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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
दूर पंचमी-समिती जातां आई है निबलाई, चलता लंबी-लंबी डग भर अब काया कुमलाई । दिल बिलखावै रे खावै हियो हिलोलो।"
उ० ६, ढा० २, गा० ८,९ 'ओल्यू' राग राजस्थान की प्रसिद्ध राग है। इस राग में निबद्ध युवाचार्य पद की भूमिका के रूप में हुआ गुरु-शिष्य संवाद पाठक को एक नई दुनिया में ले जाता है तथा समर्पण और वात्सल्य का अलौकिक उदाहरण दिखलाता है । उसके कुछ बोल हैं -
"हां रे शासण नायक री मधुरी-मधुरी बोली प्यारी लागे रे, तुलसी ! हा रे बोध विधायक री
सेवा करतां सुप्त भावना जाग रे, तुलसी ! ० आज तनै मैं स्थिर मना,
तेडचो है एकांते भार भुलाऊं रे, तुलसी ! भैक्षव शासन री मता,
ममता, क्षमता लै सारी संभलाऊं रे, तुलसी ! ० सुणतो रहग्यो स्तब्ध सो, एक बार तो सहसा सद्गुरु-वाणी रे, तुलसी ! आज अचानक आ स्थिति, इंयां सामनै आसी कदे न जाणी रे, तुलसी !"
उ० ६, ढा० ६, गा० १६,१७ विरह की व्यथा बड़ी विकट होती है। आचार्य प्रवर कालूगणी जब स्वर्गवासी हो जाते हैं उस समय पूरा संघ व्याकुल सा बन जाता है । युवाचार्य श्री तुलसी की मानसिक स्थिति का तो कहना ही क्या। उस स्थिति का हूबहू चित्र देखने के लिए प्रस्तुत हैं कुछ भाव प्रधान पद्य 'चंद चरित्र' की विरह व्यक्त करने वाली राग "हो पिउ पंखीड़ा" में
० हो गुरु गुण गेहरा ! आशा-तरु अणपार जो,
लड़ालुम्ब लहराया हृदय अमारडै रे लोय । हो म्हारा शिर-सेहरा । क्यूं ओ तरुण तुषार जो,
आज अनूठो बूठो विरह तुम्हार डै रे लोय ॥ • हो गुरु गुण गेहरा । किण आगल कहुं बात जो, कुण सुणसी अब म्हारो कहण कृपा-निधे रे लोय । हो म्हारा शिर सेहरा ! निशिदिन पुलकित गात जो, रहतो सम्मद लहतो नित पद सन्निधे रे लोय ।।
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