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१६. नारी की वेदना दूसरा दिन!
तीन प्रहर पूरे हो गए थे।
विक्रमा को लेकर रूपमाला एक रथ में बैठकर राजकन्या के भवन की ओर प्रस्थित हुई।
अग्निवैताल अदृश्य रूप में रथ में बैठ गया था। विक्रमा तो यह जानती ही थी। रूपमाला उसे देख नहीं पा रही थी।
राजकुमारी आज कुछ जल्दी ही स्नान करने के लिए स्नानगृह में गई हुई थी। तैलमर्दन और उबटन की क्रिया पूरी हुई। सौम्यगंधा के पुष्पार्क से सुवासित जल एक स्वच्छ हौज में भरा हुआ था। उसका सौरभ विशाल स्नानगृह में चारों ओर फैल रहा था।
सुकुमारी की निराभरण काया को उष्णजल से तैलयुक्त कर मुख्य परिचारिका ने राजकन्या को हौज पर चलने की प्रार्थना की।
जिसका प्रत्येक अंग-प्रत्यंग रूप और यौवन के तेज से आकर्षक और सुन्दर था, वह राजकन्या धीरे-धीरे चलकर हौज के पास आयी और हौज के स्वच्छ जल में पड़ने वाले अपने प्रतिबिम्ब को क्षणभर देखती रही। फिर वह हौज में उतरी।
उसी समय एक दासी ने आकर दरवाजे पर हल्की-सी दस्तक दी। मुख्य परिचारिका ने द्वार के पास आकर पूछा-'कौन ?'
'देवी रूपमाला और देवी विक्रमा-दोनों आयी हैं। बाहर खड़ी हैं।' दासी ने उत्तर दिया।
'तू खड़ी रह-मैं राजकुमारी से पूछती हूं।' यह कहकर मुख्य परिचारिका सुकुमारी के पास गई और दासी द्वारा प्रदत्त संदेश कह सुनाया।
सुकुमारी ने प्रसन्नता से कहा-'अच्छा, अच्छा-तू दासी को कहना कि वह विक्रमा को लेकर यहां आए।'
विक्रमा और रूपमाला-दोनों एक खंड में बैठी थीं। दासी ने आकर कहा, 'राजकुमारीजी देवी विक्रमा को स्नानगृह में बुला रही हैं।'
'स्नानगृह में?' विक्रमा ने आश्चर्य भरे स्वरों में पूछा।
'जी हां-राजकुमारीजी आज कुछ जल्दी ही स्नानगृह में पधार गई हैं।' दासी ने कहा।
___ विक्रमा तो केवल नारी का रूप थी- उसका मन पुरुष का था। उसने सोचा६४ वीर विक्रमादित्य