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राजस्थानी चरित काव्य-परम्परा और आ० तुलसीकृत चरित काव्य ५७ अन्तमेल । इन तीनों का प्रयोग इन चरित काव्यों में देखने को मिलता है, यथा(क) आदिमेल वयण सगाई ओ शरीर नही आपरो
(मगन चरित्र, पृ० १००)
विविध हुई वगसीस
(कालूयशोविलास, पृ० २०)
(ख) मध्यमेल वयण मगाई
मगवा बोल अमोल
(मगन चरित्र, पृ० १२७) (कालूयशोविलास, पृ० १४१)
कियो घणो तकरार
(ग) अन्तमेल वयण सगाई
तब स्यूं ही निर्णीत
(डालिम चरित्र, पृ० १११)
मिल्यो नहीं आराम
(माणक महिमा, पृ० ४७)
३. भाषा शैली
आचार्यश्री की ये चारों कृतियां शान्त रसात्मक भक्ति से सम्बन्धित है। इस कारण इनकी भाषा भी विषयवस्तु के अनुरूप आधुनिक राजस्थानी है । भाषा सीधी, सरल, बोधगम्य एवं सहज है। क्लिष्टता व दुरूहता का अभाव है। आम आदमी इस भाषा को समझने एवं भावों को ग्रहण करने में सक्षम हैं। इस तरह यह भाषा मध्यकालीन संतों के साहित्य की सधुक्कड़ी भाषा के गुणों से आवृत्त है। इस राजस्थानी पर हिन्दी भाषा का स्पष्टतः प्रभाव है । प्रसंगानुसार प्राकृत एवं संस्कृत भाषा का प्रयोग भी कवि ने साथसाथ ही किया है । "कालूयशोविलास' में प्रत्येक विलास के आरम्भ व भन्त में संस्कृत भाषा का प्रयोग कवि ने अनिवार्यत: किया है। किन्तु इससे राजस्थानी के प्रवाह एवं कथानक के विस्तार में कहीं बाधा नहीं आई है।
चारों ही काव्यों की शैली कथात्मक एवं वर्णनात्मक है, गेयता इसका प्रमुख गुण है। विविध छन्दों के साथ गीतों को लयबद्ध किया है और प्रत्येक गीत की लय का संकेत भी किया है । इस तरह विविध प्राचीन मध्यकालीन एवं आधुनिक राग-रागनियों के समावेश के कारण ये चरित काव्य पढ़ने से भी ज्यादा सुनने में बड़े कर्णप्रिय लगते हैं। व्याख्यानों में इनको गेय रूप में प्रस्तुत करने से इनकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ रही है । इसी तरह
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