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आचार्य भिक्षु की साहित्य साधना
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बड़े विचारक और प्रयोक्ता थे । उनके चिन्तन में अनेक बहुमूल्य स्थाई तत्त्व थे ।
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यह कृति १२ ढालों का संग्रह है जिसमें ५४ दोहे हैं । गाथाओं की संख्या ४८७ है |
प्रारम्भिक आठ ढालों की रचना का सम्वत् नहीं मिलता। अवशेष ढालों के अन्त में निम्न जानकारी मिलती है :--
ढाल
९
१०
११
१२
सम्वत्
१८४४
१८५२
फाल्गुन सुदी ९ रविवार
आषाढ़ बदी ११ मंगलवार
१८५४
आषाढ़ बदी ११ मंगलवार
१८५३ कार्तिक बदी १४ गुरुवार
पुर
उपर्युक्त रचना - वर्णन से लगता है— कुछ ढालें मूल कृति के साथ बाद में जुड़ी हैं । वर्तमान में इस कृति का साधुवाद सटिप्पण संस्करण स्वतंत्र रूप में प्रकाशित है ।
१६. विरत - अविरत की चौपाई
भगवान महावीर के बाद जैन धर्म दो भागों में विभक्त हो गयाश्वेताम्बर और दिगम्बर । इनमें भी विभिन्न मत अपने-अपने अभिनिवेशों के साथ भिन्न-भिन्न परम्परा से जुड़ गए ।
शहर
बगड़ी
मांढा
मांढा
उन्हीं में एक परम्परा से सम्बन्धित मत एक ही क्रिया में धर्म और अधर्म दोनों को स्वीकारता था । प्रस्तुत कृति में इस आधारहीन मान्यता का खंडन किया है। साथ ही सैद्धान्तिक पक्ष को समग्रता से प्रस्तुति दी
है ।
व्रत और अव्रत दोनों का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है । इस परिप्रेक्ष्य में साधु श्रावक व्रत की अपेक्षा से एक हैं । इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य भिक्षु ने कहा :
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साध नै श्रावक रतनां री माला एक मोटी दूजी नांन्ही रे | गुण गूंथ्यां च्यारूं तीरथ रा इविरत रह गई कोनी रे ||
अत की अपेक्षा से श्रावक साधु से भिन्न हैं । इस अपेक्षा से श्रावक का खाना पीना अव्रत में है। इस प्रसंग को आचार्य भिक्षु ने अनेक आगमों की साक्षियाँ तथा शास्त्रीय दृष्टांत देकर स्पष्ट किया है ।
दान के विषय में सावद्य - निरवद्य की अलग-अलग व्याख्या कर भ्रांत धारणाओं को तोड़ने का सफल प्रयत्न किया है । इस प्रकार यह कृति अनेक मिथ्याभिनिवेशों को दूर कर अनेक विषयों में सम्यग्दृष्टि देती है । गाथाएं
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