Book Title: Shravak Dharm Prakash
Author(s): Harilal Jain, Soncharan Jain, Premchand Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान श्री कुन्दकुम्द-कहान व शास्त्रमाला पुष्प-२०९ श्रावक धर्म प्रकाश PREMIKARIMARITAMATRINAINITIATRIMINATKARINITIRTHATATIANEY श्री पद्मनन्दि आचार्य रचित पद्यनन्दि पंचविंशतिकाके देशव्रतोद्योतन अधिकार पर पूज्य श्री कानजी स्वामीके भावभरे प्रवचन PIRITYRYRIRSTATERIATERIATTARTHRITIATTRAREPARATHARTAINSTARTERRARENRYANA . *.. ..******* *.22 * ** .. लेखक: ब्र. हरिलाल जैन (मोनगढ) : अनुवादक: श्री सोनचरण जैन * श्री प्रेमचंद जैन M. Com. सनावद (म. प्र.) प्रकाशक: श्री दि. जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट सोनगढ़ ( सौराष्ट्र) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावृति वि. संवत् २०२४ वीर नि. सं. २४९४ २१०० प्रतियाँ द्वितीयावृत्ति वि. संवत् २०२६ वीर नि. सं. २४९६ ३१०० प्रतिय ******** ************ : मूल्य : दो रुपये ******** ************ ******** -: मुद्रक :मगनलाल जैन अजित मुद्रणालय सोनगढ़ (सौराष्ट्र) Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . सम्यक्त्वप्रधान श्रावकधर्मका उपदेश देनेवाले पू. श्री कानजीस्वामी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRERSATARRIEREBETEHRESERTRESEANILOPONSTREBERTAITRIERIA अर्पण जिनश PERTRESEARSEXMAHARASHIEREBERREWARMERRIEWERESTHESEBERRAHASREE सम्यक्त्वधारी सन्त तुम हो श्री जिनवरके नन्द आवक हे जिनधर्म-उपासक जिनशासनके चन्द । मुनि बनोगे निकट कालमें __ होगा केवलज्ञान; उपदेश देकर दोगे हरिको रत्नत्रयका दान ॥ —ऐसे शुद्ध श्रावकधर्म-उपासक धर्मात्माओंको परम बहुमानके साथ यह पुस्तक अर्पण करता हूँ। ELESEARSESXAEBHAIRRESENTERTZBEBAHBEHEREBELIEBERESISTERESSHESEARNER ENTERTERTISEMBERARRIEREBERRISHTRIERESTISASREHESTRATI Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमः श्री वर्धमानाय प्रकाशकीय निवेदन श्री पद्मनंदी पंचविंशतिका' के 'देशव्रतोद्योतन' अधिकार पर परम पूज्य आत्मश संत श्री कानजी स्वामीने अत्यन्त भाववादी प्रवचन किये इसलिये उनका हम हार्दिक अभिवादन करते हैं। उन प्रवचनोंका सुन्दर संकलन प्र. हरिभाईने किया और वे गुजराती में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए, उसके हिन्दी अनुवादकी यह द्वितीय भावृत्ति प्रगट करते हुए अत्यन्त हर्ष होता है । प्रथमावृत्तिमें बतलाये अनुसार इस पुस्तकके अनुवादक भी सोनचरणजी दि० जैन समाज सनावदके एक सुप्रतिष्ठित ' व्यक्ति तथा अध्यात्मरसिक, सरल और गम्भीर महानुभाव हैं। सोनगढ़ साहित्यके प्रति उनकी विशेष रुचि है । दूसरे अनुवादक श्री प्रेमचंदजी जैन M. Com. हैं, और सनावदके भी मयाचंद दिगम्बर जैन उच्चतर विद्यालयमें व्याख्याता है। वे भी सोनगढ़ साहित्यके प्रति विशेष प्रेम रखते हैं । उपरोक्त दोनों महानुभावने इस हिन्दी अनुवादको अत्यन्त उल्लासपूर्वक और बिलकुल निस्पृहभावसे तैयार कर दिया है। इसलिए उनको धन्यवाद देनेके साथ उनका उपकार मानते हैं। अजित मुद्रणालय के मालिक श्री मगनलालजी जैनने इस पुस्तकका मुद्रणकार्य सुन्दर ढंगसे कर दिया है अतः उनका आभार मानते हैं । इन प्रवचनोंमें श्रावकके कर्त्तव्यका जो स्वरूप अत्यन्त स्पष्टरूपले पूज्य गुरुदेवने दर्शाया है उसका अनुसरण करनेके लिए हम सब निरन्तर प्रयत्नशील रहें... यही भावना | } अषाढ शुक्ला-२ वीर सं. २४९६ साहित्य प्रकाशन समिति, श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ (सौराष्ट्र ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: लेखकको ओरसे :'श्रावक' अर्थात् मुनिका लघुनाता ! उसका भी जीवन कैसा पवित्र आदर्शरूप और महान होता है-वह इन प्रवचनोंको पढ़ने पर समझमें भायेगा। इस पुस्तकमें श्रावकके धर्मों का सर्वांगसुन्दर वर्णन है। गृहस्थदशामें रहनेवाला श्रावक भी मोक्षमार्गमें गमन करता है। ऐसे श्रावकको धर्माचरण कैसा होता है उसका विस्तृत वर्णन करते हुए प्रथम तो 'सर्वशकी प्रद्धा' होना बतलाया है। साथ ही उसकी शुद्धदृष्टि कैसी होती है और व्यवहार आचरण कैला होता है तथा वीतरागी देव-गुरुकी पूजा-भक्ति, दया-दान, साधर्मी-प्रेम, स्वाभ्याम इत्यादिके परिणाम कैसे होते हैं ? इसका भी विस्तृत वर्णन किया है। निश्चयके साथ सुसंगत व्यवहारका इतना सुन्दर स्पष्ट, भावभरा उपदेश श्री रत्नकरंड श्रावकाचार जैसे प्राचीन ग्रन्थोंके अतिरिक्त आधुनिक साहित्यमें देखनेको नहीं मिलता। इस शैलीके प्रवचनोंका यह प्रथम ही प्रकाशन है। गृहस्थ भावकोंके धर्म-कर्त्तव्यका इसमें विस्तृत उपदेश होनेसे सबके लिए उपयोगी है। श्रावकधर्मका ऐसा सरस वर्णन भावसे पढ़ने पर पढ़नेवालेको ऐसी ऊर्मियां जागृत होती है-मानों स्वयं ही उस धर्मका आचरण कर रहा हो, आहारदानका वर्णन पढ़ते समय मानों स्वयं ही मुनिवरोंको भक्तिसे आहार दे रहा हो! जिनप्रतिमाका वर्णन पढ़ते समय मानों स्वयं ही प्रतिमाजीकी स्थापना या पूजन कर रहा हो! ऐसे भाव जागृत होते हैं। दानका वर्णन पढ़ने पर तो निर्लोभतासे हृदय एकदम प्रसन्न हो उठता है, और देवगुरुकी भक्तिका वर्णन पढ़ते समय तो मानो हम संसारको भूल ही जाते है और जीवन देव-गुरुमय बन जाता है। तदुपरान्त साधर्मीके प्रति वात्सल्य इत्यादिका वर्णन भी धार्मिक प्रेमकी पुष्टि करता है। सर्वक्षदेवकी पहिचान और प्रतीति तो सम्पूर्ण पुस्तकमें प्रारम्भसे अन्त तक व्यक की हुई है। इस श्रापकर्मक प्रवचनकार पू. श्री कानजी स्वामीका मेरे जीवन में परम उपकार है। २८ वर्षसे पू. गुरुदेवकी मंगल-छायामें निरन्तर रहनेके सुयोगसे और उनकी कृपासे मेरे जीवन में जो महान लाभ हुआ है, इसके उपरांत पू. गुरुदेवके अनेक प्रवचन लिखनेका और उमको ग्रन्थारड़ करमेका सुयोग मुझे मिला है, उसको मैं मेरे स्त्रीधनमें माद् सद्भाग्य मानता हूँ...और इसी प्रकार सदैव गुरुदेवकी मंगल चरणसेवा करता हुआ मास्महितकी साधना करें और शुद्ध भावकधर्मके पालनका मुझे शीघ्र अवसर मिले ऐसी भावना भाता हूँ। मयजिनेन्द्र धीर सं. २४९६ अषाढ़ सुदी २ -घ्र. हरिलाल जैन सोनगढ़ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थो वीतरागाय नमः अनुवादकोंकी ओरसे श्री पद्मनन्दि मुनिराज विरचित जैन-साहित्यकी सर्व-विख्यात एवं अनुपम कृति " पप्रनंदि पंचविंशतिका " के सातवें अधिकार “देशव्रत-उद्योतन" पर पूज्य आत्मज्ञ संत श्री कानजी स्वामी द्वारा दिये गये प्रवचनोंका संग्रह “भावकधर्मप्रकाश" (गुजराती) देखनेका सौभाग्य मिला। इस अनुपम संग्रहका लाभ हिन्दी भाषी मुमुक्षु भाई-बहिनोंको प्राप्त हो इस भावनासे इसका अनुवाद हिन्दीमें करनेका भाव हुआ। श्रावकोंको प्रतिदिनके छह कर्तव्योंके परिज्ञानकी आवश्यकता है। स्वामीजीके इन सुबोध प्रवचनोंसे इन कर्तव्योंका ज्ञान सहज ही हो जाता है। इस ग्रन्थके अनुवाद-कार्यमें हमें सोनगढ़ साहित्य प्रकाशन समितिकी ओरसे पूर्ण सहयोग व मार्ग-दर्शन मिलता रहा जिसके लिये हम उसके आभारी हैं। अनुवादमें कहीं भी मूल गुजराती पुस्तकके भावमें अंतर न पड़े इसका पूरा ध्यान रखनेका प्रयत्न किया है, तथापि प्रमाद एवं अज्ञानवश जो श्रुटिया रह गई हों उन्हें सुहृद पाठक-नन पूर्वापर प्रसंगके आधार पर सही करते हुए हम पर कृपाभाव रखेंगे ऐसी आशा है। __ अंतमें पुनः पुनः सत्पुरुष आत्मज्ञ संत पू. गुरुदेव श्री कानजी स्वामीका हम उपकार मानते हैं जिनके परम प्रभावसे हमें यह सत्प्रेरणा प्राप्त हुई । इत्यलम् । दि. १० सित. १९६८ ) संतचरण सेवीसनावद (म. प्र.) -सोनचरण जैन -प्रेमचंद जैन M. Com. