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कालयशोविलास : विविध संगीतों का संगम
मुनि मधुकर
कालयशोविलास राजस्थानी भाषा का एक महाकाय महाकाव्य है। इसके चरित्रनायक हैं-स्वनामधन्य परमाराध्य गुरुदेव स्व० श्रीमद् कालूगणी। इसमें उनके उदात्त यशस्वी एवं अविस्मरणीय जीवन को छह उल्लासों में पद्यमय संगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। प्रांजल भाषा, प्राकृतिक चित्रण, हर घटना को पकड़ने की पैनी दृष्टि तथा भक्तिभृत आंतरिक आस्था-भाव से भरे हर पृष्ठ को पढ़ते समय पाठक आनन्द-विभोर हो उठते
कालयशोविलास एक विशाल पारावार है। इसका विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण अपेक्षित है। पर मैं प्रस्तुत निबंध के माध्यम से इसमें प्रयुक्त विविध रागनियों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ। वि० संवत् २००० की साल आचार्यप्रवर का चातुर्मास गंगाशहर में था। काल्यशोविलास का सर्वप्रथम परिषद् में वाचन वहीं हुआ। आचार्यवर उस समय २८ वर्ष की पूर्ण तरुण अवस्था में थे। गंगाशहर के पूरे चोखले की परिषद् आचार्यवर की सुमधुर प्रवचन शैली से चुम्बक की तरह खिंची हुई आती थी।
____संगीत की मुझे बचपन से ही अभिरुचि थी। अत: मेरा भी उससे सीधा लगाव हो गया। उस समय मैं ११ वर्ष का था। यद्यपि साहित्य की गहराई को इतना नहीं समझता था पर मुझे याद है--कालूयशोविलास की पहली गीतिका के "सुणिए सयणां रचित सुवयणां, गुरु व्याख्यान सुरंगो रे, सयाणां ।"
इस "ध्रुव-पद" को हम साथी लोग खूब आनन्द से गलियों में गाते हुए जाते थे। आचार्यवर के सुमधुर कंठों से सुने हुए वे गीत आज भी मेरे कंठों के साथी बने हुए हैं। रचनाकार का परिचय
___ इस महाकाव्य के सर्जक हैं-युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी । आप जैन श्वे० तेरापन्थ धर्मसघ के नवम अधिशास्ता हैं। धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक क्षेत्रों में राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आपके मौलिक विचारों एवं सूझबूझ की गूंज है । आपकी अनेक कृतियाँ साहित्य जगत में समादृत हो रही हैं।
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