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( 33 ) भगवान महावीर ने चौथे गुणस्थान के मनुष्य को दशाश्रुतस्कंध में श्रमणोपासक के नाम से अभिहित किया है।
भगवान महावीर ५६ वर्ष के थे उस समय भगवान के शिष्य जमाली ने संघभेद की स्थिति उत्पन्न की। भगवान महावीर ५८ वर्ष के थे उस समय उनके शिष्य गौतम व भगवान पावं के शिष्य केशी के साथ वाद-विवाद हुआ था।
इस काल में प्रथम पाँच तीर्थ कर सातवें, आठवें, ग्यारहवें, बारहवें, उन्नीसवें तथा चौबीसवें तीर्थ करों के प्रथम चार कल्याण का एक ही नक्षत्र था परन्तु परिनिर्वाण का अन्य नक्षत्र था। अवशेष तीर्थ करों के (गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, परिनिर्वाण) पाँचों कल्याणों की अलग-अलग एक ही नक्षत्र था। यथा मल्लिनाथ तीर्थ कर के चार कल्याण अश्विनी नक्षत्र में तथा परिनिर्वाण भरणि नक्षत्र में था। पद्मप्रभु स्वामी के पाँचों कल्याण चित्रा नक्षत्र में थे।
कुलं पेइयं माइया णाई अर्थात पितृवंश कुल तथा मातृवंश जाति कहा जाता है ।
सर्वलब्धि संपन्नमासं पाओधगया सव्वेऽपि य सव्धलद्धिसंपन्ना। षजरिसहसंघयणा समचउरंसा य संठाणे ॥
-आव निगा ६५६ मंडित गणधर को सभी लब्धियों से युक्त कहा गया है । उनका दैहिक गठन वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन तथा समचतुरस्र संस्थानमय था। अन्यान्य गणधरों का भी ऐसा ही था।
दोहन के बिना दूध नहीं मिलता और मन्थन के बिना नवनीत नहीं मिलता। प्राचीन आर्य-साहित्य के दोहन-मंथन के लिए मेरी तीव्र आकांक्षा रही है।
बुद्ध और महावीर दो महान समआमयिक व्यक्ति थे। उस युग में पूरण काश्यप, मक्खली गोशाला, अजित केश कंबल, प्रक्रध कात्यायन, संजय वेलठिपुत्र, ये अन्य भी धर्मप्रवर्तक थे । ऐसा त्रिपिटिक मानते हैं। महावीर ५२७ ई० पू० में तथा बुद्ध ५०२ ई० पू० में निर्वाण प्राप्त हुए थे। यह निर्णय अपने आप में सब प्रकार संगत लगता है। महावीर और बुद्ध के समकालीन राजा ; श्रेणिक बिम्बिसार, कूणिक, चंद्रप्रद्योत, वत्सराज उदयन, प्रसेनजित, चेटक, सिंधु सौ वीर के राजा उद्रायण आदि थे।
बौद्ध ग्रन्थों, में जो समुल्लेख निगण्ठनातपुत्त व उनके शिष्यों से सम्बन्धित मिलते है, उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर बुद्ध के युग में एक प्रतिष्ठित तीर्थकर के रूप में थे व उनका निम्रन्थ संघ भी बृहत् और सक्रिय था।
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