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम . . द अनुक्रमणिका विषय * प्रवचनका उपोद्घात १ सर्वदेवकी श्रद्धापूर्वक श्रावकधर्म ... ... २ धर्मके आराधक सम्यकदृष्टिको प्रशंसा ... ३ मोक्षका बीज सम्यक्त्व, संसारका बीज मिथ्यात्व (सम्यकदर्शन हेतु परम प्रयत्नका उपदेश) ४ सम्यक्त्व पूर्वक व्रतका उपदेश वितका उपदेश ... ... ५ श्रावकके व्रतोंका वर्णन ६ श्रावकके बारह व्रत ७ गृहस्थको सत्पात्रदानकी मुख्यता ८ आहारदानका वर्णन ९ औषधदानका वर्णन १० शानदान अथवा शास्त्रदानका वर्णन ... ११ अभयदानका वर्णन १२ श्रावकको दानका फल १३ अनेक प्रकार पापोंसे बचने के लिये गृहस्थ दान करे १४ गृहस्थपना दानसे ही शोभता है ... ... १५ पात्रदानमें उपयोग हो वही सच्चा धन है ... १६ पुण्यफलको छोड़कर धर्मी जीव मोक्षको साधता है ... १७ मनुष्यपना प्राप्त करके या तो मुनि हो, या दान दे ... १८ जिनेन्द्र-दर्शनका भावभरा उपदेश १०३ १९ धर्मात्मा इस कलियुगके कल्पवृक्ष हैं १०९ २० धर्मी-भावकों द्वारा धर्मका प्रवर्तन ११२ २१ जिनेन्द्र-भक्तिवंत श्रावक धन्य है २२ सच्ची जिनभक्तिमें वीतरागताका आदर २३ श्रावककी धर्मप्रवृत्तिके विविध प्रकार १२७ २४ श्रावकको पुण्यफलप्राप्ति और मोक्षकी साधना ... १३१ २५ मोक्षमार्गमें निश्चय सहितका व्यवहारधर्म मान्य है १३७ २६ मोक्षकी साधना सहित ही अणुवतादिकी सफलता ... १४२ २७ भावकधर्मकी आराधनाका अन्तिम फल मोक्ष * स्वतंत्रताकी घोषणा (वस्तुस्वरूपकी स्वतंत्रता दर्शानेवाले दो विशिष्ट प्रवचन) १४८ से १६४ (MA :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: ::: . ९८ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टप्राभृत मोक्षप्राभृतमें कुन्दकुन्दस्वामीने श्रावकके प्रथम कर्तव्यका ! सुन्दर उपदेश दिया है, जो सम्यक्त्वकी भक्ति और प्रेग्णा जागृत करता है। उसमें वे कहते हैं कि .. हे श्रावक ! प्रथम तो सुनिर्मल और मेरुबत् निष्कंप, अचल, (चल, मलिन तथा अगाढ-इन तीन दोषोंसे रहित ) अत्यन्त निश्चल ऐसे सम्यक्त्वको ग्रहण करके, उसे (सम्यक्त्वके विषयभूत एकरूप आत्माको ) ध्यानमें ध्याना; किसलिये ध्याना! - कि दुःखके क्षयहेतु ध्याना । भावार्थ:-श्रावकको प्रथम तो निरतिचार निश्चल सम्यक्त्वको ग्रहण करके उसका ध्यान करना चाहिये, कि जिस सम्यक्त्वकी भावनासे गृहस्थको गृहकार्य-सम्बन्धी आकुलता, क्षोभ, दुःख हो वह मिट जाये। कार्यके बनने- । बिगड़नेमें वस्तुस्वरूपका विचार आनेसे दुःख मिट जाता है। सम्यग्दृष्टिको, ऐसा विचार होता है कि सर्वज्ञने वस्तुका म्वरूप जैसा जाना है वैसा निरंतर परिणमित होता है; उसमें इष्ट -अनिष्ट मानकर, सुखी-दुःखी होना बह निष्फल है, ऐसे विचारसे दुःख मिटना है, वह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है। इसलिये सम्यक्त्वका ध्यान करनेको कहा है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C00009999000 000000000000sex 209900000000008 IMMINTAP = (गुरोपात 1-1UA स्वाध्याय सयम ट AITHILI तप दान देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिनेदिने । 805550300503 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सर्वज्ञदेवको नमस्कार हो प्रवचनका उपोद्घात >AT ENTERTAIN TV J यह पमनन्दी पंचविंशतिका नामक शास्त्रका सात अधिकार चा सारा आत्माके मानन्दमें झूलते और वन-जंगलमें निवास करते वीतरागी दिगम्बर मुनिराज श्री पद्मनन्दी स्वामीने लगभग ९०० वर्ष पहले इस शासकी रचना की थी। इसमें कुल छब्बीस अधिकार हैं, उनमेंसे सातवाँ " देशवत-उद्योतम" नामका अधिकार चल रहा है। मुनिदशाकी भावना धर्मीको होती है, परन्तु जिसके ऐसी स्शा न होसके यह देशवतरूप श्रावकके धर्मका पालन करता है। उस श्रावकके भाव कैसे होते हैं, उसको सर्वशकी पहचान, देव-शास्त्र-गुरुका बहुमान आदि भाव कैसे होते हैं, आत्माके भानसहित रागकी मन्दनाके प्रकार कैसे होते हैं वे इसमें बताये गये हैं। इसमें निश्चय-व्यवहारका सामंजस्यपूर्ण सुन्दर वर्णन है। यह अधिकार जिज्ञासुओंके लिए उपयोगी होनेसे प्रवचनमें तीसरी बार चल रहा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [ श्रावकधर्म-प्रकाश अधिकार पर प्रवचन है । पूर्वमें दो बार (धीर सं० २४७४ तथा २४८१ में ) इस हो चुके हैं। श्रीमद् राजवन्द्रजीको यह शास्त्र बहुत प्रिय था, उन्होंने इस शास्त्रको "" वनशास्त्र कहा है, और इन्द्रियनिग्रहपूर्वक उसके अभ्यासका फल अमृत है-ऐसा कहा है । 66 देश-व्रतोद्योतन अर्थात् गृहस्थदशामें रहने वाले श्रावकके धर्मका प्रकाश कैसे होवे उसका इसमें वर्णन है । गृहस्थदशामें भी धर्म हो सकता है । सम्यग्दर्शनसहित शुद्धि किस प्रकार बढ़ती है और राग किस प्रकार टलता है, और श्रावक भी धर्मकी आराधना करके परमात्मदशाके सन्मुख किस प्रकार जाने वह बताकर इस अधिकारमें श्रावकके धर्मका उद्योत किया गया है। समन्तभद्रस्वामीने भी रत्नकरंडश्रावकाचार में श्रावकके धर्मोका वर्णन किया है, वहाँ धर्मके ईश्वर तीर्थंकर भगवन्तोंने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको धर्म कहा है- ( सद्दष्टिज्ञानवृत्तानि धर्मे धर्मेश्वराविदुः ) | उसमें सबसे पहले ही सम्यग्दर्शन धर्मका वर्णन किया गया है, और, उसका कारण सर्वज्ञकी श्रद्धा बताई गई हैं। यहाँ भी पद्मनन्दी मुनिराज श्रावकके धर्मोका वर्णन करते समय सबसे पहले सर्वशदेवकी पहिचान कराते हैं। जिसे सर्वशकी श्रद्धा नहीं, जिसे सम्यग्दर्शन नहीं, उसे तो मुनिका अथवा श्रावकका कोई धर्म नहीं होता । धर्मके जितने प्रकार हैं उनका मूल तो सम्यग्दर्शन है । अतः जिज्ञासुको सर्वज्ञकी पहिचान पूर्वक सम्यग्दर्शनका उद्यम तो सबसे पहले होना चाहिये। उस भूमिकामें भी रागकी मन्दता, इत्यादिके प्रकार किस प्रकार होते हैं, वे भी इसमें बताये गये हैं। निश्चय-व्यवहारकी संधि सहित सरस बात की गई है। सबसे पहले सर्वशकी और सर्वज्ञके कहे हुए धर्मकी पहिचान करनेके लिये कहा गया है । 66 99 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wal प्रकाश ....................[१]................. . सर्वज्ञदेवकी श्रद्धापूर्वक श्रावकधर्म . श्रावकको प्रथम तो भगवान सबक और उनके वचनोंकी पहिचान तथा श्रवा कोली। सर्वशके स्वरूपमें और उनके वचनमें, जिसे आम होता है वह तो मिथ्यात्वके महापापमें पड़ा हुआ है, उसे देशवत अथवा श्रावकपना होता नहीं... यह उद्घोषणा करने वाला प्रथम श्लोक इसे पायाभ्यन्तरसंगवर्जनतया ध्यानेन शुक्छेन यः कृत्वा कर्मचतुष्टयक्षयमगात् सर्वज्ञतां निषिताम् । तेनोक्तानि वचांसि धर्मकथने सत्यानि नान्यानि तद् भ्राम्यत्यत्र मतिस्तु यस्य स महापापी न भन्योऽयवा ॥ १ ॥ " देशनतरूप श्रावकधर्मका वर्णन करते समय सबसे पहले कहा जाता सर्वदेवके द्वारा कहा हुआ धर्मका स्वरूप ही सत्य है, इसके सिवाय अन्यका कास हुना सत्य नहीं,-श्रावककी ऐसी निःशंक अदा होनी चाहिये, क्योंकि धर्मक मूळ प्रणेता सर्वदेव है, जिसे उनका ही निर्णय नहीं उसे धर्मका निर्णयो सातामहीं। 2. जो सर्वक्ष हुए वे किस रीतिसे हुए? ict". "समस्त बाह्य तथा अभ्यंतर परिप्रहको छोड़कर और शुक्ल-ध्यान द्वारा चार घोति कोका नाश करके सर्वज्ञपना प्राप्त किया।" देखो शुक्लभ्यान कहो कि शुखों पंयोग कहो उससे कर्माका भय होकर साता प्रगट होती है, परन्तु बाहक की Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधनसे अथवा रागके अवलंबनसे कोई सर्वक्षता नहीं प्रगटती। मोक्षमार्ग प्रकाशकके मंगलाचरणमें भी अरिहन्तदेवको नमस्कार करते समय पं. श्री टोडरमलजीने कहा है कि-"जो गृहस्थपना छोड़कर, मुनिधर्म अंगीकार कर, निज स्वभाव साधनले चार घाति कर्मोंका क्षय कर अनंतचतुष्टयरूप बिराजमान हुए हैं...