________________
( xxvii .)
प्रहेलिका के स्थलों पर अर्थभ्रम उत्पन्न करने का कार्य श्लेष ही करता
कस्स कएण किसोयरि वरणयरं वहसि उत्तमंगेण ।
कण्णण कण्णवहणं वाणरसंखं य हत्थेण ॥ इसके अतिरिक्त अनेक गाथाओं में वह व्यतिरेक ( गा० १५० ) व्याधात ( गा० १६१ ) रूपक ( गा० ४३६ ) और विरोध का साधक है एवं शब्दशक्ति मूलक संलक्ष्यक्रमवस्तु ध्वनि के स्थलों पर भी उसकी उपयोगिता दिखाई देती है
जइ सो न एइ गेहं ता दुइ अहोमुही तुमं कीस ।
सो हो ही मज्झ पिओ जो तुज्झ न खंडए वयणं ॥ यहाँ वचन खंडन की प्रतीति वदन खंडन के रूप में होती है, जिसका हेतु श्लेष है।
उपर्युक्त स्थलों पर श्लेषकृत चमत्कार का अस्तित्व होने पर भी अन्य अलंकारों का प्राधान्य है। वज्जालग्ग में श्लेष की भारी संख्या देखकर पता चलता है कि संग्रहकार शब्द-चमत्कार के प्रबल समर्थक थे । वज्जालग्ग में प्रकृति और प्रतीक
प्रायः काव्यों में प्रकृति की अवतारणा तीन रूपों में की जाती है-आलम्बन, उद्दीपन और अप्रस्तुत योजना। आलम्बन के रूप में प्रकृति-चित्रण वहाँ होता है, जहाँ प्रकृति ही कवि का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय रहती है। ऐसे स्थलों पर सामान्य वस्तु सूचना भी हो सकती है और चित्रोपमता भी । प्रथम में अर्थग्रहण मात्र होता है और द्वितीय में बिम्ब-ग्रहण । साहित्य में वस्तुनिष्ठ बिम्बग्राही वर्णन को ही उत्कृष्ट माना गया है। वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति ने प्रकृति के विविध परुष एवं मसृण दृश्यों का चित्रण करते समय अद्भुत बिम्बों की सृष्टि की है । वज्जालग्ग में उस कोटि के बिम्बों की बात तो दूर है, सामान्य बिम्ब के दर्शन भी दुर्लभ हैं । परन्तु इसका यह अभिप्राय कथमपि नहीं है कि वज्जालग्ग की गाथायें निम्नस्तर को हैं । साहित्यिक दृष्टि से उनका भी महत्त्व अक्षुण्ण है । प्रकृति-वर्णन में बिम्बों की सृष्टि करना या न करना, केवल प्रतिभा पर नहीं, दृष्टि पर भी निर्भर है। बहुत से महाकवि इस बात पर ध्यान नहीं देते कि प्रकृति का कौन सा दृश्यखण्ड कैसा है अथवा किस प्राणी की शारीरिक मुद्रा विशेष का स्वरूप क्या है । उनकी दृष्टि प्रकृति और मानव-जीवन के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org