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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
(१०) विण उपयोगे विरुद्ध वचन, जे आयो हुवै अजाण । अहो त्रिलोकीनाथजी, वसु म्हारै नही ताण || आख्यो छँ शुद्ध जाण । दाख्या शुद्ध पिछाण ॥
(११) म्हैं तो म्हारी बुद्धि थकी,
श्रद्धा न्याय सिद्धांत नां,
(१२) पिण छद्मस्थ पणा थकी, कहियै बारंबार । प्रभु सिकार अर्थ प्रति, तेहिज छँ तंतसार ॥
(१३) अण मिलतो जु आयो हुवै, मिश्र आयो हवै कोय |
संका सहित आयो हुवै, तो मिच्छामी दुक्कडं मोय ॥
भगवती सूत्र विषयों की दृष्टि से महासागर है। गणित, व्याकरण, न्याय, ज्योतिष, भूगोल, खगोल कोई भी ऐसा विषय नहीं जो भगवती सूत्र में न आया हो । लगता है जयाचार्य सब विषयों के तल तक बैठे हुए थे । भगवती की जोड़ में मूल के एक भी अंश या वाक्य को छोड़ना तो दूर बल्कि उन्होंने अपनी प्रतिभा एवं बुद्धि कौशल से उसे अत्यधिक स्पष्टता प्रदान की है ।
भगवती की जोड़ के तीन खण्ड सुसम्पादित होकर प्रकाशित हो चुके हैं । इस जोड़ के सम्पादन में परमाराध्य आचार्यवर, श्रद्धेय युवाचार्य श्री एवं महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभाजी के अनथक - अनगिनत श्रम- सीकरों का उपयोग हुआ है । उसी का परिणाम है कि जोड़ के ३ खण्ड तीन बहुमूल्य रत्नों के रूप में हमारे सामने हैं । अगले खंडों का क्रम जारी है जिस दिन यह पूरा ग्रन्थ प्रकाश में आएगा | जैन साहित्य की तो अद्भुत सेवा होगी ही राजस्थानी साहित्य समृद्धि के शिखर को छूने लगेगा ।
भगवती सूत्र के अतिरिक्त जयाचार्य द्वारा किए गए अन्य आगमों के अनुवाद अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं । इसलिए इस निबन्ध में मैंने उनकी विस्तार से चर्चा नहीं की है । आगम का एक सूक्त है -- “ जे एगं जाणई से सव्वं जाणई" एक को जानने वाला सबको जान लेता है । यदि हमने भगवती जोड़ जैसे महार्णव को तर लिया तो छोटी मोटी नदियाँ स्वतः ही तर ली जाती है ।
इस प्रकार जयाचार्य को हम महान अनुवादक के रूप में देखते हैं । उनके साहित्य-समुद्र में व्यक्ति ज्यों-ज्यों अवगाहन करता है नये-नये मणिमुक्ताओं से लाभान्वित होता हुआ अतिरिक्त आह्लाद का अनुभव करता है । द्वितीय आचार्यश्री भारमलजी के शासनकाल में एक सन्त हुए हैं मुनि जिवोजी । वे भी एक कुशल अनुवादक थे । उन्होंने ग्यारह जैनागमों का राजस्थानी भाषा में अनुवाद कर साहित्य को गरिमा प्रदान की है । इसके
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