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[भाषक-प्रकाश अन्तरंगमें शुद्धोपयोगरूप आचरण द्वारा अशुद्धता और उसके निमित्त छूट गये । शुद्धोपयोगकी धारारूप जो शुक्लज्ञान, उसके द्वारा स्वरूपको ध्येयमें लेकर पर्यायको उसमें लीन होने । नाम ध्यान है, उसके द्वारा घाति कमौका नाश होकर पलभान हुआ.है। देखो, पहिले पर्यायमें अशुद्धता थी, ज्ञान-दर्शन अपूर्ण थे, मोहा , इसलिये धातिया कर्मोके साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध था, और अब शुद्धता होते, मशुखता दूर होते कर्मोके साथका सम्बन्ध छूट गया, शान-दर्शन-सुख-वीर्य परिपूर्ण रुपसे प्रगट हो गये. और कर्मोंका नाश हो गया-किस उपायसे? शुद्धोपयोगरूप धर्म द्वारा । इस प्रकार इसमें ये तत्त्व आ जाते हैं; बन्ध, मोक्ष, और मोक्षमार्ष। जो सर्वशदेव द्वारा कहे हुए ऐसे तस्वोंका स्वरूप समझे, उसे ही धावकधर्म प्रगट होता है।
धर्मका कथन करने में सर्वशदेयके वचन ही सत्य है, अन्यके नहीं। सर्पक्षको माने बिना कोई कह कि मैं स्वयमेव जानकर धर्म कहता हूँ तो उसकी बात सचड़ी नहीं होती और सर्वश-अरहन्तदेवके सिवा अन्य मत भी एक समान है-ऐसा जो माने उसे भी धर्मके स्वरूपकी खबर नहीं। जैन और अजैन सब धर्मोको समाज माननेवालेको तो व्यवहार भावकपना भी नहीं। इसलिये भावकके धर्मक वर्णाके प्रारम्भमें ही स्पष्ट कहा है कि सर्वशके वचन द्वारा कहा हुआ धर्म ही सत्य.है. और मन्य सत्य नहीं, ऐसी. प्रतीति भावकको पहले ही होना चाहिये। . . .... ... महा, सर्वक ! ये तो जैनधर्मके देव है, देवके स्वरूपको भी जो न पहिचाने उसे धर्म कैसा? तीनलोक और तीनकालके समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायोंको वर्तमान में सर्वक्षदेव प्रत्येक समयमें स्पष्ट जानते हैं, ऐसी बात भी जिसे नहीं बैठती उसे तो सर्वदेवकी या मोक्षतत्त्वकी प्रतीति नहीं, और आत्माके पूर्ण ज्ञानस्वभावकी भी उसे खबर नहीं। आवक धर्मात्मा तो भ्रान्तिरहित सर्वदेवका स्वरूप जानता है
और ऐसा ही निजस्वरूप साधता है। जैसे लेंडीपीपरके प्रत्येक दानेमें चौंसठ पुटी चरपराहट भरी है वही व्यक्त होती है, उसी प्रकार जगत्के अनन्त जीवों में से प्रत्येक जीव में सर्वशताकी शक्ति भरी है, उसका ज्ञान करके उसमें एकाग्र होनेसे वह प्रकट होती है। देहसे भिन्न, कर्मसे भिन्न, रागसे मिन और अल्पाताले भी मिल परिपूर्ण -स्वभावी आत्मा जैसा भगवानने देखा और स्वयं प्रगट किया वैसा ही वाणीमें कहा । वैसी आत्माकी और उसके कहनेवाले संक्षकी प्रतीति करने जाये वहां रागादिकी रुचि नहीं रहती, संयोग, विकार या अस्पक्षताकी कवि