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तेरापंथ के राजस्थानी काव्यों में चारित्रिक संयोजन
1 डॉ० लक्ष्मीकान्त व्यास
अनन्त काव्य ब्रह्मांड का कवि ही सर्जक है और यह सर्जना कवि की भावनाओं के अनुरूप ही होती है। कवि की वाणी का संसार नियति के नियम से मुक्त और पूर्णरूपेण स्वतन्त्र है । कवि की यह स्वतंत्रता सार्थक तभी कही जा सकती है जब वह अपनी कला को कला तक ही सीमित न रख, समाज में आदर्शों की स्थापना के लिए उसका उत्सर्ग कर दे। भारतीय साहित्याचार्यों ने काव्य प्रयोजन में आदर्श स्थापन का महत् उद्देश्य अपनाया है, आदर्श की यह स्थापना चाहे किसी भी रूप अथवा साधन से हो वे इसे विम्त नहीं कर पाये हैं ।
जैन धर्म के तेरापन्थ आचार्यों और मुनियों ने समाज में आदर्शों की स्थापना के लिये विभिन्न चरित्रों को उपस्थित किया है, ये चरित्र इस समाज के अंग होते हए भी समाज को दिशा-निर्देश प्रदान करने वाले रहे हैं। इसी कारण चरित-काव्यों का सृजन अपेक्षाकृत व्यापक स्तर पर हुआ है। ये चरित्र जीवन्त ही हैं, कल्पना प्रसूत चरित्र बहुत ही कम देखने में आये हैं।
तेरापन्थ के आचार्यों में आचार्य भिक्खू जयाचार्य और आचार्य तुलसी ने व्यापक साहित्य सृजन किया है। उन्होंने आचार्यों, सन्तों और साध्वियों के चरित्रों का गुण-गान काव्य को आधार बनाकर किया है। एक ओर यह चरित्र-गान उन पुनीत व्यक्तित्वों का पुण्य स्मरण है, तो दूसरी ओर लोक शिक्षण का प्रमुख आयाम भी है।
साहित्याचार्यों ने चरित्र-चित्रण अथवा विश्लेषण के जो बिन्दु या मापदण्ड निर्धारित किये हैं, जिनके आधार पर काव्य-नायकों का श्रेणीनिर्धारण किया गया है अथवा पात्रों के प्रकार गिनाये गये हैं उन साहित्यिक मापदण्डों की कसौटी पर न तो इन चरित्रों को कसा जा सकता है और न ही वैसा प्रयास औचित्य पूर्ण भी है, क्योंकि पात्र विश्लेषण के साथ-साथ काव्यकलेवर, देश, काल, वातावरण और उद्देश्य पर भी दृष्टिपात आवश्यक है। समीक्ष्य काव्यों में चरित्र समायोजन एवं संयोजन अवश्य है लेकिन दार्शनिकता एवं काव्य उद्देश्य की दृष्टि से ये पात्र सामान्य न रहकर एक विशिष्ट श्रेणी के पात्र बन गये हैं, अतः इनका विश्लेषण भी उसी रूप में किया जाना चाहिये।
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