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तेरापंथ के राजस्थानी साहित्य का कलापक्ष
आपरी पीड़ री ठा कीड़ी कोनी पाड़ी-कदेई मिनख नै क्यूंक बा जाणे ही के कोनी देखैली अती हे
कोई मोटी दीठ ।५ जैन कवि आरंभ से ही भ्रमणशील रहे हैं। देश के विभिन्न भू-भागों के उपासरों में रह कर वे अपने प्रवचन करते हैं। अतः उन्होंने सदैव उस भूखण्ड की भाषा और उसकी शब्दावली का प्रयोग अपने काव्य में किया। वैसे तो तेरापंथ के राजस्थानी कवियों की भाषा राजस्थानी ही है किन्तु उनमें राजस्थान की, विशेषतः ढूंढाड़ी, मेवाड़ी, बीकानेरी, बोलियों की शब्दावली का आधिक्य देखा जा सकता है। इसका प्रमुख कारण इन कवियों का इन भूभागों का निवासी होना भी हो सकता है।
तेरापंथ के ऐतिहासिक क्रम से स्पष्ट है कि इसका आरंभ १९वीं शताब्दी के आरंभ में हुआ । साथ ही इसका पल्लवन भी राजस्थान और गुजरात में ही अधिक हुआ । अतः भाषिक विकास के कारण इनकी रचनाओं में जहां गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी, हरियाणवी शब्दावली का स्वतन्त्रता के साथ प्रयोग किया गया है, वहीं आचार्य तुलसी एवं उनके शिष्यों की रचनाओं में अंग्रेजी शब्दों का भी खुल कर प्रयोग हुआ है, यथा
डाक्टर, गवर्नमेंट, स्टेट, पोस्टर, शूगर, माइल, स्टेशन, ऑप्रेशन, पोईजन, नोट, इंजेक्शन इत्यादि ?
___ इस आधुनिक शब्दावली की भांति ही उसी साहित्यिक गरिमा के लिये मध्यकालीन डिंगल शैली का भी आधुनिक तेरापंथी कवियों ने सुंदर प्रयोग किया है
खिलक्कत कित्त कुरंग सियाल, मिलक्कत मांजर मोर मुयार । सिलक्कत सांभर शूर शयार,
ढिलक्कत ढक्कत ढोर ढिचार ॥३६ डिंगल शैली की भांति ही अपभ्रश काव्यबंध भी कवि की भाषा को चारुता प्रदान कर रहा है
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