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तेरापंथी राजस्थानी साहित्य की रूप-परम्परा
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संवत् अठारह से गये, उपरिजके अठारह भये। तब इक भयो तिवाडी स्याम, डिभी भति पाखंड को धाम । लक्ष अधिक द्विज सब तैवांरि, सैर तही साहन की हारि। करि प्रयोग राजा वसि कियौ, माधवेसनप गुरुपद दियो। गलवा बालानंद दे आदि, रहे झांकते बैठि वादि । सबको ताहि सिरोमणि कियो, फूलिवेसनू राजपद दियो। लियो आचमन पांव पखार सौंप्यो ताहि राज सब भार । दिन कितेक बीते है जबे, महाउपद्रव कीनौ तबै । हुकम भूप को लेके वाहि, निस जिनाय देवल दिय ढाहि ! अमल राज को जैनी जहां, नाव न ले जिनमत को तहां।'
'कोई आधो कोई सारो, बच्यो जहां छत्री राव नारो काहूं में सिव मूरति घर दी, जैसी स्याम के गर दी।'
-इण ब्यौरै सू मालम पड़े के उण वेला जैनों पै मुसीबत पड़ी जीको अन्त पं० टोडरमल री शहादत सू हुयो अर स्याम तिवाड़ी नै देश निकालो मिलियो। पं० जी री मौत सू पिण जैन बीस टोला अर तेरापंथ में बंट ग्या । राव कृपाराम, बालचंद, रतनचन्द वगैरह फेरूं दीवाण बणिया अर उणां री सह सू बाइस टौला रा जैनी लेखक दौलतराम कासलीवाल', बख्तराम शाह, पार्श्वदास, रिषभदास, जयचन्द छाबड़ा वगैरह राजस्थानी भासा नै छोढ़ हिन्दी मांय लिखणो सरू कर दीनो जिणसू उठे राजस्थानी भासा तेरापंथिया री भासा बणगी।
___"भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर' मांय मुनि चौथमल लिखै के "स्वामी भीखणजीरी तात्त्विक कृतियां ३४ है जो संवत् १८३२ से १८५७ के मध्य रची गई है।" श्रावकना बारे व्रत अर विनीत अविनीत री चौपाई सं० १८३२ म जदक श्रधारी चौपई स० १८५७ म रचीजी पिण 'भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर' म भासारो भेद कोनी करीज्यो जीयां-- सं० १८३२
उत्तराधेन पेहला अधेन सूं अविनीत नै ओलखायो रे । वले तिण अनुसारे निषेधियों ते तों लेले सूतररो न्यारों रे ॥
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इण विध पोसाने कीजीये तो सीझसी आतम काजजी।
कर्म रूकसी ने वले तूटसी इम भासीयो श्री जिणराजजी ।। सं० १८५७
इविरत ओलखो उतम प्रांणी छोड़ राग ने धोखो रे । मानवनों भव अहलभहारो परभव सांमो देखो रे ।।
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