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तेरापंथ के राजस्थानी साहित्य का कलापक्ष
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एवं अपने इष्ट के प्रति समर्पण भाव निमित्त उसकी प्रस्तुति लोकरूप में की जाती रही है । यही शैली साहित्य में जैन शैली संज्ञा से अभिहित है । तेरापंथ के राजस्थानी साहित्य में भी आचार्यों, मुनियों, साधु-साध्वियों के चरित्रों को इसी रूप में प्रस्तुत किया गया है । लोक में प्रचलित विविध ढालों और रागिनियों में उनकी लयों को बांधा गया है । यही गेयता इस साहित्य का प्राण है । कीर्तिगाथा से इस गेय लोकशैली का उदाहरण प्रस्तुत है -
होजी म्हांरे, भिक्षु ऋषि सूं लागी पूरण प्रीत जी । जीवड़ो रे ललवाणी स्वामी जी सूं ओलगे रे लो ॥ होजी म्हांरे स्वामी सरीखो कुण छँ दुनिया मांहि जो । देखण रो मुज मनड़ो अधिक ऊमंगे ||
इस शैली का एक अन्य उदाहरण आचार्य तुलसी की यशोविलास" से उद्धृत है, जहां शैलीगत सौन्दर्य से कवि ने व्याख्या को सरस बना दिया है
तेरा श्रमण उपासक तेरा लख सेवक तुक गायो रे । सुतां ही गुरु देव अनोखो अर्थ लगायो रे ॥
इक आचार, एक आचारज, एक विचार सुलभो रे ।
प्रबल एकता सबल संग उन रोब जमायो रे || "
इन ढालों में माधुर्य गुण कूट-कूट कर भरा हुआ है । कई बार ये ढाल मीरां के पदों का सा आनन्द देती हैं ।
रचना " कालू तेरापंथ की
भावानुकूल भाषा और अलंकार किसी भी काव्य का श्रृंगार है । दर्शन जैसी गरिष्ठ रचनाओं में भी यदि प्रयोग परिलक्षित हो तो वह देवयोग अथवा सोने में चरितार्थ करेगी | राजस्थानी के तेरापंथी कवियों की प्रसंग मिलेंगे जहां अनायास ही अलंकारों ने अपना रमणीय सहयोग किया है | राजस्थानी काव्य का सौन्दर्य वयण सगाई अलंकार के सटीक प्रयोगों में निहित है । सुविधा के लिए हम वयण सगाई अलंकार को अनुप्रास के निकट मान सकते हैं, किन्तु उसके भेद रूप में स्वीकार करना भूल होगी । आलोच्य काव्य रचनाओं में शास्त्रीय दृष्टि से वयण सगाई अलंकार के भेदों को तलासना तो व्यर्थ होगा किन्तु जहां-तहां सहज रूप से वयण सगाई के सफल प्रयोग हमें तेरापंथी काव्य रचनाओं में मिल सकते हैं,
यथा
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(क) श्रमण शिरोमणि शोभता, भिक्षु ने भारी माल ॥ ११ ॥ महिमागर मोटा मुनि, जय जश प्रत्यक्ष आरे पांच में
भिक्षु
"
रचना के कलापक्ष अलंकारों का महज
सुहागा की कहावत को रचनाओं में अनेक ऐसे
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करण सुजाण । सांनृत भाग ।। १२ ।।
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