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आचार्य भिक्षुकृत सुदर्शन चरित का काव्य सौन्दर्य
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थी । वह सती एवं श्रावक-व्रत में प्रतिष्ठित थी
'सती मनोरमा नार।
पाले श्रावकनां व्रतवार' ॥१६ धर्म-कर्म का निर्वाह पति के साथ मिलकर करती थी। वह संतोषी थी
'इम सेठ संतोषी मनोरमा नारी रे ॥९ पति सुदर्शन को झूठे अभियोग में फंसाकर राजा द्वारा प्राणदण्ड दिए जाने पर तनिक भी विचलित नहीं होती बल्कि पति मार्ग का अनुसरण करती है
काउसग्ग कियो महलों में जाइ रे ।
धर्म ध्यान रहे चित्त ध्याइ रे ॥२० __ पति के पुनरागमन पर प्रसन्न होकर संसार सुख का उपभोग करती है।
मनोरमा का चरित्र तब अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त होता है, जब अपने ही मुख से अपने प्राण-प्रिय पति को श्रमण-धर्म में प्रतिष्ठित होने की कामना करती है । नारी के लिए उसका पति ही सर्वस्व होता है । कौन ऐसी नारी होगी जो हंसते-हंसते अपना सर्वस्व का परित्याग कर देगी। भारत की यही महनीय परम्परा रही है। बुद्ध की यशोधरा कहती है--
हमी भेज देती हैं रण में क्षात्र धर्म के नाते । मनोरमा के शब्द हृदयावर्जक है---
मनोरमा कहे सीसनाम ने आप म्हांने छोड्या छ आज । जत्न घणां कर पालज्यो सारजों आत्मकाज ।। पांच प्रमाद ने छोडने आलस अंग म आण ।
आर धज्यो गुरु आगन्या पोहचो बेगा निर्वाण ॥"
वाह ! सती मनोरमा ने अपना धर्म पूर्ण कर दिया। आज के समाज के लिए पार्वती, अनसुइया, सीता, चन्दनबाला, राजीमती और शिवनन्दा की तरह ही मनोरमा उपजीव्या एवं सम्मान्या है।
मनोरमा के अतिरिक्त नारी पात्रों में विषय-विगूती-कपिला, अभया और देवदत्ता-वेश्या आदि उपसर्ग दात्री के रूप में प्रस्तुत हुई हैं। रानी अभया रूप गर्विता एवं यौवनोन्मत्ता थी। उसे अपने रूप पर इतना गर्व था कि 'मैं संसार को वश में कर सकती हूं, लेकिन उस कुटिला कामलम्पटा को क्या पता कि सेठ सुदर्शन भी इसी धरती का मनोरम प्रसून है।।
रानी अभया की धाई प्रपञ्च-निपुणा है । उसके द्वारा अभया को दिए गए उपदेश उसकी प्रवीणता के परिचायक है। द्वारपाल को धोखा देकर
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