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भाग्यवश वहां भी मैंने स्त्रीयोनि में ही जन्म लिया। मैं विभावसु नामक देव की पत्नी बनी। देवताओं का सुख अकथ होता है, किन्तु मेरे भाग्य में तो वेदना ही लिखी हुई थी। मेरे देवपति विभावसु की एक पूर्व प्रियतमा थी। उसका वर्चस्व इतना था कि प्रारम्भ से ही मेरे रूप और यौवन की उपेक्षा होने लगी। मेरा देवपति अपनी पुरानी प्रियतमा के साथ ही आनन्दविहार करता और उसी में लीन रहता। मुझे वह कभी साथ में नहीं ले जाता। मैं अत्यन्त पीड़ा का अनुभव करती थी। मैं इसी मानसिक वेदना को भोगती हुई, देवभव पूरा कर पुन: मनुष्य भव में आयी।
___मगध देश में पद्मपुर नामक नगर था। वहां मुकुन्द नामक विप्र के घर मैंने पुत्री के रूप में जन्म लिया। पता नहीं, मुझे स्त्री योनि ही क्यों प्राप्त होती गई? मैं अति सुन्दर थी। इसलिए माता-पिता ने मेरा नाम मनोरमा रखा । मेरे माता-पिता जैन धर्मावलम्बी थे। मैं भी जिनेश्वर देव की भक्ति में रस लेने लगी। यौवनावस्था में मेरा विवाह देवशर्मा नामक युवक विप्र के साथ हुआ। स्त्री जब पति के गृहांगण में जाती है, तब उसके हृदय में अनेक आशाएं अठखेलियां करती हैं-पति के प्रति एक प्रकार का समर्पण भाव जागता है-इसी उल्लास के साथ मैं पतिगृह में गई और पहली ही रात में हृदय पर भारी आघात लगा। देवशर्मा जवान था, पर संस्कारी नहीं था। वह मानता था कि स्त्री जाति का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। उसको पैरों तले दबाए रखने में ही श्रेयस् हैं। इसी विचारधारा के वशीभूत होकर उसने मेरी कोमल काया पर, उस पहली रात में ही, चाबुक के तीव्र प्रहार किए....।' न उसने मेरे हृदयगत भावों को जानने का प्रयत्न किया और न मेरे रूप-यौवन को ही उसने देखा। उसका स्वभाव भी उग्र था। वह विवेक-विकल और अशिष्ट था। उसकी वाणी अभद्र थी। खाद्य-अखाद्य का विवेक उसमें नहीं था। मैं कभी-कभी उसे उपदेश की भाषा में प्रार्थना करती तो वह मुझे पीटता और मैं व्यथा से छटपटा उठती। मनुष्य के मन का जब कल्पांत होता है, तब उसके जीवन का रस क्षीण हो जाता है। पति के अकथ्य पीड़ारूप व्यवहार के कारण मेरे में धर्म की श्रद्धा बढ़ी थी, फिर भी दुर्ध्यान की अवस्था में मेरी मृत्यु हुई। छठे भव में मलयाचल के अंचल में एक तोती के रूप में मेरा जन्म हुआ। तिर्यंच गति में जन्म लेने वाले जीव में भी अपने सुख-दु:ख के अनुभव का ज्ञान तो होता ही है। वहां रहते एक तोते के साथ मेरा मेल-मिलाप हो गया। उसको मैं पति के रूप में स्वीकार कर जीवनयापन करने लगी। मैं सगर्भा हुई। मैंने अपने पति तोते से कहा-किसी उत्तम वृक्ष पर हमें एक नीड़ बनाना चाहिए।
किन्तु मेरा पति प्रमादी था। वह श्रम से कतराता था। इसलिए मैंने सारा श्रम कर एक शमी वृक्ष पर नीड़ बनाया। मैंने दो अण्डे दिये । यथासमय दो सुन्दर
वीर विक्रमादित्य ६६