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तेरापंथ - प्रबोध - एक अध्ययन
[ समणी प्रतिभाप्रज्ञा
।
भारत भूमि पर अनेक संत कवियों ने जन्म लिया है । उनमें सूर, तुलसी, कबीर, दादु आदि ने अपनी अनुभूति को शब्दों का परिधान पहनाकर शाश्वत सत्यों की अभिव्यक्ति दी । उसी श्रृंखला में आचार्य तुलसी एक निसर्गसंत कवि हैं । धर्म-संघ का प्रशासनिक दायित्व बड़ी कुशलता व आत्मीयता से निभाते हुए भी उन्होंने साहित्य की असाधारण सेवा की । उनकी लम्बी काव्य - यात्रा की यात्रा करना सरल नहीं है । मैं अपनी यात्रा का विषय आचार्य श्री के सद्यस्क-सृजन की नई कड़ी 'तेरापंथ प्रबोध' को बना रही हूँ । 'तेरापंथ प्रबोध' एक इतिवृत गीत होने के साथ-साथ कवि के आराध्य का सम्पूर्ण जीवन-वृत है । इस गीत की विषय-वस्तु अत्यन्त विस्तृत है । ससीम शब्दों में असीम तथ्यों की अभिव्यक्ति इस बात का द्योतक है कि अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों का निर्माण तेरापंथ प्रबोध के एक-एक पद्य के आधार पर किया जा सकता है । कोई जिज्ञासु समाधान पाना चाहे कि तेरापंथ क्या है ? कैसा है ? इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या है ? इसका उद्भव और विकास कैसे हुआ ? आदि ऐसे ही अनेक प्रश्नों का समाधान इस गीत में निहित
है ।
प्रत्येक गीत का अभिलक्ष्य होता है— महद्यरित्र एवं महदुद्देश्य की प्रतिष्ठापना | वह महदूचरित्र कोई उपजीव्य स्तव्य एवं समर्थ व्यक्तित्व होता है, जिसके प्रति गीतकार की साहजिकी श्रद्धा किसी कारणवशात् स्वयमेव शाब्दिक रूप में अभिव्यक्त होने लगती है । विवेच्य गीत में एक महान् - व्यक्तित्व आचार्य भिक्षु के चरित्र की स्थापना की गई है । उनके विभिन्न रूपों का चित्रण हुआ है। राजस्थान के कंटालिया ग्राम में पिता बल्लुशाह व माता दीपां के घर पर वि. सं. १७८३ में एक पुत्र रत्न हुआ ।" बालक का नाम भीखण रखा गया । नवजात शिशु बचपन से ही तेजस्वी था - 'न खलु वयस्तेजसो हेतुः ' तेजस्विता का हेतु अवस्था नहीं है, इसका सत्यापन बालक भीख में होता है ।
आचार्य भिक्षु स्कूल या कॉलेज नहीं गये । उन्होंने अध्ययन के नाम पर कुछ पहाड़े, महाजनी हिसाब आदि सीखे । परन्तु औत्पत्तिकी बुद्धि' की विपुल सम्पदा उनके पास थी जिसे आधार पर वे सको कभी नही देखा,
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