ऐसे श्री अरिहन्तदेवको हमारा नमस्कार हो"। मुनिधर्म कैसा ? शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म, उसको अंगीकार करके, भगवानने निज स्वभाव साधनसे कर्मोंका क्षय किया; कोई बाहरके सामनले अथवा रागके साधनसे नहीं, परन्तु उन्होंने निश्चयरत्नत्रयरूप निजस्वभावकारी हो कमीका क्षय किया। इससे विपरीत साधन माने तो उसने भगवानकारी जाना नहीं, भगवानको पहिचाना नहीं। भगवानको पहिचानकर नमस्कार करें सा नमस्कार कहलवि। यहाँ प्रथम ही कहा गया है कि बाह्य-अभ्यन्तर संगको छोड़कर शुक्ला से प्रभुने केवलबान पाया; अर्थात् कोई जीव घरमें रह करके बाहरमें पनाविक रख करके केवलज्ञान पा जावे ऐसा बनता नहीं। अंतरंगके संगमें मिथ्यात्वादि मोही छोड़े बिना मुनिदशा या केवलज्ञान होता नहीं। मुनिके महावतादिका राग केवलज्ञानका साधन नहीं है, परन्तु उनको शुद्धोपयोगरूप निजस्वभाव ही केवलज्ञानका साधन है, उसे ही मुनिधर्म कहा गया है। यहाँ उत्कृष्ट पात बतानेका प्रयोजन होमेसे शुक्लध्यानकी बात ली गई है। शुक्लध्यान शुद्धोपयोगी मुनिको ही होता है। केवलज्ञानका साधनरूप यह मुनिधर्म मूल लम्यग्दर्शन है, और यह सम्यग्दर्शन सर्पक्षदेवकी तथा उनके वचनोंकी पहिचानपूर्वक होता है। इसलिये यहाँ श्रावकके धर्मके वर्णनमें सबसे पहिले ही सर्पक्षदेवकी पहिवान की ति ली गई है। भालाका मान करके, मुनिवशर प्रगट करके, शुद्धोपयोषकी उम श्रेणी is करके जो 'सपेश हुए उन सर्षा परमात्माके वचन ही सत्यधर्ममा निरूपण करणे पाले हैं। ऐसे सर्वज्ञको पहिचाननेसे आत्माके ज्ञानस्वभावकी प्रतीति होती है और तब ही धर्मकी शुरुआत होती है। जो सर्वतकी प्रतीति नहीं करता उसे आत्माकी ही प्रतीति नहीं, धर्मकी ही प्रतीति नहीं; उसे तो शास्त्रकार " महापापी अथवा समव्य" कहते हैं। उसमें धर्म समझनेकी योग्यता नहीं, इसलिये उसे अभव्य कहा या है। जिसे सर्वक्षके स्वरूपमें संदेह है, मर्पक्षकी वाणीमें जिसे संदेह Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [3 सिवा अन्य कोई सत्यधर्मका प्रणेता नहीं—ऐसा जो पहिचानता नहीं और मार्ग दौड़ता है वह जीव मिथ्यात्वरूप महापापका सेवन करता है, उसमें धर्मके लिये योग्यता नहीं। ऐसा कहकर धर्मके जिहासुको सबसे पहले सर्व और सर्वश मार्मकी पहिचान करनेको कहा । अरे! तू ज्ञानकी प्रतीतिके बिना धर्म कहाँ करेगा ? रागमें बड़ा सर्वेशकी प्रतीति नहीं होती । रागसे जुदा पड़कर, ज्ञानरूप होकर सर्वशक होती हैं। इसप्रकार ज्ञानस्वभावके लक्ष्यपूर्वक सर्वज्ञकी पहिचान करके मलार धर्मकी प्रवृत्ति होती है। सम्यक्त्वी ज्ञानीके जो वचन है वे भी सर्वअनुसार है क्योंकि उसके हृदयमें सर्वशदेव विराजमान हैं। जिसके हृदयमें सर्व न हों उसके धर्मवचन सच्चे नहीं होते । देखो, यह प्रावकधर्मका प्रथम चरण ! यहाँ श्रावकधर्मका वर्णन करना है। सर्वशदेवकी पहिचान श्रावकधर्मका मूल है। मुनिके या भावकके जितने भी हैं उनका मूल सम्यग्दर्शन है । सर्वेशकी प्रतीतिके बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता, और सम्यग्दर्शनके बिना धावकके देशवत या मुनिके महावत नहीं होते; सम्पदर्शन सहित देशव्रती श्रावक कैसा होता है, उसके स्वरूपका इसमें वर्णन है, इसलिये इस अधिकारका नाम 'देशव्रतोद्योतन 'अधिकार' है । सर्वदेवने जैसा मात्मस्वभाव प्रगट किया और जैसा बाणी द्वारा कहा वैसा आत्माके अनुभव संहित निर्विकल्प प्रतीति करना सम्यक्दर्शन है । सर्वश, किस प्रकार हुए और उन्होंने क्या कहा, इसका यथार्थ ज्ञान सम्यकदृष्टिको ही होता है । अज्ञानीको तो सर्वश किस प्रकार हुए उसके उपायकी भी खबर नहीं और सर्वशदेवने क्या कहा उसकी श्री खबर नहीं है यहाँ तो कहते हैं कि जो सर्व के मार्गको नहीं पहचानता और विपरीत मार्गका आदर करता है उसकी बुद्धि भ्रमित है, वह भ्रमबुद्धि वाला है, मिथ्यात्वरूप महापापमें डूबा हुआ है । गृहस्थका धर्म भी उसे नहीं होता को धिमेकी बात ही क्या ! 6 'बाह्य और अन्तरंग सर्वसंग छोड़कर शुक्लध्यान द्वारा भगवान सर्वज्ञ हुए हैं।' सम्यग्दर्शन और आत्मज्ञान तो पहले था, पीछे मुनि होने पर बाह्य सर्व परिग्रह छोड़ा, और अतरंगी अशुद्धता छोड़ो । जहाँ अशुद्धता छोड़ी वहाँ निमित्तरूपमें बासँग छोड़ा-ऐसा कहा जाता है । मुनिदशामें समस्त बाह्यसंगका त्याग है, देहके ऊपर का एक टुकड़ा भी नहीं होता, भोजन भी हाथमें लेते हैं, जमीन पर सोते Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाषक-प्रकाश अन्तरंगमें शुद्धोपयोगरूप आचरण द्वारा अशुद्धता और उसके निमित्त छूट गये । शुद्धोपयोगकी धारारूप जो शुक्लज्ञान, उसके द्वारा स्वरूपको ध्येयमें लेकर पर्यायको उसमें लीन होने । नाम ध्यान है, उसके द्वारा घाति कमौका नाश होकर पलभान हुआ.है। देखो, पहिले पर्यायमें अशुद्धता थी, ज्ञान-दर्शन अपूर्ण थे, मोहा , इसलिये धातिया कर्मोके साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध था, और अब शुद्धता होते, मशुखता दूर होते कर्मोके साथका सम्बन्ध छूट गया, शान-दर्शन-सुख-वीर्य परिपूर्ण रुपसे प्रगट हो गये. और कर्मोंका नाश हो गया-किस उपायसे? शुद्धोपयोगरूप धर्म द्वारा । इस प्रकार इसमें ये तत्त्व आ जाते हैं; बन्ध, मोक्ष, और मोक्षमार्ष। जो सर्वशदेव द्वारा कहे हुए ऐसे तस्वोंका स्वरूप समझे, उसे ही धावकधर्म प्रगट होता है। धर्मका कथन करने में सर्वशदेयके वचन ही सत्य है, अन्यके नहीं। सर्पक्षको माने बिना कोई कह कि मैं स्वयमेव जानकर धर्म कहता हूँ तो उसकी बात सचड़ी नहीं होती और सर्वश-अरहन्तदेवके सिवा अन्य मत भी एक समान है-ऐसा जो माने उसे भी धर्मके स्वरूपकी खबर नहीं। जैन और अजैन सब धर्मोको समाज माननेवालेको तो व्यवहार भावकपना भी नहीं। इसलिये भावकके धर्मक वर्णाके प्रारम्भमें ही स्पष्ट कहा है कि सर्वशके वचन द्वारा कहा हुआ धर्म ही सत्य.है. और मन्य सत्य नहीं, ऐसी. प्रतीति भावकको पहले ही होना चाहिये। . . .... ... महा, सर्वक ! ये तो जैनधर्मके देव है, देवके स्वरूपको भी जो न पहिचाने उसे धर्म कैसा? तीनलोक और तीनकालके समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायोंको वर्तमान में सर्वक्षदेव प्रत्येक समयमें स्पष्ट जानते हैं, ऐसी बात भी जिसे नहीं बैठती उसे तो सर्वदेवकी या मोक्षतत्त्वकी प्रतीति नहीं, और आत्माके पूर्ण ज्ञानस्वभावकी भी उसे खबर नहीं। आवक धर्मात्मा तो भ्रान्तिरहित सर्वदेवका स्वरूप जानता है और ऐसा ही निजस्वरूप साधता है। जैसे लेंडीपीपरके प्रत्येक दानेमें चौंसठ पुटी चरपराहट भरी है वही व्यक्त होती है, उसी प्रकार जगत्के अनन्त जीवों में से प्रत्येक जीव में सर्वशताकी शक्ति भरी है, उसका ज्ञान करके उसमें एकाग्र होनेसे वह प्रकट होती है। देहसे भिन्न, कर्मसे भिन्न, रागसे मिन और अल्पाताले भी मिल परिपूर्ण -स्वभावी आत्मा जैसा भगवानने देखा और स्वयं प्रगट किया वैसा ही वाणीमें कहा । वैसी आत्माकी और उसके कहनेवाले संक्षकी प्रतीति करने जाये वहां रागादिकी रुचि नहीं रहती, संयोग, विकार या अस्पक्षताकी कवि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार - स्वमावसम्मुख रुचि होती है तभी सपके द्वारा कहे एप धर्मकी पहिचान होती है और तभी भाषकपना प्रकट होता है। जैनकुलमें जन्म लेनेसे ही कोई भावक नहीं हो जाता परन्तु अन्तरमें जैन परमेश्वर सर्वक्षदेवकी पहिचान करे और उनके द्वारा कहे हुए वस्तुस्वरूपको पहिचाने तभी भावकपना होता है। अरे, माकपना किसे कहते हैं इसकी भी बहुतसे जीवोंको खबर नहीं। इसलिये यहाँ देवत-उद्योतनमें पथमन्दीस्वामीने श्रावकके धर्मका उद्योत किया है, उसका स्वरूप प्रकाशित किया है। मांगलिकमें हमेशा बोलते हैं कि केबलिपण्णत्तो धम्मो शरणं पन्धज्जामि'अर्थात् मैं केवली भगवानके द्वारा कहे हुए धर्मकी शरण प्रहण करता हूँ। परन्तु सर्व-केवली कैसे हैं और उनके द्वारा कहे हुए धर्मका स्वरूप कैसा है उसकी पहिचान बिना किसकी शरण लेगा ? पहिवान करे तो सर्वशके धर्मकी शरण लेना कहलाता है, और उसे स्वाश्रयसे सम्यदर्शनादि धर्म प्रगट होते है । मात्र बोलनेसे धर्मकी शरण नहीं मिलती, परन्तु केवली भगवानने जैसा धर्म कहा है. उसकी पहिचान करके अपनेमें वैसा भाव प्रगट करे तो केवलीके धर्मकी शरण ली-कहलाये। सबसे पहले सर्वदेवकी और उनके द्वारा कहे हुए धर्मकी पहिचान करने. को कहा गया है। शास्त्रकारने मात्र बाह्य अतिशय द्वारा या समवसरणके वैभव द्वारा भगवानकी पहिचान नहीं कराई परन्तु सर्वतारूप चिड़ द्वारा भगवानकी पहिचान कराई, तथा उनके द्वारा कहा हुआ धर्म ही सत्य है ऐसा कहा है। जगतमें छह प्रकारके स्वतंत्र द्रव्य, नौ तत्त्व और प्रत्येक आत्माका पूर्ण स्वभाव जानकर स्वायसे धर्म बतानेवाली सर्पक्षकी वाणी, और रागादिक पराभितभावसे धर्म भगवाने वाली बानीकी वाणी, इनके बीच विवेक करना चाहिये । स्वामित शुद्धीपयोग कप शुक्लभ्यानके साधनसे भगवान सर्वश हुए है। प्रभा-यह शुक्लध्यान कैसा है? क्या इस शुक्लध्यानका रंग सफेद है? - उत्तर:-अरे भाई, शुक्लध्यान यह तो चैतन्यके मानन्दके भनुभयमें लीनताकी पारा है, यह तो केवलज्ञानप्राप्तिकी श्रेणी है। इसका रंग नहीं होता। सफेद रंग पर वो कपी पुद्गल पर्याय है। यहाँ शुक्लभ्यानमें 'शुक्ल' का अर्थ सफेद रंग नदी परन्तु शुक्लका गर्व है रागकी मलिनता बिना, उज्ज्वल पवित्रा या शुगलम्यान Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भाषातो अकसी आत्माकी अरूपी पर्याय है, इस स्वरूप साधन हाल ही भगवान केवलशान पाया है। ऐसे साधनको पहिचाने तो भगवानकी सची पहिचान होकर इस सर्वज्ञताको साधते साधते वन-निवासी सन्त पमनन्दी मुनिराजने यह शॉल रखा है। वे भी आत्माकी शक्तिमें जो पूर्णानन्द भरा है उसकी प्रतीति करी उसमें लीनता द्वारा' बोलते थे, सिद्ध भगवानके साथ अन्तरमें अनुभव शारापास करते थे और सिद्धप्रभु जैसा अतीन्द्रिय आनन्दका बहुत, अनुभव करते थे । भव्य जीवों पर करुणा करके यह शास्त्र रचा गया है। गृहस्थका धर्मबार कहते है कि मेरे जीव, सबसे प्रथम तू सर्वशदेवको पहिचान । सर्वदेवको पहिचानते ही अपनी सभी जाति पहिचानमें आ जावेगी। __ + महाविदेई क्षेत्रमें वर्तमानमें सर्वक्ष परमात्मा सीमंधरादि भयवन्त विराज रहे हैं, वहाँ लाखों सर्वक्ष भगवन्त हैं, ऐसे अनन्त हो गये हैं और प्रत्येक जीवमें ऐसी अकि है। अहो, आत्माकी पूर्णदशाको प्राप्त सर्वज्ञ परमात्मां इस लोकमें विराज रहे हैं ऐसी बात कानमें पड़ते ही जिसे आत्मामें ऐसा उल्लास आया कि वाह ! पाल्माका ऐसा वैभव ! आत्माकी ऐसी अचिंत्य शक्ति ! ज्ञानस्वभावमें सर्वश होने। की और पूर्ण आनन्दकी शक्ति है; मेरी आत्मामें भी ऐसी ही शक्ति है। इस प्रकार स्वभावकी महिमा जिसे जागृत हुई उसे शरीरकी, रागकी या अल्पशताकी महिमा नष्ट हो जाती है और उसकी परिणति ज्ञानस्वभावकी र मुक जाती है। उसका परिणमन संसारभावाने पीछे हटकर, सिद्धपदकी ओर लग जाता है। जिसकी की पता होती है इसे ही सर्वतकी सभी श्रद्धा हुई है, और सर्वसदेखने मकानों ही उसकी मुक्ति देखी है। ... - सर्वतकी महिमाकी लो बात ही क्या है ! इस, सो परिकामों की और अपूर्व भाव होते हैं और उसमें कितना पुरुषार्थ है उनकी लोगों को खाति सर्वपदेवको पहिचानते ही मुमुक्षुको उनके प्रति अपार भक्ति कासित होती जहाँ पूर्ण ज्ञान-आनन्दको प्राप्त ऐसे सर्व परमात्माके प्रति पहिचानका प्र ति उल्लसित हुई वहाँ अब अन्य किसीकी (पुण्यकी या संयोगकी) महिमा रहती ही नहीं, उसका आदर नहीं रहता, और संसारमें भटकनेका भी सन्देह नहीं रहता। मरे सहा सामस्वभावका आदर किया और जिस मानमें सकी स्थापना की उस कारमें अब भव कैसा? भागमें भव नहीं, भवका संदेह नहीं। अरे जी का से लाको पहिचालकर उबके मस्त गा। इस प्रीजलाका परिप भी कित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] महिमाका गुणगान सुनायें और उसको सुनते हुए मुमुक्षुको भक्तिका उल्लास न होवे ऐसा कैसे बने ? ऐसे सर्पक्षकी पहिचान यह धावकका पहला लक्षण है, मौर यह धर्मका मूल है। जो सर्वशको महीं पहिचानता, जिसे उसके पश्चनोंमें भ्रम है मौर जो विपरीत मार्गको मानता है उसे तो श्रावकपना होता नहीं और शुभभाषका भी ठिकाना नहीं, मिथ्यात्वकी तीव्रताके कारण उसे महापापी अथवा अपात्र कहा है। इसलिये मुमुक्षुको सबसे प्रथम सर्वशदेवकी पहिवान करनी चाहिए। ___ अहो नाथ ! आपने एक समयमें तीनकाल तीनलोकको साक्षात् जाना और विष्यवाणीमें आत्माके सर्वक्षस्वभावको प्रगट किया, आपकी वह वाणी हमने सुनी तो अब आपकी सर्वशतामें अथवा मेरे ज्ञानस्वभाषमें सम्देह नहीं रहा। आत्मामें शक्ति भरी है उसमेंसे सर्पक्षता प्रगट होती है-ऐसी आत्मशक्तिकी जिसे प्रतीति नहीं और बाहरके साधनसे धर्म करना चाहता है यह तो बड़ा अविवेकी है, रष्टिहीन है। ज्ञानस्वभावकी और सर्वशकी श्रद्धा बिना “शास्त्रमें ऐसा लिखा है और उसका अर्थ ऐसा होता है"-ऐसा ज्ञानीके साथ वाद-विवाद करे वह तो आकाशमें उड़ते पक्षियोंको गिननेके लिये आँखों वालेके साथ अंधा होड़ करे-रस प्रकार है। झानस्वभावकी दृष्टि बिना, सर्पज्ञ द्वारा कहं हुए शास्त्रके अर्थको प्रगट करना अशक्य है। अतः पहले ही श्लोफमें सशकी और उसकी वाणीकी पहिचान करने को कहा गया है। सर्वशकी श्रद्धा मोक्षक मण्डपका माणिकस्तंभ है; उस सर्वक्षके अर्थात् मोक्षतरवके गाने गाकर उसकी श्रद्धारूप मांगलिक किया। अब ऐसे सर्पक्षकी पहिचान वाले सम्यग्दृष्टि जीपोंकी विरलता बताकर उसकी महिमा करते हुए दूसरे श्लोकमें कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि अकेला हो तो भी इस लोकमें शोभनीक और प्रशंसनीय है। सण मूलो धम्मो Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ܪ ****** [ २ ]******* *********** धर्मके आराधक सम्यग्दृष्टिकी प्रशंसा [ श्रावकधर्म-प्रकाश *************** जगत में सर्वज्ञका अनुसरण करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव तो बहुत थोड़े हैं, और उनसे विरुद्ध मिथ्यादृष्टि जीव बहुत हैं, ऐसा किसीको लगे तो कहते हैं कि हे भाई! आनन्ददायक ऐसे अमृतपथरूप मोक्षमार्ग में स्थित सम्यग्दृष्टि कदाचित् एक ही हो तो वह अकेला शोभनीक और प्रशंसनीय है, और मोक्षमार्गसे भ्रष्ट ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव बहुतसे होवें तो भी वे शोभनीक नहीं। ऐसा कहकर सम्यक्त्वकी आराधना में उत्साह उत्पन्न करते हैं । * एकोप्यत्र करोति यः स्थितिमतिं प्रीतः शुचौ दशने सः श्लाघ्यः खल्ल दुःखितौप्युदयतो दुष्कर्मणः प्राणिभृत् । अन्यः किं प्रचुरैरपि प्रमुदितेः अत्यन्तदूरीकृत स्फीतानन्दभरप्रदामृतपथः मिथ्यापथप्रस्थितैः ॥ २ ॥ देखिये, इस सम्यग्दर्शनकी विरलता बताकर कहते हैं कि, इस जगतमें अत्यन्त प्रीतिपूर्वक जो जीव पवित्र जैनदर्शनमें स्थिति करता है अर्थात् शुद्ध सम्यक्दर्शनको निश्चलरूपसे आराधता है वह जीव चाहे एक ही हो और कदाचित् पूर्व कर्मोदयसे दुःखी हो तो भी वह प्रशंसनीय है, क्योंकि सम्यग्दर्शन द्वारा परम आनन्ददायक अमृतमार्ग में वह स्थित है । और जो अमृतमय मोक्षमार्गले भ्रष्ट हैं और मिथ्यामार्ग में स्थित हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव बहुत होवें और शुभकर्मसे प्रमुदित ह तो भी उससे क्या प्रयोजन है- यह कोई प्रशंसनीय नहीं । