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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
उत्कर्ष दिखलाना है । ब्रह्मचर्य की रक्षा साधक को प्रत्येक स्थिति में करनी चाहिये और इस प्रकार से शील की रक्षा करते हुए व्यक्ति को कोई भी हानि नहीं पहुँचा सकता, यही इसका सार है । ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी की महिमा प्रतिस्थापित करना इस काव्य का मूल प्रतिपाद्य बनता है ।
संदर्भ - सूची
१. काव्यालंकार ( भामह) १.२
२. काव्यप्रकाश १.२
३. भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर भाग - २ रत्न १९ प्रका० तेरापंथी महासभ
प्रकाशन, कलकत्ता
४. साहित्य दर्पण - तीसरा परिच्छेद
५. दशरूपक १.११
६. भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर खण्ड-२, रत्न १९, ढा० १-१०
७. वही, ढाल १-२१
८.
ढाल २-१८
९.
१०.
११.
१२.
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१३.
ढाल ३-९
१४. दसवैकालिक अ० ८-३५, जैन विश्व भारती, लाडनूं १५. भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर खण्ड २, रत्न १९, ढा० २०-३ १६. वही ढाल ५-२
१७. ढाल १६; दोहा २
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१८. ढाल ४; दोहा २-३
१९.
ढाल १६-१
२०.
ढाल १६-९
२१.
ढाल १६
२२.
ढाल ३२-२
२३.
ढाल ३२-६
२४. ढाल १६; दोहा १
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२५. ढाल २१; दोहा २
२६
२७.
२८.
२९.
३०.
३१.
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ढाल १-१२
ढाल १-२०
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ढाल २; दोहा ७
ढाल ८-८
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ढाल २२-१
ढाल २८ - १६, १७
ढाल ४२-७
ढाल ४१-१३
ढाल ४१-१५
ढाल ४२-९
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