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( xxvi ) (गा० ७३) हेतु (गा० ६०२) तद्गुण (गा० ५५१, ५९६) सार (गा० ८५, १३५) अर्थान्तरन्यास (गा० ७८, ५४३, ५५७, १९३, ८०x१) तुल्ययोगिता (गा० ८९, ६८१) दीपक (गा० ९, १३, २४) अपह्न ति (गा० ६४९) यथासंख्य (गा० ६५८) दृष्टान्त (गा० ३५, ७०३) व्यतिरेक (गा० १४) एकावली (गा० ३४) आक्षेप (गा० ३६७, ४३८) समुच्चय (गा० २९६, ६३८) समासोक्ति (गा० ७११, ७०९) पुनरुक्तवदाभास (गा० २५५) आदि अलंकारों के उदाहरण बिखरे पड़े हैं । अलंकारों की संकीर्णता का एक उदाहरण देखिये :
सेयच्छलेण पेच्छह तणुए अंगंमि से अमायंतं ।
लावण्णं ओसरइ व्व तिवलिसोवाणपंतीहि ॥ यहाँ 'ओसरइ व्व' में क्रियोत्प्रेक्षा है। उसके अंग हैं-रूपक, अपह्न ति और काव्यलिंग । काव्यलिंग का हेतु है-द्वितीय चरण में विद्यमान अत्युक्ति ।
निम्नलिखित गाथा में कवि को उपमा गहित चोर से देने के कारण अनौचित्य है
कह कह वि रएइ पयं मग्गं पूलएइ छेय मारुहइ ।
चोरो व्व कई अत्थं घेऊण कह वि निव्वहइ ।। समुच्चय के साथ श्लेष का मणि-काञ्चन संयोग दर्शनीय है
एक्को च्चिय दुव्विसहो विरहो मारेइ गयवई भीमो।
किं पुण गहियसिलीमुहसमाहवो फग्गुणो पत्तो । अन्य अलंकारों में चमत्कार सृष्टि करने वाले श्लेष के कतिपय उदाहरण इस प्रकार है
हिट्ठकयकंटयाणं पयडियकोसाण मित्तसमुहाणं ।
मामि गुणवंतयाणं कह कमले वसहु न हु कमला ।। यहाँ अप्रस्तुत व्यवहार समारोपात्मक समासोक्ति और कालिग का आधार श्लेष है । कभी-कभी वह अर्थान्तरन्यास में समर्थ्य-समर्थक-भाव की सिद्धि के लिये आवश्यक बन गया है
जह जह वड्ढेइ ससी तह तह ओ पेच्छ घेप्पइमएण । वयणिज्जवज्जियाओ कस्स वि जइ हुंति रिद्धीओ।। किसिओसि की स केसव किं न कओ धन्नसंगहो मूढ । - कत्तो मण परिओसो विसाहियं भुंजमाणस्स ॥ द्वितीय गाथा के पूर्वार्ध में अनुप्रास की कमनीयता भी कम नहीं है।
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