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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
भरत छोड़ दीनी मन री ममता सती रो सरीर देखी ने आई समता । पछे दीपती दोक्षा दराई ।
तपस्या के द्वारा विषयोन्मुख पुरुष के हृदय परिवर्तन की यह घटना आचार्य भिक्षु की शिल्प-संयोजना का आश्रय पाकर और अधिक निखर उठी
है ।
कवि की भाषा मारवाड़ी और मेवाड़ी का मिश्रित रूप है । प्रासाद गुण से युक्त है, किन्तु भावों की गहनता से भी खाली नहीं है । उक्तियों के प्रयोग काव्य में रसात्मकता पैदा कर देते हैं
आभो फार्ट थीगड़ी कुछ छँ देवणधर ।
ज्यू गुरु सहित गण बिगड़ियां त्यांरै चहुं दिस पडिया वघार ॥ यदि आकाश फट जाए तो उसके कौन पैबन्द लगा सकता है । गुरु सहित धर्म संघ बिगड़ जाए तो वहाँ चारों ओर बड़े-बड़े छिद्र हो जाते हैं । ( वहां पैबन्द लगाने की गुंजायश नहीं रहती । )
इनका कुल साहित्य ३८ हजार पद्य प्रमाण है, जो राजस्थानी काव्य साहित्य की अनुपम निधि है । आचार-मीमांसा, तत्त्व-मीमांसा, सिद्धान्तमीमांसा, आख्यान, उपदेश – इन विषयों पर लगभग उनकी ५५ रचनाएं हैं ।
जयाचार्य
आचार्य भिक्षु के बाद काव्य- सर्जना के क्षेत्र में पूज्य जयाचार्य का नाम बड़े आदर के साथ स्मरण कर सकते हैं । जिनकी प्रखर मेधा ने आगमों को बड़ी कुशलता के साथ पद्यों में आबद्ध किया है ।
परिमाण की दृष्टि से भगवती की जोड़ सम्भवतः राजस्थानी भाषा का सबसे विशालकाय ग्रंथ है । अकेली भगवती की जोड़ का पद्य परिमाण ८० हजार है |
व्याकरण जैसे शुष्क और दुरूह विषय को पद्यबद्ध करना सचमुच उनकी सूक्ष्म और पारदर्शी ऋतंभरा प्रज्ञा को ही ध्वनित करता है । जैसे--- एक मात्र ते ह्रस्व है, द्विमात्र ते दीर्घ ।
रेखा त्रिमात्र प्लुत कहीजिए मात्रा काल संपेख ॥
उनकी पद्य रचना की एक विशेषता थी कि वे पद्य बोलते जाते थे और कुछ व्यक्ति बिना दोहराए लिखते जाते थे । उनकी रचनाओं के पढ़ने मे ऐसा प्रतिभाषित होता है कि वे ज्ञान के अगाध सागर में गोता लगाने वाले कुशल गोताखोर थे । वे जिस किसी विषय का स्पर्श करते उसकी पुष्टि
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