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्म-प्रकाश ] ... भाई ! संसारमें तो कौवे-कुत्ते, कीड़ी-मकोड़े इत्यादि अनन्त जीव हैं, परन्तु जैनदर्शन प्राप्त कर जो जोव पवित्र सम्यग्दर्शन भादि रत्नत्रयकी आराधना करते हैं वे ही जीव शोभनीक हैं । सम्यग्दर्शन बिना पुण्य भी प्रशंसनीय या वांछनीय नहीं है। जगत्में मिथ्यादृष्टि बहुत हों और सम्यग्दृष्टि चाहे थोड़े हों-उससे क्या ? जैसे जगतमें कोयला बहुत हो और हीरा क्वचित् हो, उससे क्या कोयलेकी कीमत बढ़ गई ? नहीं, थोड़ा हो तो भी जगमगाता हीरा शोभता है, उसी प्रकार थोड़े हों तो भी सम्यग्दृष्टि जीव जगतमें शोभते हैं। हीरे हमेशा थोड़े ही होते हैं। जैनधर्मकी अपेक्षा अन्य कुमतके माननेवाले जीव यहाँ बहुत दिखते हैं उससे धर्मात्माको कभी ऐसा सन्देह नहीं होता है कि वे कुमत सच्चे होंगे! वह तो निःशंकरूपसे और परमप्रीतिसे" जनधर्मको अर्थात् सम्यग्दर्शनादि रत्नभयको आराधता है । और ऐसे धर्मी जीघोंसे ही यह जगत शोभित हो रहा है। - सर्वशदेवके कहे हुए पवित्र दर्शनमें जो प्रीतिपूर्वक स्थिति करता है अर्थात् निश्चलतासे शुद्ध सम्यकदर्शनको आराधता है वह सम्यक्दृष्टि जीव अकेला हो तो भी जगतमें प्रशंसनीय है। चाहे कदाचित् पूर्वके कोई दुष्कर्मके उदयसे वह दुखित हो बाहरकी प्रतिकूलतासे भरा हुआ हो, निर्धन हो, काला-कुबड़ा हो, तो भी अन्तरंगकी अनन्त चैतन्यऋद्धिका स्वामी वह धर्मात्मा परम आनन्दरूप अमृतमार्गमें स्थित है। करोड़ों-अरबोंमें वह अकेला हो तो भी शोभता है, प्रशंसा पाता है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें समन्तभद्रस्वामी कहते हैं कि-जो जीव सम्यग्दर्शनसम्पन्न है वह चांडालके देहमें उत्पन्न हुआ हो तो भी गणधरदेव उसे 'देव' कहते हैं। जैसे भस्मसे ढंके हुए अंगारेमें अन्दर प्रकाश-तेज है, उसी प्रकार चांडालकी देहसे ढंका हुआ वह आत्मा अन्दर सम्यग्दर्शनके दिव्य गुणसे प्रकाशित हो रहा है। सम्यग्दर्शनसम्पनमपि मातङ्गदेह । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाकारान्तरौजसं ॥ २८ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव गृहस्थ हो तो भी मोक्षमार्गमें स्थित है। उसे भले ही बाहरकी . प्रतिकूलता कदाचित् हो, परन्तु अन्दरमें तो उसे चैतन्यके आनन्दकी लहर है; इन्के वैभवमें भी जो आनन्द नहीं उस आनन्दका वह अनुभव करता है। पूर्व कर्मका उदय : उसे नहीं डिगा सकता । .षद सम्यक्त्वमें निपल है। कोई जीव तिर्यच.. हो और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुका हो, रहनेका मकान न हो, तो भी वह आत्मगुणोंसे Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश be j शोभता है, और मिथ्यादृष्टि जीव सिंहासन पर बैठा हो तो भी वह नहीं शोभता, प्रशंसा नहीं पाता। बाहरके संयोगसे आत्माकी कुछ शोभा नहीं, आत्माकी शोभा तो अन्दरके सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे है । अरे, छोटासा मेढ़क हो, समवसरणमें बैठा हो, वह भगवानकी वाणी सुनकर अन्दरमें उतरकर सम्यग्दर्शन द्वारा चैतन्यके अपूर्व आनन्दका अनुभव करे, वहां अन्य किस साधनकी जरूरत है ? और बाहरकी प्रतिकूलता कैसे बाधक हो सकती है ? इसलिये कहा है कि चाहे पापकर्मका उदय हो परन्तु हे जीव ! तू सम्यक्त्वकी आराधनामें निश्चल रह । पापकर्मका उदय हो, उससे कोई सम्यक्त्वकी कीमत नहीं चली जाती, उससे तो पापकर्म निर्जरता जाता है; चारों ओरसे पापकर्मके उदयसे घिरा हुआ हो, अकेला हो तो भी जो जीव प्रीतिपूर्वक सम्यक्त्वको धारण करता है वह अत्यन्त आदरणीय है; चाहे जगत् में अन्य उसे न माने, चाहे औंधी दृष्टि वाला उसे साथ न देवे, तो भी अकेला वह मोक्षके मार्गमें आनन्दपूर्वक चला जाता है । शुद्ध आत्मामें मोक्षका अमृतमार्ग उसने देख लिया है; उस मार्ग पर निःशंक चला जाता है । पूर्वकर्मका उदय कहाँ उसका है ? उसकी वर्तमान परिणति उदयकी तरफ कुछ भी नहीं झुकती, इसकी परिणति तो चैतन्यस्वभावकी तरफ झुककर आनन्दमयी बन गई है, उस परिणति से वह अकेला शोभता है । जैसे जंगलमें वनका राजा सिंह अकेला भी शोभता है वैसे ही संसार में चैतन्यका राजा सम्यग्दृष्टि अकेला भी शोभता है । सम्यक्त्वके साथ पुण्य हो तो ही वह जीव शोभा पावे - पुण्यकी ऐसी अपेक्षा सम्यग्दर्शनमें नहीं है । सम्यग्दृष्टि पापके उदयसे भी जुदा है और पुण्यके उदयसे भी जुदा है; दोनोंसे जुदा अपने ज्ञानभावमें सम्यक्त्व से ही वह शोभता है । आनन्दमय अमृतमार्गमें आगे बढ़ता हुआ वह अकेला मोक्षमें चला जाता है । श्रेणिक राजा आज भी नरकमें है परन्तु उसकी आत्मा सम्यक्त्वको प्राप्त कर अभी भी मोक्षमार्गमें गमन कर रही है; सम्यक्त्वके प्रतापसे थोड़े समयमें वह तीनलोकका स्वामी होगा । जिसे सम्यग्दर्शन नहीं, जिसे धर्मकी खबर नहीं, जो अमृतमार्ग से भ्रष्ट है और मिथ्यामार्ग में गमन करता है, वह जीव चाहे कदाचित् पुण्योदेयके ठाठले घिरा हुआ ( छूटा हुआ नहीं परन्तु घिरा हुआ ) हो और लाखों-करोड़ों जीव उसे Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषकधर्म-प्रकाश मानने वाले हों, तो भी वह नहीं शोभता, प्रशंसा नहीं पाता: अरे धर्ममें इसको क्या कीमत ! कोई कहे कि 'पवित्र जैनधर्मके सिवा अन्य कोई विपरीत मार्गको इतने सब जीव मानते हैं इससे उसमें कोई शोभा होगी ! कोई सञ्चा होगा!' तो कहते हैं कि नहीं; इसमें अंशमात्र शोभा नहीं, सत्य नहीं। ऐसे मिथ्यामार्गमें लाखों जीव होवे तो भी वे नहीं शोभते, क्योंकि आनन्दसे भरे हुए अमृतमार्गकी उन्हें खबर नहीं, वे मिथ्यात्वके जहरसे भरे हुए मार्गमें जा रहे हैं। जगतमें किसी कुपंथको लाखों मनुष्य मानें उससे धर्मीको शंका नहीं होती कि उसमें कुछ शोभा होगी ! और सत्यपंथके बहुत थोड़े जीव होवें, आप अकेला होवे तो भी धर्मीको सन्देह नहीं होता कि सत्यमार्ग यह होगा या अन्य होगा!-वह तो निःशंकरूपसे परम प्रोतिपूर्वक सर्पक्षके कहे हुए पवित्र मार्गको साधता है। इस प्रकार सत्पंथमें अथवा मोक्षमार्गमें सम्यग्दृष्टि अकेला भी शोभता है। जगतकी प्रतिकूलताका घेरा उसे सम्यक्त्वसे डिगा नहीं सकता। यहाँ मोक्षमार्गको आनन्दसे परिपूर्ण अमृतमार्ग कहा है, इसी कारण भ्रष्ट मिथ्यामार्गमें स्थित लाखों-करोडों जीव भी शोभते नहीं; और आनन्दपूर्ण भमृतमार्गमें एक-दो-तीन सम्यग्दृष्टि हो तो भी वे जगतमें शोभते हैं ! अतः इस सम्यक्त्वको निश्चलरूपसे धारण कगे। मुनिधर्म हो अथवा धावकधर्म हो, उसमें सम्यग्दर्शन सबसे पहले है। सम्यग्दर्शनके बिना श्रावक अथवा मुनिधर्म होता नहीं। मतः हे जीव ! तुझे धर्म करना हो और धर्मी होना हो तो पहले तू ऐसे सम्यग्दर्शनकी आराधना कर, उसीसे धर्मीपना होगा। सत्का माप संख्याके आधारसे नहीं, और सत्को दुनियाको प्रशंसाकी आवश्यकता नहीं। दुनियामें अधिक जीव मानें और अधिक जीव आदर देखें तो ही सत्को सत् कहा जावे-ऐसा नहीं, थोड़े मानने वाले हों तो भी सन् शोभता है; सत् भकेला अपनेसे शोभता है । अहा, सर्वशदेव द्वारा कहा हुआ आत्मा जिसकी प्रतीतिमें आ गया है, भनुभवमें आ गया है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव पुण्यकी मन्दतासे कदाचित् धनहीन, पुत्रहीन हो, काला-कुबड़ा हो, रोगी हो, स्त्री अथवा तिथंच हो, चांडाल इत्यादि नीच कुलमें जन्मा हो, लोकमें अनादर होता हो, वाहरमें असाताके उदयसे दुःखी हो -सप्रकार चाहे जितनी प्रतिकूलताके बीच खड़ा होते हुए भो, सम्यग्दर्शनके प्रतापसे वह अपने चिदानन्द स्वरूपमें संतुष्टतासे मोक्षमार्गको साध रहा है, इस कारण वह जगतम प्रशंसनीय है; गणधरादि संत उसके