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आचार्य भिक्षु की कृतियों का काव्यात्मक मूल्यांकन
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समाहार दृष्टिगत होता है । उनके एक पद्य में वैदर्भी रीति और विरोधाभास ध्वनि का कैसा सुन्दर समवन्य है
नाम छे अबला नार पिण, सबली इण संसार । सबला सुर-नर तेहने, निबला कर दिया नार ॥ ( सुदर्शनचरित, ढाल ६/१२)
शांतरस का अनिर्वारप्रवाह तो उनकी
।
रसों का प्रयोग करने में भी वे सिद्धहस्त हैं कारण छिछले शृंगार रस का प्रतिपादन उन्हें कोटि के श्रृंगार रस का वर्णन करने में वे कभी चूकते नहीं हैं । क्षत्रिय और चोर के बीच की संघर्षपूर्ण स्थिति में जो शृंगार रस उनके काव्य में प्रस्फुटित हुआ है, वह कवि हृदयों को छूने वाला, अद्भुत और कल्पनातीत है । वे संवाद शैली में लिखते हैं
रचनाओं में है ही, अन्यान्य एक पहुँचे हुए सन्त होने के अभीष्ट नहीं है । पर उच्च
चोर पर्यो ते देखने ने खत्री करवा लागो मांण ।
चोर कहे —- गरबे किसूं ? म्हारे नारी नयणा रा लागा बांण ॥ (शील की नवबाड़, ढाल ५/१७) अपनी शब्द तूलिका से वीभत्स रस को रेखांकित करते हुए वे राक्षस की आंखों के सम्बन्ध में कहते हैं
बांका भागा भांपणा दीसता बुरा, टीलोडी रे आकार पिछाण | ती पीली छे बिण री आंखियां, खीजूर ना फल सम जांण ॥ ( मल्लीनाथ री चौपई, ढाल ९/६) मम्मट ने अपने काव्यप्रकाश में दोष रहित और गुण समन्वित रचना को काव्य कहा है । आचार्य भिक्षु की रचनाएं पद दोष, वाक्य दोष तथा वाक्यार्थ दोष से विरहित एवं शब्दगुण और अर्थगुण से समन्वित हैं । उन्हें भाषा के अधिनायक कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है । सर्वत्र भाषा उनके भावों का अनुसरण करती-सी दृष्टिगत होती है । कथ्य भाषा में सीधे-सीधे रूप से आ गया तो वैसे कह दिया, अन्यथा घुमाकर कहने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई । पर अपने फक्कड़पन के कारण किसी भी विषय को अनदेखा नहीं किया । सब पर सटीक टिप्पणी की। वृद्धावस्था के सन्दर्भ में की गई स्वभावोक्ति का एक निदर्शन है
खाट पड्यो खूं खूं करे, हुई सूगली देह ।
हाल हुकम चाले नहीं, परिजन फिर दीधो छेह ॥ इसी प्रसंग में वे आगे लिखते हैं
बूढ़ो डिगतो-डिगतो चाले, आंख नाक भरे सिर हाले । कंपण वाय ज्यूं मस्तक धूणे, जब जाय बैठो घर खूं ।
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(वैराग री चौपई, ढाल २ दूहा २ तथा ढाल २/१)
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