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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
साध साध रो गिलो करै, ते आप आप रो मत ।
सुणज्यो रे शहर रा लोगां ! मैं तेरापंथी तंत ॥
सेवग का यह दोहा शीघ्र प्रसारित हो गया। तेरापंथ नाम सुनकर एक बार भीखण जी चौंके, फिर चिंतनपूर्वक स्वीकार करते हुए वंदन-मुद्रा में बोल उठे-- "हे प्रभो ! यह तेरा पंथ"" यानी तेरा पंथ--प्रभु का पंथ, सबका पंथ । इसकी तात्त्विक व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा-जिस पंथ के साधु पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इन तेरह नियमों का पालन करें, वह तेरापंथ है। स्वतः ही संघ बन गया, उसका विधिवत् नामकरण हो गया। आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन मुनि भीखण जो आदि साधुओं ने नई दीक्षा ग्रहण की।
आचार्य भिक्षु के प्रति चारों ओर विरोध का वातावरण था । एक बार केलवा में उन्हें ठहरने को स्थान नहीं मिला। लोगों ने 'अन्धेरी ओरी' का रास्ता बताया।" भीखण जी वहीं ठहर गये । वह स्थान बड़ा भयावह था। यक्ष का बड़ा उपद्रव था। उस रात यक्षदेव ने कठिन परीक्षा ली, पर भीखण जी अप्रकम्प रहे अडोल रहे । रात बीती । उन्हें जीवित देख लोगों में आश्चर्य का पारावार न रहा । वहाँ के ठाकुर सहित पूरा गाँव तेरापंथी बन गया ।१२ लगता है यहीं से वे स्वामी जी के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
जीवन भर संघों की कसौटी पर कसते-कसते वे कुन्दन बन निखर उठे। वे एक क्रांतिकारी युग-पुरुष थे। उस समय धर्म-गुरुओं और धार्मिक लोगों ने धर्म को जाति, वर्ग, सम्प्रदाय और क्रियाकांडों में उलझा दिया था। आचार्य भिक्षु ने प्रतिवाद करते हुए कहा--"धर्म व्यापक तत्त्व है उसे जाति, सम्प्रदाय की सीमाओं में क्यों बाँधा जाए।" धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा
० सत्प्रवृत्ति धर्म है, असत्प्रवृत्ति पाप है। ० त्याग धर्म है, भोग पाप है। ० संयम धर्म है, असंयम पाप है । धर्म की ये परिभाषाएं अपने आप में निर्विवाद व सार युक्त हैं।
आचार्य भिक्ष केवल साधक, धर्म-संघ के संस्थापक, प्रचारक और अनुशासक ही नहीं थे, वे अपने युग के उत्कृष्ट साहित्यकार, आशुकवि भी थे। उन्होंने अपने जीवन में अड़तालीस हजार पद्य परिणाम ग्रन्थों की रचना की । गीतकार ने एक पद्य में उसका उल्लेख किया है
नव पदार्थ, अनुकम्पा, श्रद्धाऽऽचार व्रताव्रत चौपाई वारहव्रत, निक्षेप, विनीत, विपुल साहित्य पढ़ो भाई ! हो सन्तां ! भिक्खू-दृष्टांत तो हियड़े रो हार हो ।
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