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राजस्थानी चरित काव्य-परम्परा और आ० तुलसीकृत चरित काव्य
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प्रधान । इन समस्त चरित काव्यों के अपने कुछ लक्षण हैं जिनके कारण उनकी प्रबन्ध काव्यों के अन्य रूप से नितान्त भिन्न किन्तु निश्चित पहचान होती है, ऐसे लक्षण निम्न हैं--- चरित काव्यों के लक्षण१. चरित काव्यों की शैली जीवन चरित वर्णन की शैली होती है। इनके
प्रारंभ में नायक के पूर्वज, वंश, माता-पिता, देश एवं नगर आदि का वर्णन होता है, कभी-कभी पूर्वभवों का इतिवृत्त भी दिया जाता है। इस तरह इनमें चरित नायक की जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त
अथवा कई भावान्तरों की कथा होती है। २. ये चरित काव्य कथात्मक अधिक और वर्णानात्मक कम होते हैं। इनमें
शास्त्रीय प्रबन्ध काव्यों की तरह महत्त्वपूर्ण एवं कलात्मकता उत्पन्न करने वाली घटनाओं का चुनाव और वर्णनात्मक अंशों की अधिकता
नहीं होती है। ३. चरित काव्यों में प्रेम, वीरता और धर्म या वैराग्य भावना का
समन्वय होता है । नायक अन्त में आत्म कल्याण की ओर प्रवृत्त होता है। ४. चरित काव्यों में प्रारंभ में या बीच-बीच में प्रश्नोत्तर शैली या वक्ता-श्रोता योजना होती है। यह प्रायःगुरु व शिष्य अथवा श्रावक
व श्रोता के बीच होती है। ५. इनमें अलौकिक, अतिप्राकृत और अतिमानवीय शक्तियों, कार्यों और
वस्तुओं का समावेश अवश्य रहता है। इस कारण इनमें कथानक
रूढ़ियां भी पाई जाती हैं। ६. चरित काव्यों की शैली कथाकाव्यों से अधिक उदात्त होती है । शैली में सरलता, सादगी और सामान्य जनता के लिये पर्याप्त आकर्षण
रहता है। ७. चरित काव्य उद्देश्य प्रधान होते हैं, केवल मनोरंजन करना उनका
लक्ष्य नहीं होता है । ८. इनकी कथावस्तु में व्यास का समावेश अधिक होता है। ९. इनमें घटनाओं, पात्रों और परिवेश की सन्दर्भ पुरस्सर व्याख्या
होती है। १०. नायक के चरित में इस प्रकार की परिस्थितियों का नियोजन
होता है, जिससे उसका चरित स्वतः उदघाटित होता रहता है। ११. चरित काव्यों में घटना और वर्णन दोनों का समन्वय होता है । १२. चरित काव्यों में भूल कथा के साथ-साथ आवान्तर कथाओं, वस्तुओं,
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