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( xxiv )
कीजिये, वे दिन कैसे बीतते होंगे, जिनमें प्रत्येक क्षण सन्ध्या तक बिछुड़ जाने, का भय बना रहता है । करभ अशोक पल्लवों से परिपूर्ण नन्दनवन में चरता है फिर भी मरुस्थल के सुखों की मधुरस्मृतियाँ उसे कचोटती रहती हैं । वे शैलटंग, वे पीलुपल्लव, वे करील कुड्मल और जन्मभूमि की वे विलास क्रीडायें अन्यत्र कहाँ हैं ? भ्रमर मालती के वियोग में मरणावस्था को प्राप्त हो जाता है । वह गुनगुनाता है, चक्कर काटता है, काँपता है, पंखों को हिलाता है और अंगों को पटकता है । यह मानवेतर प्रणय शृंगार कोटि में नहीं, भावकोटि में आता है ।
अपने अभिप्रेत अर्थ को व्यंग्य
प्रस्तुत करते हैं
शृंगार रस के अन्तर्गत स्वाधीन पतिका, प्रोषित पतिका, विरहोत्कंठिता और खंडिता नायिकाओं के ही वर्णन अधिक है । असती, वैद्य, ज्योतिषिक, मुसल आदि वज्जाओं में प्रणय अश्लीलता की सीमा तक पहुंच गया है, परन्तु व्यंग्यप्रधान शैली का आश्रय लेने के कारण कुरूपता कम हो गई है । धार्मिक वज्जा की सांकेतिक शैली अपने ढंग की अनूठी है । यथासंभव अश्लील अर्थ को गुप्त ही रखा गया है । व्यंग्य के रूप में बड़ी विदग्धता के साथ उसका संकेत किया गया है । जहाँ तक हो सका है, वहाँ तक वाच्यार्थ को अभद्र नहीं होने दिया गया है । जैसे हम अपने गुह्य अंगों को सुरम्य वस्त्रों से आवृत कर लेते हैं, नग्न नहीं रहने देते हैं, उसी प्रकार कुशल कवि भी रख कर ही विदग्ध गोष्ठियों में । उसमें यदि कहीं अभद्रता भी होती है, तो उसका नग्न प्रदर्शन नहीं रहता है । इस प्रकार मनाक् प्रच्छादित अश्लीलता पर सबकी दृष्टि नहीं पड़ती है । संवेध होती है । मुसल, लेखक और यांत्रिक वज्जाओं के वाच्यार्थ बिल्कुल अश्लील नहीं हैं | ज्योतिषिक और वैद्य वज्जाओं में श्रृंगार का प्रच्छादन श्लेष से किया गया है । जिन गाथाओं में न तो श्लेष है और न कोई प्रतीक ही है, वहाँ भी उत्कट शृंगार संलक्ष्यक्रम वस्तुध्वनि के रूप में प्रतीयमान ही रहता है, वाच्य नहीं । जहाँ वाच्यार्थ में श्लीलता का अभाव है, वहाँ भी अनेकार्थक शब्दों के कारण शाब्दी व्यंजना का स्फुरण हो जाता है । समासोक्ति के स्थलों पर वस्तुतः अश्लीलता रहती नहीं है । वहाँ विशेष्य (उपमेय, प्रस्तुत ) में श्लेष नहीं रहता है । अत: कार्य, लिंग और विशेषणों के सारूप्य के कारण अप्रस्तुत व्यवहार का व्यंजना से आभास मात्र होता है ।
शैली वैदग्ध्य से
वह तो सहृदय
वज्जालग्ग का भणिति वैदग्ध्य अद्वितीय है । विविध भावों का परिपोष और रसों का अतिरेक, इसकी प्रमुख विशेषतायें हैं ।
काव्यशास्त्र में रसादि को
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