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तेरापंथ के राजस्थानी साहित्य का कलापक्ष
यमक
अतिशयोक्ति
लोकोक्ति
अनन्वय
"बिलियो" मिलियो धुर मजल "पुर" पुर में विश्राम । मुजरो है " मुजरास" स्यूं, गुड़ल्यो "गुडला" ग्राम ।।
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उदाहरण
संदेह
भाषा
आनंदकारी ओपता, समण सत्यां सिरमोड़ । आचार्य इण काल में, अवर न एहनी जोड़ ॥
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जोड़ी तो जुगती मिली, गुरू चेला "मही मंड" । जग मां पिण इम कहै, खीर मांहै जिम खंड ॥
२९
श्री माणक माणिक्य है, जौहरी "जय" गुरुदेव । उभय योग समुचित मिल्यो, फल्यो कार्य स्वमेव ॥
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सेन्यापति सेन्या मांहे सोभतो, तीन खंड में वासुदेव जांण । चक्रवत छ खंड मांहे सोभतो, ज्यूं साधां मांहे वखांण ॥ जिम इंद्र सौभ देवतां मझे, जिम साधां मांहे सो स्वाम । एहवा उत्तम पुरुष भरत क्षेत्र में, त्यांरो लीजै नित्य प्रति नाम ।। "
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कोढ़ गली काया 'र
राज- मैलां ₹ अदीठ रूप
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सम-दीठ है जकै री बोका तो बाल-भाव है । का जोग माया ?३२
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राजस्थानी भाषा की अपनी अनुरणात्मकता एवं ध्यन्यात्मकता है । वह जैन शैली के अनुकूल कही जा सकती है । इसी गुण के कारण यह धार्मिक साहित्य मध्यकाल से आज तक उसी लय और ताल के साथ न केवल जैन धर्मावलम्बियों के गले का हार है अपितु जैनेतर साहित्य प्रेमियों को भी अपनी ओर आकर्षित किए हुए है। इसके अतिरिक्त पात्रानुकूल और भावानु - कूल भाषा ने भी जैन साहित्य को जनप्रिय बनाया है । लंबी अस्वस्थता के बाद कालूगणि स्वर्ग सिधार गये । उनकी माता छोगाजी ने जब यह खबर सुनी तो मातृत्व उभर आया । बड़े धैर्यपूर्वक अपने मन को उन्होंने समझाया।
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