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राजस्थानी चरित काव्य-परम्परा और आ० तुलसीकृत चरित काव्य
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मिलै न खाद्य-पदार्थ-सार्थ जिण देशे साहिब स्वादू । बाजर-रोट सोट सम नहिं कोई फल रस रो अस्वादू रे ॥
(कालू यशोविलास, पृ० ६७)
रौद्र
सन्त सत्यां प्रतिदिन सही, गाल्यां री बौछार । रूपां जतणी राखती, सतियां री संभार । पथ में आवत-जावतां, नाना रंग बिरंग । सह्या उपद्रवशान्त मन, नित-नित नया प्रसंग ।। धैर्य ध्वंसिनी धृष्टता अमानुषिक आचार । क्षमाशील क्षमा करै, तर्कण सौ तकरार । आज रांगड़ी चौक में, भीषण हुसी भिडंत । सहनशीलता री अरी, सीमा होवै अंत ।।
(कालू यशोविलास, पृ० १३५) भयानक
हाय वेदनी कूर-कर्म, सन्ता नै क्यूं संतावै । अपणां बांध्या आप भुगतणां कुण विभाग बंटावै ॥
केसूला रा फूल टांटिया रो छातो ले बांध्यो, चूहै री मिंगणियां किण ही टूट्यो तार न सांध्यो ।।
पड़े न पल भर चैन शहर भर बेचैनी फैली है, बेरण बणी कचौटे भीतर स्यूं पिशाब थैली है।
(मगन चरित्र, पृ० १०४-१०५)
अद्भुत
सुर, दानव, गन्धर्व, सर्व आय मुझ नै कहै । मानूं नहीं सगर्व, सेरापंथी साध है ॥
(डालिम चरित्र, पृ० १५६) ३. प्रकृति वर्णन-आचार्य श्री तुलसी कृत ये चारों ही चरितकाव्य प्रकृति वर्णन की रमणीयता की दृष्टि से मनोहर एवं मुग्धकर हैं । प्रकृति की सुरम्य छटा का वर्णन इन चरित्र काव्यों, विशेषकर कालयशोविलास व मगन चरित्र में है, वह कवि की मौलिकता, सूक्ष्म निरीक्षण कुशलता, प्रकृति प्रेम का परिचायक है । शान्त रसात्मक कथानक में भी कवि ने बड़ी कुशलतापूर्वक ऐसे स्थल खोज निकाले हैं, जहां प्रकृति का चित्रण कर सके । यह चित्रण भी बड़ा सहज और स्वाभाविक है । कवि ने प्रकृति की रमणीयता,
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