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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
ढाल चौदह में--
___ 'आच्छी राखी रे स्याणां सन्तां ! भैक्षव गण री रीत' संरचना का आवर्तन भर्त्सना की व्यंजना करता है। स्वयं रचनाकार कहता है--'दुःखद घटना अवसरे, राखी आछी रीत' ढाल पन्द्रह में भी समान संरचनाओं का आवर्तन हुआ है
इण रै गणि पद-तिलक लगायल्यो कनी, इण रै जीवन ग्रन्थ बंचायल्यो कनी, इण री आख्याँ रो पाणी अजमायल्यो कनी,
इण रो गौरव अपार गुण गायल्यो कनी इण नै गादी बिठाय गुंजायल्यो कनी"
प्रत्येक आवर्तित पंक्ति के पूर्व आचार्य की एक अलग-अलग विशेषता कथित है, तदनन्तर
इण रै/री/नै...........'कनी संरचना का आवर्तन है। क्योंकि वह विशिष्ट है, इसलिए गणि पदतिलक लगाया जाना है, उनका जीवन ग्रन्थ बाँचा जाना है, आँखों के तेज (पानी) को आजमाया जाना है, उनका अपार गौरव गाया जाना है। वह इन सब बातों के योग्य है। इस आवर्तन से कथ्य की निरन्तर पुष्टि होती जाती
आवर्तनों की यह विधि इन चरित काव्यों की शैली की पहचान है, इसलिए यह शैलीचिह्नक भी है। यह आचार्य श्री तुलसी के रचनाकर्म का भी शैलीचिह्नक (STYLE MARKER) है या नहीं, यह तो उनकी अन्य रचनाओं के परीक्षण के बाद ही कहा जा सकता है। प्राकृत-अपभ्रंश के चरित काव्यों में मुझे यह नहीं मिली । आवर्तन एक ओर कथ्य को केन्द्राभिसारी बनाता है, दूसरी ओर रचयिता के शिल्प को भी उजागर करता है । इस दृष्टि से यह साहित्य एक परम्परा की नींव भी है।
____ कतिपय अन्य प्रयोग भी हैं जिन्हें शैलीचिह्नक कहा जा सकता है। जब-जब रचयिता किसी मुनि आचार्य द्वारा शासना की बात कहता है, वह
एक आसन बैठे गुरु घड़ी रे घड़ी, सागी शेर ज्यूं दडूकै ज्यांरे देशना करै । ५
पाट पर बेठ्यो ही बाबो शेर ज्यूं दडूक'3
'शेर ज्यं दडूके' पदबंध का प्रयोग करता है। एक प्रकार से यह पदबंध संदर्भवद्ध है, इसलिए मैं इसे शैलीचिह्नक कहना चाहता हूँ।
आचार्यश्री तुलसी रचनाकार के रूप में सिद्ध कवि हैं। जिस भाषा में
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