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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
प्रकार "तेरापंथ" का इतिहास कुल २३१ वर्षो का है । दो शताब्दियों में इसमें कुल नौ आचार्य हुए। इस पंथ के वर्तमान आचार्य तुलसी हैं।
वैचारिक दृष्टि से तेरापंथ एक आचार, एक विचार और एक आचार्य की विचारधारा का पोषक है । इसी मर्यादा में वह एक प्राणवान संघ है । इसका दर्शन तर्कविज्ञान पर आधारित है । अतः वह युगानुरूप एवं परिस्थितिनुकूल परिवर्तन का भी समर्थक है । आचार्य तुलसी द्वारा प्रतिपादित अणुव्रत दर्शन इसी दिशा में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है ।
जैन धर्म से सम्बन्धित यह पंथ ( तेरापंथ ) शुद्ध रूप से राजस्थानी है । इसका जन्म राजस्थान में हुआ । पोषण भी राजस्थान में ही हुआ । अतः इस संघ में प्रव्रजित साधु-साध्वी और अनुयायी भी राजस्थान के रहे। इस प्रकार इस संघ के प्रवचन, श्रावकाचार आदि में यहीं की भाषा राजस्थानी का प्रयोग हुआ है । अपने संघ की धार्मिक मान्यताओं और भक्ति सम्बन्धी साहित्य के सृजन का माध्यम भी राजस्थानी भाषा रही । "तेरापंथ” की विचारधारा दर्शन एवं भक्ति सम्बन्धी साहित्य का प्रणयन इस पंथ के प्रायः सभी आचार्यों, मुनियों, साधु-साध्वियों ने किया । यह साहित्य गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में रचित है। इनमें सर्वाधिक रचनाएं आचार्य भिक्ष, जयाचार्य, आचार्य तुलसी, युवाचार्य महाप्रज्ञ, मुनि सोहनलाल जी, मुनि बुद्धमल जी, मुनि चौथमल जी, मुनि मोहनलाजी " आमेट", मुनि महेन्द्र जी मुनि सुखलाल जी, साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी, साध्वी कल्पलताजी एवं साध्वी जिनरेखा जी की मिलती हैं । इन तेरापथी रचयिताओं द्वारा रचित उल्लेखनीय राजस्थानी रचनाएं हैं-झीणी चर्चा, कीर्तिगाथा, अमरगाथा ( जयाचार्यजी) कालू यशोविलास, माणक महिमा, डालिम चरित्र, नंदन निकुंज ( आचार्य तुलसी ), फूल लारे कांटो ( युवाचार्य महाप्रज्ञजी), उणियारो, जागण रोहेलो (मुनि बुद्धमल जी ) ; तथ' र कथ ( मुनि मोहनलाल जी "आमेट'); गीतों का गुलदस्ता, निर्माण के बीज ( राजस्थानी गीत - मुनि सुखलालजी) इत्यादि ।
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यद्यपि ये सभी रचनाएं साहित्यिक विषयों की तुलना में दर्शन से अधिक सम्बद्ध हैं, फिर भी इनमें एक साधारण पाठक के लिए भी यथा-प्रसंग सहज आकर्षण अनुभव होता है । यही दार्शनिक रचनाओं की सफलता का आधार है । दर्शन को प्रायः शुष्क विषय माना जाता है, किन्तु यह लेखक (कवि ) का कौशल है कि वह अपनी रचना की कुछ इस प्रकार प्रस्तुति करे कि वह सहज ग्राह्य एवं सर्वग्राह्य बन जाय । दर्शन जैसी शुष्क गोली को भी पाठक अथवा श्रोता आसानी से आत्मसात् कर ले। तात्पर्य यह कि किसी भी रचना के लिए उसका अभिव्यक्ति पक्ष अथवा कलापक्ष का सबल होना अनिवार्य है । सबल कलापक्ष के अभाव में श्रेष्ठ मार्मिक भाव सम्पन्न रचना
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