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तेरापंथ का राजस्थानी प्रबन्ध-काव्य
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का निषेध करके । अधिकांशतः रचना भाग काव्य नायक जम्बूकुमार और उनकी आठ पत्नियों के मध्य हुए संवादों से युक्त है। जम्बूकुमार में सुधर्मा स्वामी के संसर्ग से वैराग्य जागता है; माता-पिता इस तथ्य से चिंतित हो उसका विवाह आठ श्रेष्ठी कन्याओं से करवाते हैं। मातृ-भक्त जम्बूकुमार सौभाग्य रात्रि में राग में न पड़कर पत्नियों को सतर्क-सदृष्टांत एवं मंतव्य से अवगत कराता है। पत्नियाँ ही नहीं चोरी करने आए चोर प्रभव का मन भी वीतरागी हो उठता है। यही नहीं उनके माता-पिता भी साथ ही दीक्षित हो जाते हैं । जम्बू स्वामी साधना से कैवल्य प्राप्त करते हैं । प्रवाह एवं गंभीरता कथानक की विशेषता है। यहाँ कथानक में वैशिष्ट्य एवं जीवनादर्श सम्बन्धी प्रस्थापनाओं की महत्ता को रेखांकित न करके शिल्पगत कौशल की पड़ताल करना चाहूँगा, जो भीखणजी की सृजन सामर्थ्य का भी दर्पण है तथा रचना की सफलता का एक महत्वपूर्ण आधार भी है । 'जम्बूकुमार चरित' पर दृष्टिपात करें तो सर्वप्रथम हमारा ध्यान प्रस्तुति पक्ष पर जाता है। संवाद में संवाद को योजना इस प्रस्तुति का आधार है। मूल रूप में राजा श्रेणिक और उनकी पत्नी रानी चेलणा के वीर स्वामी (वर्धमान) द्वारा दिया गया उपदेश है तथा जम्बू और उनकी आठों पत्नियों का प्रश्नोत्तर संवाद जो आवंतर कथा है किन्तु उद्देश्य की प्राप्ति से जुड़े होने के कारण प्रमुख कथा बन गई है। कथा का यह प्रस्तुतीकरण जहाँ कृतिकार की रचना में संसिक्ति को ही उद्घाटित करता है वहीं रोचकता में वृद्धि भी करता है । सौन्दर्य की इस रश्मि का नृत्य प्रस्तुति में ही नहीं भाषा सामर्थ्य में भी देखा जा सकता है जो अभिप्रेत को पूरी शक्ति के साथ व्यंजित करता है। भाषा के आडम्बर और कलात्मक छद्म से अलग सहज और कारगर प्रस्तुति की एक बानगी द्रष्टव्य
हाथी जिम छे मरण केडे जीव रे, कूआजिम तू जन्म दुख जाण नरक तिर्यंच गति अजगर जिसी, क्रोधादिक च्यारू सर्प समान बड़ साखा ज्यूं आऊखो जीव रो, ते दिन ओछो थात माखी जिम व्याधि में वेदनां, वले ओर चड़ा चूटी जाण घर मांहे बसे तिण जीव रे, लागे अनेक विध आण ।
एक उद्धरण और देखिए जहाँ कविता और दर्शन एक हो जाते हैं, शब्द और अर्थ आत्म स्वरूप हो जाते हैं
ओ संसारहट बाड़ को मेलो, निश पडयां विघड़ जासी रे लौ आ हिज विघ तुमें तननीजाणो बार-बार नर भव नहीं पासी रे लो
देसो रे आंधा येते नांहीं। मात पितादिक कुटुम्ब कबीलो, स्वारथ रा सगा जाणो रे लो दोहरी विरियां आय पड़े जब, कोई आडो न फिरे आणो रे लो ।।
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