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आचार्य भिक्ष की साहित्य साधना
मौलिक स्थान है । सम्यक्त्व के लक्षण क्या हैं ? सम्यक्त्व रत्न का अधिकारी कौन है ? सम्यक्त्व का स्वरूप क्या है ? आदि-आदि विषयों पर गहरी मीमांसा की गई है इस रचना में। यह रचना दो ढालों का संग्रह है, जिसमें कुल २ दोहे और ४६ गाथाएं हैं। ३०. दान री ढालां--
आचार्य भिक्षु ने लिखा हैदान शील तप भावना, ए च्यारूं जिण आग्या हीत । जे समदिष्टि जिनधर्म में, यांने ओलखो रूडी रीत ।।
ढा० २, दो० १, पृ० ४७० दान, शील आदि भगवान् द्वारा निर्दिष्ट तत्त्व हैं, लेकिन पहचान आवश्यक है। दान का अधिकारी कौन है ? दान किसे, किस परिस्थिति में देना चाहिए इसका सुन्दर प्रस्तुतिकरण है प्रस्तुत रचना में । बल्कि देने वाले की मानसिकता का चित्र भी बखूबी से खींचा गया है । देता वही है जिसमें उदारता है । सम्पन्नता अथवा विपन्नता उसमें बाधक नहीं बनती। जैसा कि लिखा है
केई धनवंत पिण कृपण हुवें केइ निरधन हुवें दातार । छते जोग मिल्यां कृपण थकी, लाहो लेणी न आवं लार ।।
ढा. २, गा. १९, पृ. ४७१ यह दो ढालों का संग्रह है, जिसमें ६ दोहे और ९० गाथाएं हैं । संवत् १८४२ कार्तिक महीने में सिरियारी में इसकी रचना की गई। ३१. वैराग री ढालां
भौतिक आकर्षण विकर्षण के हेतु हैं। व्यक्ति मासक्ति के घेरे में इस प्रकार कैद हो जाता है कि अन्तिम सांस तक निकलने का नाम नहीं लेता । अनादिकाल से प्राणी वासना की गिरफ्त में अंधा बना रहता है। जिन्दगी के अनेक पड़ावों से गुजरता हुआ जब बुढ़ापे की दहलीज पर पांव रखता है तब उसकी दयनीय दशा का बड़ा द्रावक चित्र आचार्य भिक्षु ने इस कृति में खींचा है। बुढ़ापा अभिशाप है इस तथ्य का जीवन्त प्रमाण है यह कृति । बूढ़ा व्यक्ति किसी को प्रिय नहीं लगता । जैसे लिखा है
जब गमतो न लागै केहने, बले दीढाई न सुहाय
पुन्य संचो पूरो हुवै, हिवें दुःख मांहे दिन जाय । इस प्रकार यह कृति मूढ़ व्यक्तियों की चेतना को झंकृत करती है। गृहस्थावस्था की विडम्बना का सुन्दर विवेचन है इस रचना में। यह कुल ४ ढालों का संग्रह है, जिसमें ५ दोहे और १०५ गाथाएं
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