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तेरापन्थ के प्रमुख राजस्थानी कवि
तेरापन्थ धर्म संघ ने अध्यात्म की ऊँचाईयों का तो स्पर्श किया ही है। साथ ही साहित्य-साधना के क्षेत्र में भी अपनी विकास यात्रा को एक गति है । संस्कृत और हिन्दी भाषा में प्रचुर साहित्य लिखा गया है, किन्तु राजस्थानी भाषा को भी उसका कम अवदान नहीं है । राजस्थानी भाषा में आत्म संगीत की अमर स्वर लहरियाँ जीवन की पगडंडी पर बढ़ते पथिकों के लिए अमर पाथेय हैं । काव्य-धारा में अनुभूति के जिस रस को ऊंडेला है वह रस कितने ही काल खंडों के बीत जाने पर भी कभी सूखेगा नहीं । तेरापन्थ को कवित्व का तो जैसे वरदान ही मिला हुआ है । आद्य प्रवर्तक भिक्षु स्वामी से लेकर आज तक कितनी ही प्रतिभाएं इस क्षेत्र का स्पर्श कर चुकी हैं । सबको परिचय की आँखों से देख पाना एक लघु पुस्तिका तैयार करना है । प्रस्तुत निबन्ध में कुछ प्रमुख और विशिष्ट कवियों का काव्य - परिचय ही अभीष्ट है ।
आचार्य भिक्षु
कवि किसी टकसाल में निर्मित नहीं होते। उनकी काव्य-प्रतिभा सहजात होती है । आचार्य भिक्षु उसके अप्रतिम उदाहरण हैं । उन्होंने काव्य शास्त्र का कहीं विधिवत् शिक्षण लिया हो ऐसा नहीं था, किंतु उनमें कवित्व की स्फुरणा सहज थी। उनकी रचनाएं काव्य की उत्कृष्टता से संचालित हैं । वे एक सन्त थे, लेकिन सामान्य नहीं । क्रांतद्रष्टा सन्त पुरुष थे । इसलिए उनकी रचनाओं में तत्कालीन प्रचलित रूढ़ियों और साधु-समाज की विकृतियों पर कसकर प्रहार हुआ है । इसलिए कहीं कहीं शब्दों में तीखापन अवश्य आ गया है, किन्तु इससे उनके काव्य का गौरव कम न होकर गुरुता को ही प्राप्त हुआ है। कबीर का सा फक्कड़पन लिए हुए उनकी शब्द - संयोजना वास्तव में उनको सच्चे साहित्यकार की भूमिका पर लाकर खड़ा कर देती है । उनकी शैली व्यंग्यात्मक है । उनके व्यंग्य-वाण एक कुशल धनुर्धारी के वाण की तरह खाली नहीं जाते । हिंसा में धर्म मानने वालों को अपना मन्तव्य बड़े ही सटीक शब्दों में समझाते हैं
साध्वी पीयूषप्रभा
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लोही खरड्यो जे पीतांबर, लोही सूं केम धोवायो । तिम हिंसा मे धर्म किहां थी, जीव उज्ज्वल किम आयो ॥
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