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तेरापंथ के राजस्थानी साहित्य का कलापक्ष
भी नीरस कहला सकती है। साथ ही, सबल कलापक्ष के होने पर धार्मिक और दार्शनिक विषयों की रचनाएं भी सरस बन सकती हैं।
'तेरापंथ'' से सम्बन्धित इन रचनाओं की शैली वर्णनात्मक है। प्रायः कविगण विशेषतः पंथ, धर्म एवं सम्प्रदाय विशेष के रचयिता इतिवृत्त ही प्रस्तुत करते हैं । परिणामस्वरूप वह काव्य मात्र उस सम्प्रदाय के मतावलम्बियों तक ही सीमित हो जाता है। पर इन रचनाओं के सन्त कवियों ने सम्बन्धित वर्णनों को प्रतीकों, लंकारों आदि के माध्यम से सहज ग्राह्यता प्रदान की है। उदाहरणार्थ प्रस्तुत है-कालयशोविलास की निम्नांकित पंक्तियां जहां कुशल कवि आचार्य तुलसी ने अपनी कारयित्री प्रतिभा से यात्रासमय साधु-संन्यासियों का मनोरम विश्लेषण किया है--
कई भस्म-विलेपित गात्रा, शिर जटा जूट वे मात्रा । मृग छाल विशाल बिछावै, मुख सींग डींग संभलावै ।। बाबा बाघंबर ओढे, गंगा जमना तट पोढ़े । कइ न्हा धो रहै सुचंगा, कइ नंगा अजब अडंगा ।। कइ पंचाग्नि तप ताप, जंगम थावर संतापै । ऊंचे स्वर धुन अलापै, कइ जाप अहो निश जापै ॥ कइ ऊहारि बोल, उदरंभि मौन न खोले । कइ डगमग मस्तक डोलै, भव वारिधि ज्यांन झकोल ॥
इन वर्णनों को रससिक्त एवं सहज ग्राह्य बनाने के लिए प्रायः कवि प्रकृति को भी अपनी कला का साधन बनाते हैं । ऋतु वर्णनों और विविध बिम्बों, प्रतीकों द्वारा वह गूढ़ बात को भी हृदयग्राही बना देते हैं, आचार्य तुलसी ने "कालयशोविलास" में मर्यादा महोत्सव जैसे यथार्थ को छहों ऋतुओं के रूप में मौलिकता प्रदान कर कलापक्ष को मौलिकता एवं सुघड़ता प्रदान की है । वर्षा ऋतु से रूपायित मर्यादा महोत्सव का स्वरूप प्रस्तुत है -
गंगा यमुना और सुरसती उछल-उछल कर गलै मिलै । विरह ताप संतान भुलाकर, रूं रूं हर्षाकुर खिलै । गहरो रंग हृदय में राचै नाचै मधुकर कर गुंजारो। तेरापंथ पंथ रो प्रहरी, म्हा मोछण लागै प्यारो ॥५
शारदीय प्रवासी हंस मानसरोवर लौट आते हैं। हंसोपम साधुसाध्वियां शरदोपम मर्यादा महोत्सव के अवसर पर गुरुकुल वास में पहुंचकर कैसे अनिर्वचनीय प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं
बण्या प्रवासी श्रमण सितरूछद, गुरुकुल मानस मौज करै, परम कारुणिक कालू बदन-सूक्त, मुक्ताफल भोज करै ।
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