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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
नाम निक्षेप की अवास्तविकता बताते हुए आचार्य भिक्षु लिखते
"गुण विण नाम दीयो लोक में, ने प्रतरव लेणो देस नाम दीयों छै गोविन्दराय, फिर-फिर चरावे पराई गाय बाई रो नाम दीयो छै लाछ, मांगी न मिले कुलडी छाछ"
इस प्रकार स्थापना निक्षेप के माध्यम से मूर्ति पूजा पर गहरी मीमांसा प्रस्तुत की है । द्रव्य निक्षेप विषय-वर्णन में अपना वैशिष्ट्य रखता है। अन्त में भाव निक्षेप की वास्तविकता प्रगट की है। निक्षेपों पर सरल, सरस और गंभीर विवेचन कर मौलिक विचारों को आकार दिया गया है। इस कृति में ६ ढालें, ३० दोहे और कुल २६७ गाथाएं हैं। ११. मिथ्यात्वी री करणी री चौपाई
जैन दर्शन में दृष्टि का बहुत बड़ा महत्व है । सम्यक् और मिथ्या दृष्टि के दो भंग हैं । दृष्टिकोण की यथार्थता और अयथार्थता के पारिभाषित शब्द हैं—सम्यक्त्व और मिथ्यात्व । कुछ दार्शनिक सम्यक्त्वी को ही सम्यक मानते हैं। मिथ्यात्वी की सम्यक् क्रिया को अनादेय मानते हैं। आचार्य भिक्षु ने इस अवधारणा में एक क्रांति घटित की। अपने अभिमत को स्पष्ट करते हुए कहा-सम्यक् क्रिया चाहे किसी के द्वारा की गई हो, वह आदरणीय है, जीवन-विकास के अभिमुख है । अन्यथा विकास क्रम का ही अवरोध हो जाएगा।
"मिथ्याती आछी करणी कियां बिणा, किण विध पामें समकित सार । सुध प्राकम स्यूं समकित पामसी, तिण में संकाम राखो लिगार ॥"
___ आचार्य भिक्षु ने मिथ्यात्वी की क्रिया को भगवान की माज्ञा में कहा है। इस तथ्य का उद्घाटन कर स्वामीजी ने समस्त प्राणी जगत् के लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इस कृति में ४ ढालें और २५ दोहे हैं। कुल गाथाएं १५१ है। रचना काल १८४३ और १८४६ रहा है, ऐसा अनुमानित है। १२. एकल की चौपाई
एकल से तात्पर्य है- अकेला ! जैन दर्शन में साधना के अनेक प्रकार हैं । मुख्य रूप से दो मार्ग हैं-(१) समूह के साथ रहकर साधना करना अथवा अकेले रहकर । अकेले रहकर साधना के मार्ग में चलने वालों को एकल विहारी कहा जाता है । उनमें कुछ अर्हताओं का होना अपेक्षित है।
ठाणांग सूत्र में एकल विहारी के लिए आठ अर्हताएं प्रतिपादित की हैं-सघन आस्थाशील होना, सत्यवादी, प्रज्ञावान, बहुश्रुत आदि-आदि ।
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