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'सखी! तुमने तो मेरे अनुभवों पर ही प्रहार कर डाला।'
'नहीं, राजकुमारी जी! आपके हृदय में अंकित इस विकृत छवि की ओर मैंने अंगुलि-निर्देश किया है। मैं आपको विश्वास दिलाती हूं कि यदि आप एक बार पुरुष के प्रति पलने वाली घृणा को हृदय से दूर कर देती हैं, तो आपको परम शान्ति प्राप्त होगी और जो अतृप्ति आपको सात-सात भवों से विकल बना रही है, वह अतृप्त आनन्द में परिवर्तित हो जाएगी।'
___ 'ओह!' कहती हुई राजकुमारी ने दोनों हाथों से अपना मस्तक दबाया और बोली-'विक्रमा ! मेरा मन अत्यन्त विकल हो गया है....हम फिर चर्चा करेंगी। मैं भी सोच लेती हूं।'
'आप अवश्य ही शांतचित्त होकर सोचें । यदि मेरी बात आपके हृदय को छू सकी, तो मैं अपने आपको धन्य मानूंगी।' विक्रमा ने कहा।
फिर दोनों लतामण्डल से बाहर आयीं।
२१. आश्चर्य राजकुमारी के साथ हुई थोड़ी-सी चर्चा के फलस्वरूप विक्रमादित्य के हृदय में आशा जागृत हो चुकी थी। राजकुमारी के मन में क्या उथल-पुथल है, इसकी कल्पना अवश्य थी, फिर भी विक्रमादित्य को यह स्पष्ट प्रतीति हो गई थी कि राजकुमारी के हृदय में एक चिनगारी अवश्य ही जन्म ले चुकी है और वह आग बनकर उसके प्राणों में निरुद्ध नर-द्वेष को राख बना सकती है।
. भोजन के क्षणों में भी विक्रमादित्य ने देखा कि राजकुमारी कुछ गंभीर बनी हुई है-भोजन करते समय भी वह विचारों में उलझी हुई थी। जब मनुष्य के मन में विचारों का संघर्ष होता है, तब स्वाभाविक है कि वह गंभीर बन जाता है।
भोजन से निवृत्त होकर राजकन्या सुकुमारी विक्रमा को साथ लेकर एक सुसज्जित खण्ड में गई।
__ आज रात्रि में संगीत का कार्यक्रम रखा गया था। उसमें भाग लेने के लिए मंजरी देवी और रूपमाला को निमंत्रण भेजा जा चुका था। साथ-ही-साथ राजकुमारी ने अपने माता-पिता को भी बुला भेजा था।
संगीत के कार्यक्रम को सुव्यवस्थित रूप देने के लिए माधवी उसमें संलग्न हो गई थी।
मुखवास लेने के पश्चात् विक्रमा ने पूछा- 'राजकुमारीजी! आपको मेरे प्रश्न का उत्तर देना है।'
१०४ वीर विक्रमादित्य