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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
सभी को है । वे इस सम्बन्ध में बड़ी दृढ़ता के साथ अपना दावा पेश करते हैं
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घुड़दौड़ में तो सगलाइ घोड़ा दोड़े दौड़े जकां मैं कै सगलाह ओड़-जोड़े ?
वस्तुतः आसीस में संकलित रचनाएं सेवाभावी सरल मना भाईजी महाराज के दिल का दर्पण हैं, उनके हृदय की सरलता, निश्छलता और वत्सलता इनमें प्रतिबिम्बित हुई है ।
युवाचार्य महाप्रज्ञ हिन्दी और संस्कृत के महान कवि हैं, उनकी कविता में सतही भावुकता उतनी नहीं होती, जितनी मानवीय अस्तित्व के मूल प्रश्नों को लेकर ज्ञानात्मक संवेदना की अभिव्यक्ति होती है । उनकी राजस्थानी रचनाओं से मैं सर्वथा अपरिचित था, परन्तु एक निबन्ध में "फूल और कांटे" कविता के इस उद्धरण को पढ़कर आश्चर्ययुक्त प्रसन्नता का अनुभव हुआ—
बड़ो सीधो है, पण कनै सत्ता कोनी सत्ता कोनी जद ही सीधो है, नहीं तो आज तांई रैतो ही कोनी पैली ही सिधाई पूरी हो जाती ।
इस कविता में उनके व्यक्तित्व का एक नया ही आयाम उद्घाटित हुआ है, जिसमें चिन्तन को व्यंग्य के बाण पर चढ़ाकर तीर-सा तीखा बना दिया गया है । काश ! उन्होंने ऐसे तीक्ष्ण संवेदन वाली और भी कविताएं लिखी होतीं । शायद लिखी हों और मेरे ध्यान में ही नहीं आई हो । महाप्रज्ञ भूलें नहीं कि उनकी प्रतिभा पर मायड़ भाषा का भी कुछ दावा है ।
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मुनि बुद्धमल्लजी कवियों के कवि | हिन्दी, संस्कृत और राजस्थानी भाषा में उनकी लेखनी समान रूप से गतिशील रही है । कविवर दिनकर ने 'मन्थन' की भूमिका में लिखा था " बुद्धमल्लजी सस्ती भावुकता के प्रवाह में बहकर काव्य-क्षेत्र में नहीं आ रहे हैं । उनके भीतर विचारों का तेज है । बुद्धमल्लजी चिन्तक कवि हैं और उनकी कविता में विचारों की रीढ़ स्पष्ट दिखाई देती है ।" कवि ने स्वयं लिखा हैं - मेरी कविता का प्रारम्भ राजस्थानी कविताओं से हुआ था, परन्तु राजस्थानी में उनका एक मात्र कविता-संग्रह 'उणियारो' हिन्दी कविता संग्रहों के बाद में प्रकाशित हुआ था । किसी भी दृष्टि से ये कविताएं प्रारम्भिक रचनाएं नहीं हैं, अपने कथ्य और अभिव्यंजन दोनों ही दृष्टियों से ये राजस्थानी की श्रेष्ठतम रचनाओं के समकक्ष ठहराई जा सकतीं हैं ।
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