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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
'पतझड में वसन्त' में---
अन्यायी मायी मांसीशी मदपायी ॥ लाभालाभ और सुख-दुःख में, स्तुति-निंदा जीवन-मृति सुख में,
सम अपमान-मान संन्यासी ।। 'भरी जवानी आ कुर्बानी' में
काम भोग किम्पाक फलोपम, शल्य काम है आशी-विष सम । बिना प्रयत्न परम गुरु वाणी,
बणी स्वयं वरदान रे, धर ध्यान रे ।। 'दिशा ही बदलगी' में
___ इह भव तज परभविक पिपासा ॥
तेरापंथी साहित्य में प्राकृत भाषा के भी बहुत से शब्द अंगीकृत हुए हैं । उदाहरणार्थअखम-अक्षम
ऋख-ऋषि अखुद्र-अक्षुद्र
गुणठाणो---आत्म-विस्तार की भूमिका अरिहंत-तीर्थकर जो चार घाति चोलपट्ट---मुनियों का अधोवस्त्र
कर्मों का क्षय कर देते हैं। भन्ते-सम्बोधन अलख-अलक्ष्य
श्राय-धर्मशाला अलुज्झ---उलझ
श्रावक-आस्थाशील व्रतचारी । आचार्य तुलसी के काव्य में उद्धत प्राकृत के कुछ उदाहरण'कुम्हारी री करामात' में
अइमंता जीवजशा। अहासुहं । संजम तपसा अप्पाणं भावेमाणे ।
सुक्कझाणं तरिया । 'समता रो समन्दर' में
अइमुत्ता । अत्ता कत्ता विकत्ता। तहत्ति भगवन ! तहत्ति भगवन !
भिक्खु पडिमा 'पतझड़ में वसन्त' में-- अमारि पडह ।
पजूषण। 'दिशा ही बदलगी' में-मत्थेण वन्दामि ।
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