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राजस्थानी चरित काव्य-परम्परा और आचार्य तुलसीकृत चरित काव्य
डॉ. देव कोठारी
काव्य हृदय और बुद्धि की संश्लिष्ट है । इसके निर्माण में कवि के स्वभाव, संस्कार और देशकाल की परिस्थितियों का महत्वपूर्ण हाथ रहता है । इसी कारण प्रत्येक कवि की काव्य-लेखन की भूमिका भिन्न रहती है । इससे काव्य का स्वरूप बदल जाता है । स्वरूप परिवर्तन की यही प्रक्रिया काव्य को मुक्तक और प्रबन्ध काव्य में विभक्त करती है । मुक्तक काव्य में पूर्वापर प्रसंग निरपेक्ष रस चर्वणा का सामर्थ्य होता है, इस कारण वह मुक्तक काव्य कहलाता है । इसके विपरीत प्रबन्ध काव्य में मानव जीवन का पूर्ण दृश्य होता है । उसमें घटनाओं की सम्बद्ध श्रृंखला और स्वाभाविक क्रम के ठीक-ठीक निर्वाह के साथ हृदय को स्पर्श करने वाले एवं नाना भावों का रसात्मक अनुभव कराने वाले प्रसंगों का समावेश होता है । ये प्रबन्ध काव्य दो तरह के होते हैं - (१) महाकाव्य और ( २ ) खण्डकाव्य | काव्य का एक और रूप होता है, उसे चरित काव्य कहते है ।
प्रबन्ध
चरित काव्य में प्रबन्ध काव्य, कथाकाव्य और इतिवृतात्मक कथा ( पुराण कथा आदि) इन तीनों लक्षणों का समन्वय होता है । यही कारण है कि चरित काव्यों को कभी कथा, कभी पुराण और कभी चरित कहा जाता है, लेकिन यह भी ज्ञातव्य है कि चरित कथा और पुराण नामान्त वाले सभी चरितकाव्य की श्रेणी में नहीं आते हैं । वस्तुतः चरित काव्य प्रबन्ध की ही एक रूप योजना है, जहां पर पात्र पौराणिक या ऐतिहासिक तथा कालक्रम - तिथिगत एवं तथ्यगत विवरण से पूर्णतया परिपुष्ट होते हैं । इनमें प्रसंगों की मार्मिक उद्भावना रहती है । कथावस्तु अलंकृत व मर्मस्पर्शी होती है । इनका जीवन व्यापी संदेश पुरुषार्थ जागृत करना होता है । ये क्रिया के नहीं कर्म के प्रबन्ध होते हैं और इनका नायक प्रायः मोक्ष पुरुषार्थगामी होता है ।
ये चरित काव्य विषय-वस्तु और उद्देश्य की दृष्टि से छः प्रकार के होते हैं - १. धार्मिक २. प्रतीकात्मक ३. वीरगाथात्मक ४. प्रेमाख्यानक ५. प्रशस्तिमूलक और ६. लोकगाथात्मक। इसके विपरीत जैन चरित काव्यों का विभाजन प्रवृत्ति के आधार पर निम्न चार प्रकार से किया जा सकता है - (१) कर्म संस्कार प्रधान ( २ ) जीव परक ( ३ ) जगत परक ( ४ ) मनः
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