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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
पात्रों एवं भाव-अनुभाव का निरूपण भी आवश्यक है, ताकि जीवन की
समग्रता सहज ही उद्घाटित हो सके । १३. चरित काव्य में जो विवरण प्रस्तुत किया जाय उसमें गौण विवरण
की प्रचुरता न हो तथा सभी विवरण या ब्यौरा तर्क संगत हो । कथा
में कृत्रिमता का आभास न हो । १४. चरित काव्यों के पात्रों में स्वाभाविकता का होना आवश्यक है
क्योंकि पात्रों का अस्वाभाविक देवी-रूप चरित काव्य को पुराण बना
देता है। १५. चरित काव्यों में गंभीरता, उदारता और रूचिरता आवश्यक
होती है। चरित काव्यों की परम्परा
उपर्युक्त लक्षणों से युक्त चरित काव्यों की संस्कृत, प्राकृत, और अपभ्रंश में लम्बी परम्परा उपलब्ध होती है। यह परम्परा काफी समृद्ध और विस्तृत है। संस्कृत से भी प्राकृत में चरित काव्यों के निर्माण की परम्परा पहले मिलती है । प्राकृत का सर्वप्रथम चरित काव्य विमलसूरिकृत 'पउमचरियं है।" इसका रचना काल ग्रन्थ की प्रशक्ति में ईस्वी सन् की प्रथम शती बताया गया है, लेकिन अन्तः साक्ष्यों के आधार पर इसका रचनाकाल ई. सन् की तीसरी-चौथी शती है । यह राम कथा से सम्बन्धित है। इसी चरित काव्य के आधार पर महाकवि रविषेण ने संस्कृत में "पद्मचरितम्" की रचना की। पद्मचरितम् का रचनाकाल ईस्वी सन् को सातवीं शती है। प्राकृत का दूसरा चरित काव्य "सुरसुंदरी चरियं" है । यह प्रेमाख्यानक है । इसके रचयिता धनेश्वरसूरि है तथा रचनाकाल ई. सन् १०३८ भाद्रकृष्णा द्वितीया गुरुवार है। इसके बाद प्राकृत में चरित काव्यों की लम्बी परम्परा मिलती है, इन चरितकाव्यों में लक्ष्मण गणि कृत "सुपासनाह चरियं" (वि० सं० ११९९), अभयदेव सूरि के शिष्य-चन्द्रप्रभ महत्तर कृत "सिरि विजय चंद केवरिया चरियं (वि०सं० १२७०) तपागच्छीय अनन्त हंस कृत "सुदंसणचरियं" (ई०सन् १२७०) तपागच्छीय अन्नतहंस कृत "कुम्मापुत्त चरियं' (१६वीं शती) आदि प्रमुख हैं।
संस्कृत के चरित काव्यों में रविषेण के बाद जटासिंहनन्दि कृत 'वराङ गचरित' है। इसका रचनाकाल ईस्वी सन् की आठवीं शती का पूर्वार्द्ध है । इसी क्रम में संस्कृत में वीरनन्दी कृत "चन्द्रप्रभचरितम् (ई०सन् की १०वीं शती)" महाकवि असग कृत "शान्तिनाथ चरित" और "वर्द्धमान चरित" (ई०सन् की १०वीं शती) वादिराज कृत "पार्श्वनाथ चरितम्" (१०वीं शती ई०) महासेन कृत "प्रद्य मन चरित' (११वीं शती ई०)
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