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आचार्य श्री तुलसी विरचित... शैलीवैज्ञानिक संदृष्टि
२२३ 'आछा म्हांनै लागो रा स्वाम जी' 'प्यारा' और 'आच्छा' एक ही हाईपोग्राम के शब्द हैं । ढाल पाँच में 'दयानिधि डाल मुनि' पदबंध का आवर्तन है । इस आवर्तन से प्रतीत होता है, जैसे रचयिता ‘डालमुनि' के विषय में अन्य बहुत कुछ कहता हुआ भी उनकी दयालुता पर केन्द्रित है, इसे भूल नही पाता, बार-बार स्मरण करता है। आवर्तन की यह विधि राजस्थानी साहित्य में विरल ही है।
छठी ढाल में डालमुनि के चरित्र को कहते हुए रचयिता--
'डालचंद-चरित्र परम पवित्र सुण तन मन ठरै" संरचना का तीन बार आवर्तन करता है, जैसे चरित्र-गान ही उसका उद्देश्य नहीं है, वह उसका प्रभाव भी बतलाना चाहता है। जैसे वह उनके चरित्र से इतनी एकात्मता का अनुभव करता है कि एक प्रकार के कथन से उसे संतोष नहीं होता, आत्मविश्रान्ति नहीं मिलती अतः ढाल आठ में पुन:
___'भाविक मन भावणोरे, डालमचंद चरित्र' ।" संरचना का दो बार आवर्तन करता है। जैसे, डालमचंदजी के चरित्रसागर में ऊभ-चूभ हो रहा हो । इन आवर्तनों से यह चरित्र-कथन सधन हो उठता है, सहज प्रेरणा का स्रोत बन जाता है । ढाल तेरह में
लाख उपचार करो' उपवाक्य का आवर्तन कथ्य की मार्मिकता को उजागर करता है। रचियता कहता है
आ टल न होवणहार, लाख उपचार करो, ___ इण आगे सबकी हार, लाख उपचार करो॥
श्री माणक मुनि अस्वस्थ हुए, उपचार-प्रयत्न किये गये, पर होनी को कौन टाल सकता है, उसके आगे तो सब विवश हैं। यह आवर्तन मनुष्य की विवशता, उसकी सीमा की व्यंजना करता है। इसी प्रसंग में---
___ 'शासण सारो सब साध-सत्यां, शोभै शासणपति रा सागै९ संरचना का तीन बार आवर्तन तेरापंथ के सत्य को तो उजागर करता ही है, सामान्य यथार्थ का भी ज्ञापक है। यही आवर्तन इस ढाल की गीतिकाओं को एक सूत्र में निबद्ध करने वाला तत्त्व है, इस ढाल का उन्मीलक है, यही अग्रप्रस्तुत भाषिक उपादान है। मानवीय वैवश्य का इतने सरल शब्दों में कथन, वस्तुतः अद्भुत है। इसी विवशता की अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में है--शोक इस प्रसंग का बीज भाव है, आवर्तन में घनीभूत हुआ है
ओ बिना बगत सूरज छिपग्यो, लागै है अंबरियो ऊणो, बुझग्यो दीपक जो जगमगतो, करग्यो सगलै घर नै सूनो । तारा नक्षत्र घणां नभ में, पिण चाँद बिना फीका लागै, शासण सारो सब साध-सत्यां, शोभै शासणपति रा सागै ॥
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