सम्यक्त्वकी प्रशंसा करते हैं, उसका Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NONOM [ श्रावकधर्म-प्रकाश, आनन्दकन्द आत्मा कोई निर्धन नहीं, उसका आत्मा रोगी नहीं, उसका आत्मा काला, कुबड़ा अथवा चांडाल नहीं, उसका आत्मा स्त्री नहीं, वह तो चिदानन्दस्वरूप ही, अपनेको अनुभवता है, अन्दरमें अनन्त गुणोंकी निर्मलताका खजाना उसके पास है। श्री दौलतरामजी कवि सम्यग्दृष्टिकी अन्तरंगदशाका वर्णन करते हुए कहते हैं कि " चिन्मूरत दृगधारीकी मोहे रीति लगत है अटापटी, बाहर नारकीकृत दुख भोगत अन्तर सुखरस गटागटी।" नारकीको बाह्यमें क्या कोई अनुकूलता है ? नहीं है। तो भी वह सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है; छोटा मेंढ़क भी सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है; वह प्रशंसनीय है । दाई: द्वीपमें समवसरण आदिमें बहुतसे तिर्यंच सम्यग्दृष्टि है, इसके बाद ढाई द्वीपके वाहर तो असंख्यात तिर्यंच आत्माके शानसहित, चौथे-पाँचवें गुणस्थानमें विराज रहे हैं, सिंह-वाघ. और मर्प जैसे प्राणी भी सम्यग्दर्शन प्राप्त करते हैं, वे जीव प्रशंसनीय हैं। अन्दरसे चैतन्यका पाताल फोड़कर सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ है-उसकी महिमा: की क्या बात ! बाहरके संयोगसे देखे उसे यह महिमा नहीं दिखाई देती है, परन्तु अन्दर आत्मा की दशा क्या है, उसे पहिचाने तो उसकी महिमा | का ज्ञान होवे । सम्यग्दृष्टिने आत्माके आनन्द को देखा है, उसका स्वाद चखा है, मेदशान हुआ है, वह पास्तवमें आदरणीय है, पूज्य है। बड़े राजा-महाराजाको प्रशंसनीय नहीं कहा, स्वर्गके देवको प्रशंसनीय नहीं कहा, परन्तु सम्यग्दृष्टिको प्रशंसनीय कहा है, फिर भले वह तिर्यच पर्यायमें हो, नरकमें हो, देवमें हो कि मनुष्यमें हो, वह सर्वत्र प्रशंसनीय है। जो सम्यग्दर्शनधर्मका साधन कर रहे हैं वे ही धर्ममें अनुमोदनीय हैं। सम्यग्दर्शन बिना बाय, त्याग-व्रत या शास्त्रज्ञान आदि बहुत हो तो भी आचार्य देव कहते हैं कि यह हमको, प्रशंसनीय नहीं लगता, क्योंकि यह कोई आत्माके हितका कारण नहीं बनता है। हितका मूलकारण तो सम्यग्दर्शन है। करोड़ों-अरबों जीवोंमें एक ही सम्पष्टि हो तो भी वह उत्तम. है-प्रशंसनीय है,. और विपरीत , मार्गमें बहुत हों तो, भी वे.. SMARAada Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रावधर्म-प्रकाश प्रशंसनीय नहीं। ऐसा समझकर हे जीव ! तू सम्यग्दर्शनकी आराधना कर, यह तात्पर्य है। शरीर क्या आत्माका है? जो अपना नहीं यह चाहे जैसा हो उसके साथ मात्माका क्या सम्बन्ध है ?--सलिये धर्मीका महत्त्व संयोगसे नहीं, धर्मीका महत्व निज चिदानन्दस्वभावकी अनुभूतिसे ही है। NKS i. -- MAA - - हजारों मेड़ोंके समूहकी अपेक्षा जंगलमें अकेला सिंह भी शोभता है, उसी. प्रकार जगतके लाखों जीवोंमें सम्यग्दृष्टि अकेला भी (गृहस्थपनेमें हो तो भी) शोभता है । मुनि सम्यग्दर्शन बिना शोभता नहीं और सम्यग्दृष्टि मुनिपना बिना भी शोभता है, वह मोक्षका साधक है, वह जिनेश्वरदेवका पुत्र है; लाख प्रतिकूलताके बीचमें भी वह जिनशासनमें शोभता है। मिथ्यादृष्टि करोड़ों और सम्यकदृष्टि प्रक-दो ही हों तो भी सम्यग्दृष्टि ही शोभते हैं। बहुत चींटियोंका समूह एकत्रित हो जाय उससे कोई उनकी कीमत बढ़ नहीं जाती, वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव बहुत इकडे हो जावें उससे वे प्रशंसा प्राप्त नहीं करते । सम्यग्दर्शन बिना पुण्यके बहुत संयोग प्राप्त हो तो भी आत्मा शोभता नहीं; और नरकमें जहाँ हजारों-लाखों या असंख्यात वर्षों पर्यंत अनाजका कण या पानीकी बंद नहीं मिलती वहाँ भी आनन्दकन्द आत्माका भान कर सम्यग्दर्शनसे आन्मा शोभित हो उठता है ।* प्रतिकूलता कोई दोष नहीं और अनुकूलता कोई गुण नहीं है । गुण-दोषोंका सम्बन्ध बाहरके * जिनेन्द्र भगवानके दर्शन करते हुए हम नीचेका श्लोक बोलते हैं, उसमें भी यह .. भावना गॅथी हुई है जिनधर्मधिनिर्मुक्तो मा भवत् चक्रवर्त्यपि । स्थात् चेटोपि दरिद्रोपि जिनधर्मानुवासितः ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] [ श्रावक धर्म-प्रकाश संयोगके साथ नहीं; आत्माके स्वभावकी और सर्वशदेवकी श्रद्धा सच्ची है या खोटी उसके ऊपर गुण-दोषका आधार है । धर्मी जीव स्वस्वभावके अनुभवसे, भद्धाले अत्यन्त संतुष्टरूप रहते हैं, जगतके किसी संयोगकी वांछा उन्हें नहीं । सम्यग्दर्शन. रहित जीव हजारों शिष्योंसे पूजित हो तो भी वह प्रशंसनीय नहीं, और विरले सम्यग्दृष्टि धर्मात्माको माननेवाले कोई न हों तो भी वह प्रशंसनीय है, क्योंकि वह मोक्षका पथिक है, वह सर्वज्ञका ' लघुनन्दन ' है: मुनि तो सर्वज्ञका ज्येष्ठ पुत्र है और सम्यग्दृष्टि लघुनन्दन अर्थात् छोटा पुत्र है । भले वह छोटा पुत्र हो परन्तु है तो सर्वज्ञका उत्तराधिकारी, वह अल्पकालमें तीनलोकका नाथ सर्वश होगा । 99 रागादि जैसी प्रतिकूलतामें भी " मैं स्वयंसिद्ध, चिदानन्दस्वभावी परमात्मा है। ऐसी निजात्माकी अन्तरप्रतीति धर्मीसे छूटती नहीं । आत्माके स्वभावकी ऐसी प्रतीति सम्यग्दर्शन है, और उसमें सर्वशदेवकी वाणी निमित्तरूप है; उसमें जिसे संदेह है उस जीवको धर्म नहीं होता । सम्यग्दृष्टि जिनवचनमें और जिनवाणीमें दर्शाये आत्मस्वभावकी प्रतीति करके सम्यग्दर्शनमें निश्चलरूपसे स्थिति करता है। ऐसे जीव जगतमें तीनोंकालमें विरल ही होते हैं । वे भले ही थोड़े हों तो भी वे प्रशंसनीय हैं । जगतके सामान्य जीव भले उन्हें नहीं पहिचानें परन्तु सर्वज्ञ भगवन्तों, सन्तों और ज्ञानियोंके द्वारा वे प्रशंसा पात्र हैं, भगवान और सन्तोंने उन्हें मोक्षमार्गमें स्वीकार किया है । जगत् में इससे बड़ी अन्य कोई प्रशंसा है ? बाहरमें चाहे जैसा प्रतिकूल प्रसंग हो तो भी सम्यग्दृष्टि-धर्मात्मा पवित्र दर्शनसे चलायमान नहीं होता । प्रश्नः - चारों ओर प्रतिकुलतासे घिरे हुए ऐसे दुखियाको सम्यग्दर्शन प्राप्तिका अवकाश कहांसे मिलेगा ? उत्तरः- भाई ! सम्यग्दर्शनमें क्या कोई संयोगकी आवश्यकता है ? प्रतिकूल संयोग कोई दुःखका कारण नहीं और अनुकूल संयोग कोई सम्यक्त्वका कारण नहीं; आत्मस्वरूपमें भ्रांति ही दुःखका कारण है और आत्मस्वरूपकी निर्भ्रात प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन सुखका कारण है । यह सम्यग्दर्शन कोई संयोगोंके आश्रयसे नहीं, परन्तु अपने सहज स्वभावके ही आश्रयसे है । अरे ! नरकमें तो कितनी असह्य प्रतिकूलता है । वहाँ खानेको अन्न या पीनेको पानी नहीं मिलता, सरदी गरमीका पार नहीं, शरीरमें पीड़ाका पार नहीं, कुछ भी सुविधा नहीं, तो भी वहां पर ( सातवें नरकमें भी ) असंख्यात जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुके हैं। उन्होंने किस आधारसे पाया ? संयोगका लक्ष्य छोड़कर परिणतिको अंतर में लगाकर अपने आत्माके Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश [१७ मायसे सम्यग्दर्शन प्राप्त किया। नरकमें भी यह सम्यग्दर्शन होता है तो वहाँ क्यों न होवे ? यहाँ कोई नरक जितनी तो प्रतिकूलता नहीं है? माप अपनी रुचि पलटाकर आत्माकी दृष्टि करे तो संयोग कोई विघ्न करते नहीं। अपनी रुचि न पलटावे और संयोगका दोष बतावे यह तो मिथ्याबुद्धि है। यहाँ तो, पेसा होय अथवा पुण्य होय तो जीव प्रशंसनीय है ऐसा नहीं कहा है। परन्तु जिसके पास धर्म है वही जीव प्रशंसनीय है ऐसा कहा है । पैसा अथवा पुण्य ये क्या आत्माके स्वभावकी चीज है? जो अपने स्वभावकी चीज न हो उससे आत्माकी शोभा कैसे होवे ? हे जीव ! तेरी शोभा तो तेरे निर्मल भावोंसे है । अन्य तेरी शोभा नहीं। अन्तरस्वभावकी प्रतीति करके उसमें