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आचार्य भिक्षु की साहित्य साधना
Oसाध्वी चन्दनबाला
राजस्थानी जैन साहित्य की हजार वर्ष की परम्परा रही है। अनेक मनीषी आचार्यों-सन्तों ने राजस्थानी साहित्य भण्डार को समृद्ध किया है। विभिन्न-विधाओं में विविध विषयों पर लिखकर उन्होंने राजस्थानी साहित्य की अनुपम साधना की है। उन यशस्वी साहित्यकारों की श्रृंखला की एक विशिष्ट कड़ी हैं—आचार्य भिक्षु ।
आचार्य भिक्षु अपने युग के महान विचारक और क्रांत-द्रष्टा सन्त थे। रूढ़ परम्पराओं और मिथ्या मान्यताओं के विरुद्ध उनकी लेखनी कठोरता से चली। हर परिस्थिति में वे सत्य की शोध में उतरे रहे । धर्म, दर्शन, आचार आदि विषयों में उनकी अनुभूतियाँ काव्यात्मक रूप में अभिव्य जित हुई। उनके काव्यों में कबीर का फक्कड़पन और स्वाभाविक संवेग दृष्टि के दर्शन होते हैं।
संघर्षों के घटाटोप में भी उनका मस्तिष्क कभी कुंठित नहीं हुआ। कदम-कदम पर वैचारिक सामाजिक अवरोधों के बावजूद उनका चिन्तन रूढ़ नहीं बना, रुका नहीं। वि० सं० १८१७ में आचार्य भिक्षु ने धर्मक्रांति की। तब से लेकर १८५३ तक उन्हें विभिन्न प्रकार के संघर्षों से गुजरना पड़ा फिर भी उनकी लेखनी का अजस्र प्रवाह अविरल बहता रहा।
दर्शन के गूढ़ रहस्यों को सहज, सुबोध भाषा में बाँधना उनकी विलक्षण प्रतिभा का आत्मभू साक्ष्य है। जैन तत्त्वज्ञान, आचार विश्लेषण, सैद्धान्तिक मतभेदों का निरूपण, मर्यादा और व्यवस्थाओं का विवेचन आदि मौलिक विषयों पर जो रचनाएं उपलब्ध हैं, वे निःस्सन्देह राजस्थानी साहित्य की अप्रतिम देन है । उनका पद्य साहित्य चार भागों में विभक्त किया जा सकता है---
(१) आचार निरूपण (साधु-आचार-संहिता) (२) परवादियों का निराकरण-सैद्धांतिक पक्ष (३) आख्यान काव्य (४) प्रबन्ध काव्य
गद्य साहित्य में अधिकांशतः तात्त्विक निरूपण है । संघीय मर्यादा से सम्बन्धित पत्र भी उनके गद्य साहित्य को सुशोभित करते हैं। कवि बनाए
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