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'नहीं, नहीं, नहीं-अधिकांश मनुष्य उत्तम होते हैं। यह दोष तो श्रीमंत लोगों में ही होता है।' विक्रमा ने कहा।
राजकुमारी विक्रमा की ओर स्थिर दृष्टि से देखती रही।
विक्रमा बोली- 'यदि आपके हृदय में मेरे प्रति प्रेमभाव हो तो मैं एक बात कहना चाहूंगी।'
'बोलो, तुम तो मेरी प्रिय सखी हो, मार्गदर्शिका भी हो। तुम्हारी बातों में मुझे रस है। मैं अपने विचारों के प्रति कुछ नम्र बनी हूं।'
विक्रमा यह सुनकर बहुत हर्षित हुई। वह बोली- 'राजकुमारीजी ! पहली बात यह है कि आप अपने पूर्वाग्रह को छोड़ दें। पुरुष-जाति के प्रति द्वेष न रखें क्योंकि द्वेष भाव से वर्तमान जीवन तो बिगड़ता ही है, अगला भव भी नष्ट हो जाता है। अन्त:करण का द्वेषभाव स्वयं के लिए बहुत अहितकर होता है।'
राजकुमारी ने विक्रमा का हाथ पकड़ते हुए कहा- 'सखी! मैं तुम्हारी बात मानती हूं।'
'तो आज से आप किसी भी पुरुष का वध नहीं करेंगी-व्यर्थ ही घोर कर्मों का बंधन क्यों किया जाए? वैरभाव के कर्मों से छुटकारा पाना अत्यन्त कठिन होता है।' विक्रमा बोली।
'तुम्हारी बात सच है। मैं समझती हूं कि मुझे व्यर्थ ही हिंसा क्यों करनी चाहिए? क्यों वैर को बढ़ाना चाहिए?'
'अब अन्त में एक बता कहूं?' 'हां।' 'राजकुमारीजी! किसी योग्य पुरुष के साथ आप विवाह कर लें...।'
तत्काल राजकुमारी ने अपने दोनों हाथों से मस्तक को दबाते हुए कहा'यह तो मेरे लिए अशक्य है।'
'क्यों?' 'किसी राजा या राजकुमार के साथ विवाह करने से मेरी वही दशा होगी।' 'किन्तु राजघराने को ही क्यों ढूंढा जाए ?' 'तो?'
'किसी उत्तम कलाकार को ही जीवन-साथी बनाएं-यदि ऐसा हो सका तो आपका जीवन धन्य हो जाएगा और मिलन की जो रसमाधुरी है, वह आपको निरंतर मिलती रहेगी।'
राजकुमारी विचारमग्न हो गई। वह कुछ नहीं बोली।
कुछ क्षणों तक वातावरण में गंभीर मौन छाया रहा। फिर विक्रमा ने कहा'आप विचारमग्न क्यों हो गई ?'
वीर विक्रमादित्य १०७