्षित हो गया।
पूरा पत्र पढ़कर वह बोली- 'बहुत ही आनन्ददायक समाचार है। महाराज कुशलक्षेमतो हैं न?'
'हां, महादेवी! महाराज परम स्वस्थ और प्रसन्न हैं।' 'अब तुम मुझे वहां की सारी बात बताओ।'
वैताल ने अथ से इति तक सारी बात बताई। पूरी बात सुनकर महादेवी अत्यधिक आनन्दित हुई और हंसते-हंसते कहा-'अन्त में नारी की ही जीत हुईमहाराजा को नारी-रूप का ही सहारा लेना पड़ा।'
वैताल भी हंसने लगा।
दूसरे कुछ प्रश्न पूछकर महादेवी ने वैताल से कहा- 'अब मैं तुम्हारे लिए भोजन की व्यवस्था मध्यरात्रि में ही करूं?'
'भोजन मैं कहीं भी कर लूंगा।'
'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मैं भोजन की व्यवस्था एक कक्ष में कर देती हूं। विश्राम करना हो तो.....।'
वैताल ने हंसते हुए कहा-'विश्राम की आवश्यकता ही कहां है? आप आज्ञा दें तो मैं महामंत्री और दोनों नर्तकी बहनों से मिल आऊं। आप नवलखा हार तैयार रखें।'
'महाराजा तो पुरुष हैं। उनको तो केवल नवलखा हार ही याद आ रहा है। मैं अन्यान्य अलंकार भी तैयार रखूगी। तुम जाकर शीघ्र ही आ जाना।' महारानी ने कहा।
वैताल प्रसन्नचित्त हो वहां से विदा हुआ।
महारानी कमलावती ने अपनी मुख्य परिचारिका को बुलाकर भण्डारगृह खोलने का आदेश दिया। उसमें से अलंकारों की एक पेटी खोलकर नवलखा हार, रत्नकंकण, रागिनी, बाजूबंध, कटिमेखला आदि अलंकार निकालकर दूसरी पेटी में रखकर व्यवस्थित कर, उसे अपने खण्ड में रखवा दिया। फिर वह अपने स्वामी का पत्र पुन: पढ़ने लगी।
कोई भी स्त्री अपने अन्तर्भाव अव्यक्त रख सकती है, पर वियोगकाल में वे सब आंखों में उभर आते हैं।
वीर विक्रमादित्य १२५