________________
१०४
तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
चूल परिवर्तित कर दिया। कुछ कड़ी रागें भी बदल दी और उनका स्थान आजकल के बहुचर्चित कुछ लोक गीतों ने ले लिया।
काल यशोविलास की भाषा राजस्थानी है अत: इसमें राजस्थानी लोक गीतों का प्रचुरता से प्रयोग हुआ है । उनमें कुछ ये हैं:१. कसुभो
८. लावणी २. छल्लो
९. मोमल ३. तेजो
१०. होक्को ४. पीपली
११. सपनो ५. ओल्यू
१२. माढ़ ६. केवड़ों
१३. गणगोर ७. बघावो
लोकगीतों की यह विशेषता है कि ये उचित समय, उचित अवसर और उचित प्रसंग पर गाए जाएं तभी सटीक बैठते हैं ।
आचार्यप्रवर इस कला में अत्यन्त दक्ष हैं। कालूयशोविलास में इस दक्षता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं—“कसुंभो" इस गीत को मंगल प्रसंगों पर गाया जाता है।
कालयशोविलास का मंगल प्रारम्भ इसी राग से होता है । मरुस्थल का साहित्य और आलंकारिक वर्णन इस राग का माध्यम पाकर कितना सरस हो उठा है; पढ़िए कुछ पद्य
"रयणी रेणुकणां शशिकिरणां चलकै जाणक चांदी रे। मन हरणी धरणी, यदि न हुवै अति आतप अरु आंधी रे।"
उ० १, ढा० १, गा० ८ रात्रि में धोरो के रेणु कणों पर चंद्र किरणें पड़ती हैं। उन दोनों का योग देखकर कवि कहता है, ऐसा लगता है-मानो चांदी चमक रही हो। मगर यहां पर ग्रीष्म ऋतु का आतप और आंधियाँ नहीं होती तो इसकी मनोहरता का क्या कहना । आगे इस क्षेत्र की अनेक विशेषताएं बतलाते हुए एक अनोखे स्थल के रूप में चित्रित करते हुए कहते हैं यह तो "स्वर्णस्थल" है, इसे "मरुस्थल" कहना अच्छा नहीं लगता।
"इस अनोखै स्थल रो नाम, मरुस्थल नहीं सुहावै रे। स्वर्ण-स्थल भल भावै भाखत, कुण सी बाधा आवै रे॥"
उ० १, ढा० १/१३ पंचमाचार्य श्रीमद् मघवागणी के दिवंगत होने के बाद मुनि काल का विरही मन क्या-क्या चिंतन करता है, इसका चित्रण एक विरह का राग
'मूक म्हारो केडलो हूं ऊभी यूँ हजूर" में कितना सटीक लगता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org