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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
माणक महिमा में इसका प्रयोग है--
'अथवा कोरी कल्पित है कहाणी कुडी' (मा. म. प. ७८)
इन प्रयोगों की कथ्य और लोक परिवेशानुगामिता प्रमाण की अपेक्षा नहीं रखती।
इस आलेख में शैलीविज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली का बहुत सीमित उपयोग है। प्रतिमान भी एक ही लिया गया है-आवर्तन । तेरापंथ के साहित्य (राजस्थानी भाषा के) का शैलीचिह्नक प्रतिमान के आधार पर शैलीवैज्ञानिक अध्ययन किया जा सकता है, वह महती शोध और श्रम सापेक्ष्य कार्य है, पर निर्विवादतः महत्वपूर्ण है ।
यह आलेख तो एक नमूना है, एक संकेत है इस दिशा की ओर, इसी निवेदन के साथ समाप्त करता हूँ। सन्दर्भ : १. आचार्य श्री तुलसी, माणक महिमा, पृ० २५ २. वही, पृ० ३५ ३. वही, पृ० ३६ ४. वही, पृ० ४२ ५. आचार्यश्री तुलसी, डालिम चरित्र, पृ० ३८. ६. वही, पृ० ४४ ७. वही, पृ० ५२ ८. वही, पृ०६८ ९. वही, पृ० ६८ १०. वही, पृ० ६८ ११. आचार्य श्री तुलसी डालिम चरित्र, पृ० ७५
" पृ० ३३
१२.
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पृ० ५३
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" १६. , १७. , १८. , १९,२०.
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पृ० ३४ पृ० ३६ पृ० ७६ पृ० ७६ पृ० ४२
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