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तेरापंथ का राजस्थानी में अनूदित साहित्य
इन कसौटियों पर जब जयाचार्य के साहित्य को परखते हैं तो वह न केवल इन कसौटियों पर ही खरा उतरता है बल्कि कई नई कसौटियों को भी जन्म देता है। उदाहरण के रूप में मूलपाठ को सामने रखकर अनुवाद को देखना होगा।
आगमकार ने सूर्योदय का वर्णन करते हुए कहा है"उट्ठियम्मि सूरे, सहस्सरस्सिम्मि दिणय रे तेयणा जलते ।" अविकल रूप से अनुवाद की भाषा इस प्रकार हैसहस्र किरण दिनकर इसो तेज करीने जान । जाज्वलमान सुदीपतों उदय छटै असमान ।।
जयाचार्य ने मूलपाठ के अनुवाद के साथ-साथ अभयदेवसूरिकृत वृत्ति के मुख्य अंशों का भी अनुवाद किया है। टीका और वृत्ति दोनों का संयुक्त अनुवाद कर जयाचार्य ने अपने अनुवाद में मणि-कांचन संयोग उपस्थित कर दिया है।
प्रसंग है गौतमस्वामी के व्यक्तित्व चित्रण का। गौतमस्वामी ऐसी तेजोलेश्या सम्पन्थ थे जिसका संकोच या विस्तार किया जा सके । मूल पाठ है--संक्खित्त विउल तेउलेस्से ।
वत्तिकार ने इसकी टीका की है-संक्षिप्ता शरीरांतर्लीनत्वेन ह्रस्वतांगता विपुला विस्तीर्णा अनेक योजन प्रमाण क्षेत्राश्रित वस्तु दहन समर्थत्वात तेजोलेश्या विशिष्ट तपोजन्य लब्धि विशेष प्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा।
बहुयोजन खेतर रै मांही वस्तु दहन समर्थ कहिवाई एहवी विपुल तेजोलेश्या ज्वाला विशिष्ट तप करि ऊपनी विशाला तेज सेक्षेपी तनु अन्तर कीनी, आ तो ह्रस्व पण करि लीनी।
मूलपाठ प्रश्नोत्तर शैली में है तो जयाचार्य ने अनुवाद में भी उस प्रश्नोत्तर शैली को नहीं छोड़ा है-वायुकाय के सन्दर्भ में गणधर गौतम भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं एवं महावीर उसका उत्तर देते हैं। आगमवाणी है---
वाउयाए णं भंते वाउयाए चेव आणमंति पाणमंति अउससंति नीससंति ? हंता गोयमा ! वाउयाएं वाउयाए चेव आणमंति पाणमंति अउससंति नीससंति ।
जयाचार्यकृत जोड़ है
हे भदन्त ! जे वायुकाए है वायुकाय नै जोयो। उस्सास अनै निःसास लेवै छै ? ठंता । जिनवच ह्योयो॥ अनुवाद का अर्थ केवल भाषांतर या शब्दांतर ही नहीं, उसका अर्थ है
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