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तेरापंथ का राजस्थानी में अनूदित साहित्य
● साध्वी जिनप्रभा
भाषा भावाभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है । भाषा की वैशाखियों पर चढ़कर ही एक की अनुभूतियाँ दूसरे को लाभान्वित करती हैं । भगवान महावीर की अनुभूतवाणी के प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं-आगम । आगमों की भाषा प्राकृत रही है । उत्तरकाल में उन पर संस्कृत एवं प्राकृत में टीका, चूणि, भाष्य आदि अनेक व्याख्या ग्रन्थ लिखे गए । काल के प्रवाह के साथ भाषा का प्रवाह भी अविरल बहता रहता है। एक समय था जब संस्कृत - प्राकृत को समझना हिमालय की चढ़ाई की तरह दुरधिगम्य वन गया । अपेक्षा हुई जनभाषा में उसे प्रस्तुति देने को । तेरापन्थ धर्मसंघ ने इस दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । तेरापन्थ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु ने राजस्थानी भाषा में लगभग ३८ हजार श्लोक परिमाण साहित्य रचकर भगवान महावीर की वाणी को जनभोग्य बना दिया । आचार्य भिक्षु ने यद्यपि साहित्य, कला, छन्द, अलंकार आदि का विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया था, पर उनकी रचनाओं में है वेधकता और जीवन का मार्मिक सत्य । दर्शन की जटिलताओं को सहज भाषा में प्रस्तुति देने की उनमें अद्भुत क्षमता थी । उन्होंने जहाँ अनेक दार्शनिक ग्रंथ लिखे वहाँ जैन आगमों के अनेक स्थलों का सुन्दर सटीक अनुवाद भी किया है ।
चतुर्थ आचार्य श्री मज्जयाचार्य ने तो मानो साहित्य की स्रोतस्विनी ही बहा दी । राजस्थानी भाषा के लेखकों में जयाचार्य का स्थान सर्वोपरि है । साढ़े तीन लाख श्लोक परिमाण साहित्य लिखकर उन्होंने न केवल जैन जगत् की सेवा की है अपितु राजस्थानी भाषा को अपूर्व योगदान दिया है । किसी एक ही व्यक्ति ने राजस्थानी भाषा में इतना लिखा हो, देखने-सुनने में नहीं आया ।
जयाचार्य ने अपनी लेखनी से साहित्य की अनेक विधाओं को उपकृत किया है । चरित्रलेखन, आख्यान, इतिहास, संस्मरण, दर्शन, स्तुति, तात्विक ढाले, न्याय-व्याकरण आदि न जाने कितने विषयों पर गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लिखा है । जयाचार्य द्वारा लिखित लगभग १२५ रचनाएं उपलब्ध हैं । उनकी रचनाओं में एक महत्वपूर्ण भाग है अनूदित साहित्य ।
जयाचार्य जैनशास्त्रों के पारगामी विद्वान होने के साथ-साथ महान अनुवादक थे । उन्होंने ७ जैनागमों पर राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध टीकाएं
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