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आधुनिक राजस्थानी कविता को तेरापंथी सन्तों का योगदान
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अपने स्वर सम्मोहन के कारण भी विशेष लोकप्रिय हुई हैं। दिनकरजी की 'आत्म-बावनी' के गीतों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे कवि आत्मा के कान में बड़ी आत्मीयता के अन्दाज में कोई मन की बात कह रहा
हे छान-छानै मैं पूछू हूं म्हारी आतमा
थे साची-साची बात बताओ जी ! यह स्वर जहां जितना आत्मीय हो गया है, वहां उनकी गीतिकाएं उतनी ही मर्मस्पर्शिनी हो गई हैं।
मुनि 'मधुकरजी' 'हवड़े रो हेलो' में भी आत्म-प्रबोधन के स्वर हैं परन्तु इनका लहजा कुछ अलग है
देखो, देखो, देखो अपणी आतमा नै देखो रे
पड़सी पड़भब रो बणणो पांवणों। लेखो, लेखो, लेखो अपणे घर रो लेल्यो लेखो रे
काई-कांई है देणो पावणो । सच तो यह है कि 'दिनकरजी' और 'मधुकरजी' की मधुर गीतिकाओं का पूरा रसानुभव उन्हे छापे के निर्जीव शब्दों में पढ़ कर नहीं, उनके कलकण्ठों की मधुर लय में सुनकर ही किया जा सकता है।
मुनि सुखलालजी ने अनेक विधाओं में अपने सृजनात्मक प्रयोग किए हैं। राजस्थानी कविता को भी उन्होंने उपेक्षित नहीं रहने दिया है। उनकी कविताओं में ओज, उत्साह और उद्बोधन के स्वर प्रधान हैं
तू अपनो पुरुषार्थ जगा लै, दुनिया अपणे आप फुरै ली। बादल घर-घर पाणी बाँटे, पण नदियां को काम करारो। एक झपाट में ले जावै, ए पाणी दुनियां रो सारो । बणा बांध मजबूत इसो तू, नदियां आपण आष कैली ।
मुनि वत्सराजजी हिन्दी के प्रातिभ कवि हैं। परन्तु उनकी एक राजस्थानी रचना की ये पंक्तियां आज के कंटीले युग-यथार्थ के चित्रण की दष्टि से मुझे बहुत प्रभावकारी प्रतीत हुई। इनमें जो सटीक व्यंग्य है, वह कवि की अंतर्वेदना से उपजा है, इसलिए गहरी मार करता है
सड़का तो सीधी आज बणी, पण बण्या आदमी टेढ़ा है। कंकर तो जमग्या सड़कां पर, (पण) मिनखां में पड्या बखेड़ा है। जो भूल्यो भटक्यो आवे तो सड़का तो पार पुगावै है। पण करै भरोसो मिनखां रो तो काली धार हुबोवै है।
आज युग-प्रधान आचार्य तुलसी के दिशा निर्देश में सन्तों और साध्वियों की कई पीढ़ियां एक साथ राजस्थानी के माध्यम से काव्य-सृजन में
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