तू स्थित रह, इतनी ही तेरी मुक्तिकी देर है। __अनुकूल-प्रतिकूल संयोगके आधारसे धर्म-अधर्मका कोई माप नहीं। धर्म होय उसे प्रतिकूलता आवे ही नहीं-ऐसा नहीं । हाँ इतना सत्य है कि प्रतिकूलतामें धर्मी जीव अपने धर्मको नहीं छोड़ता। कोई कहे कि धर्मीके पुत्र इत्यादि मरते ही नहीं, धर्माके रोग होता ही नहीं, धर्मीक जहाज डूबते ही नहीं, तो इसकी बात सच्ची ही नहीं। इसको धर्मके स्वरूपकी खबर नहीं। धर्मीको भी पूर्व पापया उदय होय तो ऐसा भी हो सकता है। कोई समय धर्मीके पुत्रादिकी आयु थोड़ी भी होवे और अज्ञानीके पुत्रादिकी आयु विशेष होय । परन्तु उससे क्या ? ये नो पूर्वके बँधे हुये शुभ-अशुभ कर्मके खेल हैं। इसके साथ धर्म-अधर्मका सम्बन्ध नहीं । धर्मीकी शोभा तो अपनी आत्मासे ही है। संयोगसे इसकी कोई शोभा नहीं । मिथ्याटिको संयोग कोई समय अनुकूल होवे, परन्तु अरे ! मिथ्यामार्गका सेवन यह महा दुःखका कारण है-इसकी प्रशंसा क्या ? कुदृष्टिकी-कुमार्गकी प्रशंसा धर्मी जीव करता नहीं। सम्यक्प्रतीति द्वारा निज स्वभावसे जो जीव भरा हुआ है और पापके उदयके कारण संयोगसे रहित है ( अर्थात् अनुकूल संयोग उसे नहीं) तो भी उसका जीवन प्रशंसनीय है-सुखी है। मैं मेरे सुखस्वभावसे भरा हुआ हूँ और संयोगसे खाली हूँ ऐसो अनुभूति धर्मीको सदा ही वर्तती है, वह सत्यका सत्कार करने वाला है, आनन्ददायक अमृतमार्ग पर चलने वाला है। और जो जीव स्वभावसे तो खाली है-पराश्रयकी श्रद्धा करता है अर्थात् ज्ञानानन्दसे भरे हुए निज स्वभावको जो देखता नहीं और विपरीत दृष्टिसे रागको ही धर्म मानता है, संयोगसे और पुण्यसे अपनेको भरा हुआ मानता है, वह जीव बाहरके संयोगसे सुखी जैसा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [ श्रावकधर्म-प्रकाश दिखता हो तो भी वह वास्तवमें महादुःखी है, संसारके ही मार्गमें है। बाहरका संयोग कोई वर्तमान धर्मका फल नहीं । धर्मी जीव बाहर से चाहे खाली हो परन्तु अन्तरमें भरे हुए स्वभावकी श्रद्धा, तद्रूप ज्ञान और बलसे वह केवलज्ञानी होगा । और जो जीव संयोगसे भरा हुआ परन्तु स्वभाव - ज्ञानसे शून्य (खाली) है वह सम्यग्दर्शनसे रहित है, वह उल्टी दृष्टिसे संसार में कष्ट उठावेगा; आत्माको स्वभाव से भरा हुआ और संयोगसे खाली माना वह तो उसके फलमें संयोग रहित ऐसे सिद्धपदको प्राप्त करेगा । संयोगले आत्माकी महत्ता नहीं । श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं किलक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वभ्युं ते तो कहो, शुं कुटुम्बके परिवारथी वधवापणुं अ नय ग्रहो ? वधवापणुं संसारनुं नर देहने हारी जवो, नो विचार नहीं अहो हो ! ओक पळ तमने हवो । अरे, संयोगसे आत्माकी महत्ता मानी यह तो स्वभावको भूल कर इस अनमोल मनुष्यभवको हारने जैसा है, अतः हे भाई ! इस मनुष्यभवको प्राप्त कर आत्माका भान कैसे हो और सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होकर भवभ्रमण कैसे मिटे इसका पुरुषार्थ कर । जगतमें असत् माननेवाले बहुत होवें — उससे क्या और सत्यधर्म समझनेवाले थोड़े ही हों-उससे क्या ? – उससे कोई असत् की कीमत बढ़ जावे और सत्की कीमत घट जावे - ऐसा नहीं । कीड़ीके दल बहुतसे हों और मनुष्य थोड़े हों-उससे कोई कीड़ी की कीमत बढ़ नहीं जाती । जगतमें सिद्ध सदा ही थोड़े और संसारी जीव बहुत हैं उससे सिद्धकी अपेक्षा संसारीकी कीमत क्या बढ़ गई। जैसे अफीमका चाहे बड़ा ढेला होवे तो भी वह कड़वा है, और शक्करकी छोटीसी कणिका हो तो भी वह मीठी है, उसी प्रकार मिथ्यामार्ग में करोड़ों जीव हों तो भी वह मार्ग जहर जैसा है, और सम्यकमार्गमें चाहे थोड़े जीव हों तो भी वह मार्ग अमृत जैसा है । जैसे थाली चाहे सोनेकी हो परन्तु यदि उसमें जहर भरा हो तो वह शोभता नहीं और खानेवालेको मारता है, उसी प्रकार कोई जीव चाहे पुण्यके ठाठके मध्यमें पड़ा हो परन्तु यदि वह मिथ्यात्वरूपी जहर सहित है तो वह शोभता नहीं, वह संसारमें भावमरणसे मर रहा है । परन्तु जिस प्रकार थाली चाहे लोहेकी हो किन्तु जो उसमें अमृत भरा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ [ श्रावकधर्म-प्रकाश ] हो तो वह शोभा पाता है और खानेवालेको तृप्ति देता है, उसी प्रकार चाहे प्रतिपरन्तु जो जीव सम्यग्दर्शनरूपी अमृतसे भरा हुआ है परमसुखको अनुभवता है और अमृत ऐसे सिद्धपदको कूलताके समूहमें पड़ा होवे वह शोभता है, वह आत्माके प्राप्त करता है । 6 परमात्मप्रकाश' पृष्ठ २०० में कहा है कि " वरं नरकवासोऽपि सम्यक्त्वेन हि संयुतः । न तु सम्यक्त्वहीनस्य निवासो दिवि राजते ॥ " सम्यक्त्व सहित जीवका तो नरकवास भी भला है और सम्यक्त्व रहित जीव देवलोक में निवास भी शोभता नहीं । सम्यग्दर्शन बिना देवलोकके देव भी दुःखी ही हैं। शास्त्रमें तो उन्हें पापी कहा है- सम्यक्त्वरहित जीवाः पुण्यसहिता मपि पापजीवा भण्यन्ते । " ऐसा जानकर श्रावकको सबसे पहले सम्यक्त्वकी आराधना करनी चाहिये । पहली गाथामें, भगवान सर्वशदेवकी और उनकी वाणीकी पहिचान तथा श्रद्धा होने पर ही श्रावकधर्म होता है-ऐसा बताया और दूसरी गाथामें ऐसी श्रद्धा करने वाले सम्यग्दृष्टि जीव थोड़े होवें तो भी वे प्रशंसनीय हैं- ऐसा बताकर उसकी आराधनाका उपदेश दिया । अब तीसरी गाथामें श्री पद्यनंदी स्वामी उस सम्यग्दर्शन को मोक्षका बीज कहकर उसकी प्राप्तिके लिये परम उद्यम करनेको कहते हैं । 5 धर्म सुशर्ण जाणी, आराध ! मभाव आणी; अनाथ अकांत सनाथ थाशे, ∞∞盤盤888 सर्वज्ञका आराध, अना विना कोई न बांध सहाशे । 防腐防 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ আৰহ্মঘম-সন্ধাহা [३] मोक्षका बीज सम्यक्त्व संसारका बीज मिथ्यात्व । (सम्यग्दर्शन हेतु परम प्रयत्नका उपदेश) ဇေ * 8 मोक्षका बीज सम्यग्दर्शन है और भवका बीज मिथ्याॐ दर्शन है; अतः जो मोक्षका अभिलाषी हो ऐसा मुमुक्षु जीव मोक्ष- G के बीजभूत सम्यग्दर्शनको अत्यंत प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करे। अनंत कालसे इस भवभ्रमणमें भटकते हुए कोई विरला माणी स्व. 0 प्रयत्न द्वारा उस सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है। उसकी प्राप्ति- 0 8 के परम प्रयत्न हेतु ज्ञानीका उपदेश है। HSSSSSSsss Ssssssssso बीनं मोक्षतरोदृशं भवतरोमिथ्यात्वमाहुर्जिनाः माप्तायां दृशि तन्मुमुक्षुभिरलं यत्नो विधेयो बुधैः । संसारे बहुयोनिजालनटिले भ्राम्यन् कुकर्मावृतः । क्व पाणी लभते महन्यपि गते काले हि तां तामिह ॥ ३ ॥ मोक्षरूपो वृक्षका बीज सम्यग्दर्शन है, और संसाररूपी वृक्षका बोज मिथ्यात्व :-ऐसा भगवान जिनेन्द्र देवने कहा है। इसलिये मुमुक्षुको सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हेतु अत्यन्त प्रयत्न कर्तव्य है। अरे! संसारमें अनंत भवमें सम्यग्दर्शन बिना जीव कुकर्मोसे भटक रहा है, दीर्घकाल व्यतीत होने पर भी प्राणी सम्यग्दर्शनको क्या पा सका है ?-सम्यग्दर्शनको प्राप्ति महा दुर्लभ है अतः हे जीव ! तू सम्यग्दर्शनकी माप्तिके लिये परम उद्यम कर, और उसको पाकर अन्यन्त यत्नसे उसकी रक्षा कर। