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राजस्थानी शब्द-सम्पदा को तेरापंथ का योगदान
कहीं-कहीं तो तेरापंथी कवियों ने संस्कृत के शब्द विभक्ति सहित ग्रहण कर लिये हैं। इससे भी उनकी राजस्थानी भाषा को गरिमा और उदात्तता प्राप्त हुई है। द्रष्टव्य है आचार्य तुलसी के काव्यों से कुछ उदाहरण:---- 'प्रभुता री पराजय' में
पुनरपि वस्त्राभरणे । 'कुम्हारी री करामात' में--- पुनरपि जननं पुनरपि मरणम् । 'सपनै रै संसार' में
इष्टदेव, देवाधिदेव ! मां पाहि । यूयं वयं ।
रुदती सुदती। 'समता रो समन्दर' में - एषः । 'पतझड़ में वसन्त' में--- अन्यायीमायी मांसाशी मदपायी।
उत्तिष्ठत ! 'करै जिस्यो भरै' में
अयि पतिव्रते ! कहीं-कहीं ऐसी वाक्य-रचना मिलती है जिसमें राजस्थानी का एकाध लघु शब्द होता है, शेष सब कुछ संस्कृत-निष्ठ है। इससे ऐसे वाक्यों को संस्कृत, हिन्दी या राजस्थानी किसी भी भाषा का कहा जा सकता है । आचार्य तुलसी के काव्यों से कुछ उदाहरण यहां दिये जा रहे हैं'प्रभुता री पराजय' में--
धर्म को मूल विनय अवधार । क्षान्ति, मुक्ति अरु आर्जव मार्दव च्यार मोक्ष का द्वार ॥ अविनय विपदा, विनय सम्पदा, आगम वाक्य उदार । प्रवर प्रेरणादायी बोध-विधायी त्रिभुवन त्रायी।
प्रबल मनोरथ 'भरत-बाहुबल' आन्तर अनुसंधायी ।। 'कुम्हारी री करामात' में
प्रवचन वदन घनाघन घन पीयूष-वर्षिणी वाणी। शासन शोषण, परिजन परजन, दारा सुख की कारा। विनय विवेक विचार में आचार क्रिया में दक्ष । समता में रमतो रहै अध्यात्म-साधना लक्ष । जन-संकुल मृगवन आराम ।। प्रतिदिन अप्रतिहत गती मुनि प्रतिबद्ध समीर ।
पथ-श्रम पथ्य-अभाव तूं है रोगाक्रान्त शरीर ।। 'समता रो समन्दर' में -
जन्मान्तर संस्कारी प्रतिपल तत्पर पाप-प्रलय में ।।
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