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषकधर्म-प्रकाश । २१ कुन्दकुन्द स्वामीने अष्टप्राभृतमें शुरूमें ही कहा है कि- "दसणमूलो धम्मो उबाटो जिणवरेहिं सिस्साणं" अर्थात् जिनवरदेवने " दर्शन जिसका मूल है ऐसा धर्म" शिष्योंको उपदेशा है। मूल बिना जैसे वृक्ष नहीं: तैसे सम्यग्दर्शन बिना धर्म नहीं । बौदह गुणस्थानोंमें, सम्यग्दर्शन चौथे गुणस्थानमें होता है और व्रत पांचवें गुणस्थानमें होते हैं, मुनिदशा छठे-सातवें गुणस्थानमें होती है । सम्यग्दर्शन बिना मात्र शुभरागसे अपनेको पाँचषां-छठा गुणस्थान अथवा धर्म माने या मोक्षमार्ग माम ले तो उसमें मिथ्यात्वका पोषण होता है; मोक्षमार्गके क्रमकी उसे खबर नहीं । मोक्षमार्गमें पहले सम्यग्दर्शन है, उसके बिना धर्मका प्रारम्भ नहीं होता, उसके बिना भाषकपना या मनिपना सधा होता नहीं । अरे जीव ! धर्मका स्वरूप क्या है और मोक्षमार्गका क्रम क्या है उसे पहले जान । सम्यग्दर्शनके बिना पुण्य तूने अनन्तबार किया तो भी तू संसारमें ही भटका और तूने दुःख ही भोगे । अतः समझ ले कि पुण्य कोई मोक्षका साधन नहीं है। मोक्षका बीज तो सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन कैसे होता है ? रागादि अशुद्धता विना आत्माका शुख भूतार्थ स्वभाव क्या है उसकी अनुभूतिसे ही आत्मा सम्यग्दृष्टि होता है। जिस समयसे सम्यग्दृष्टि होता है उसी समयसे ही मोक्षमार्गी होता है। पश्चात् इसी भूतार्थ स्वभावके अवलम्बनमें आगे बढ़ते-बढ़ते शुद्धि अनुसार पांचवां-सातवाँ इत्यादि गुणस्थान प्रगट होते हैं। चौथेको अपेक्षा पांचवें गुणस्थानमें स्वभावका विशेष अवलम्बन है, यहाँ अप्रत्याख्यान सम्बन्धी चारों कषायें भी छूट गई हैं और वीतरागी आनन्द बढ़ गया है। सर्वार्थसिद्धिके देवकी अपेक्षा पंचम गुणस्थानवर्ती मेदकको आत्माका मानन्द अधिक है, परन्तु यह दशा सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होती है। अतः सम्यग्दर्शनको प्राप्तिका परम प्रयत्न कर्तव्य है। अरे, चौरासीके अवतारमें सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति बहुत ही दुर्लभ है। सम्यक्त्वी के रागादि परिणाम आते हुए भी उसकी अन्तरको दृष्टिमेंसे शुद्ध स्वभाव कभी भी खिसकता नहीं। यहाँ श्रापकके व्रतरूप शुभभाव करनेका उपदेश दिया जायेगा, तो भी धर्मीकी रष्टिमें रागकी मुख्यता नहीं परन्तु मुख्यता शुद्ध स्वभावकी ही है। रश्मेिं जो स्वभावकी मुख्यता छूटकर रागको मुख्यता हो जावे तो सम्यग्दर्शन भी न रहे। शुद्धस्वभावमें मोक्षदशाको विकसित कर देनेकी ताकात है। जिसने इस शुख स्वभावको प्रतीतिमें लेकर सम्यग्दर्शन प्रगट किया उसने मोक्षका वृक्ष आत्मामें बो दिया, और चौरासीके अवतारका बीज उसने जला दिया। अतः हे मुमुक्षु! तू ऐसे सम्यक्त्वका परम उद्यम कर। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ [ श्रावकधर्म-प्रकाश जहाँ सम्यग्दर्शन नहीं वहाँ धर्म नहीं। जिसे भूतार्थ स्वभावका मान नहीं और रागमें एकत्वबुद्धि है उसे धर्म कैसा? वह शुभ रागसे व्रतादि करे तो भी वह बालक्त है। और उस बालवतके रागको धर्म माने तो "बकरी निकालते ऊँट प्रवेश कर गया" ऐसा होता है इसलिए थोड़ा अशुभको छोड़कर शुभको धर्म मानने गया यहाँ मिथ्यात्वका मोटा अशुभरूपी ऊँट ही प्रवेश कर गया । अतः श्रावकको सबसे पहले सर्वक्षके वचनानुसार यथार्थ वस्तुस्वरूप जानकर, परम उद्यम पूर्वक सम्यक्त्व प्रगट करना चाहिये । जीवकी शोभा सम्यक्त्व ही है। संयोग चाहे जितने प्रतिकूल हों परन्तु अन्तरंगमें चिदानन्द स्वभावकी प्रतीति करके श्रद्धामें पूर्ण आत्माकी अनुकूलता प्रगट की है तो वह धन्य है। आत्माके स्वभाषसे विरुद्ध मान्यतारूप उल्टी श्रद्धा बड़ा अवगुण है। बाहरकी प्रतिकूलता होना अवगुण नहीं है। अन्तरमें चिदानन्द स्वभावकी प्रतीति करके मोक्षमार्ग प्रगट करना महान सद्गुण है। बाहरमें अनुकूलताका ठाठ होना कोई गुण नहीं है। आत्माकी धर्मसम्पदा किससे प्रगट होती है उसकी जिसे खबर नहीं वह ही महान दरिद्री है और भव-भवमें भटककर दुखको भोगता है। जिस धर्मात्माको आत्माकी स्वभाव सम्पदाका भान हुआ है उनके पास तो इतना बड़ा चैतन्य खजाना भरा है कि उसमेंसे केवलज्ञान और सिद्धपद प्रकटेगा। वर्तमानमें पुण्यका ठाट भले न हो तो भी वह जीव महान प्रशंसनीय है। अहो ! दरिद्र-समकिती भी केवलीका अनुगामी है। यह सर्वेक्षके मार्ग पर चलनेवाला है। उसने आत्मामें मोक्षके बीज बो दिये हैं। अल्पकालमें, उसमेंसे मोक्षका झाड़ फैलेगा, पुण्यमेंसे तो संयोग फलेगा और सम्यग्दर्शनमेंसे मोक्षका मीठा फल पकेगा। देखिये ! इस सम्यग्दर्शनकी महिमा ! समकिती अर्थात् परमात्माका पुत्र । जैन कुलमें जन्म हुआ, कोई इससे मान ले कि हम श्रावक है, परन्तु भाई ! भाषक अर्थात् परमात्माका पुत्र; "परमात्माका पुत्र" कैसे होवे उसकी यह रीति कही जाती है भेदविज्ञान अग्यो जिन्हके घट, शीतल विच भयो जिम चन्दन; केलि. · करें शिवमारगमें जगमांहीं जिनेश्वरके लघुनन्दन । जहाँ मेदज्ञान और सम्यग्दर्शन प्रगट किया वहाँ अन्तरमें अपूर्ण शांतिको अनुभवता हुमा जीव मोक्षके मार्गमें केलि करता है, और जगतमें वह जिनेश्वरदेवान Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ #२१ धाक्कधर्म-प्रकाश ] लघुनन्दन है ! मुनि बड़ा पुत्र है और समकिती छोटा पुत्र है। आदिपुराणमें भी जिनसेनस्वामीने (सर्ग २ श्लोक ५४३) गौतम गणधरको “ सर्वशपुत्र" कहा है, उसी प्रकार यहाँ समकितीको जिनेश्वरका लघुनन्दन अर्थात् भगवानका छोटा पुत्र कहा है। अहा, जिसे जब सम्यग्दर्शन हुआ वहीं वह केवली भगवानका पुत्र हुमा, भगवानका उत्तराधिकारी हुआ, सर्वक्षपदका साधक हुआ। किसीको पुण्ययोगले नापकी विशाल सम्पत्तिका उत्तराधिकार मिले परन्तु वह तो क्षणमें नष्ट हो जाती है, और यह समकिती तो केवलज्ञानी-सर्वश पिताकी अक्षयनिधिका उत्तराधिकारी हुआ, वह निधि कभी समाप्त नहीं होती, साविभनन्त रहती है। सम्यग्दर्शनसे ऐसी दशा प्रगट करे वह श्रावक कहलाता है। अतः श्रावकधर्मके उपासकको निरन्तर प्रयत्नपूर्वक सम्यग्दर्शन धारण करना चाहिए । जिस प्रकार आम्रका बीज आमको गुठली होती है, कोई कड़वी निम्बोलीके बीजमें से मधुर आम नहीं पकते, उसी प्रकार मोक्षरूपी जो मीठा आम उसका बीज तो सम्यग्दर्शन है, पुण्यादि विकार मोक्षका बीज नहीं है। भाई, तेरे मोसका बीज तेरे स्वभावको जातका होबे परन्तु उससे विरुद्ध न होवे । मोक्ष अर्थात् पूर्ण आननरूप वीतरागदशा, तो उसका बीज राग कैसे होवे ? राग मिश्रित विचारोंसे भी पार होकर निर्विकल्प आनन्दके अनुभव सहित आत्माकी प्रतीति करना सम्यग्दर्शन है, और वही मोक्षका मूल है। मोक्षका बीज सम्यग्दर्शन, और उस सम्यग्दर्शनका बोज आत्माका भूवार्य स्वभाव-"भूयस्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो" भृतार्थ स्वभावका आश्रय करने पाला जीव सम्यग्दृष्टि है। मोक्षका मूल सम्यग्दर्शन है, ऐसा कहा परन्तु यदि कोई उस सम्यग्दर्शनका स्वरूप अन्य प्रकार माने तो उसे भी मार्गकी खबर नहीं। सम्यग्दर्शन कोई अन्यके आश्रय नहीं, आत्माके स्वभावके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन है। ... प्रश्नः-मोक्षमार्ग तो सम्यग्दर्शन-बान-चारित्ररूप कहा है ना? ... उत्तरः-यह सत्य ही है, पर उसमें बीजरूप सम्यावर्शन है। सम्यग्दर्शन बिना शान अथवा चारित्र होता नहीं। पहले सम्यग्दर्शन होता है . पीछे ही.कानचारित्र पूर्ण होते मोक्ष होता है। पुरुषार्थसिद्धयुपायमें अमृतचन्द्रस्वामी भी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भावकधर्म-प्रकाश एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यं । तस्यापि मोक्षमार्गों भवति निषेव्यो यथाशक्ति ॥ २० ॥ तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ॥ २१ ॥ सम्यकदर्शन-शान-चारित्र इन तीनस्वरूप मोक्षमार्ग है, उसे गृहस्थोंको भी सदा यथाशक्ति सेवन करना चाहिये। उन तीनमें पहले सम्यक्त्व है। वह पूर्ण पुरुषार्थ द्वारा अंगीकार करने योग्य है। क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र होते हैं। सम्यकदर्शन बिना ज्ञान या चारित्र मोक्षके साधक नहीं होते । और सम्यक्त्व सहित यथाशक्ति मोक्षमार्गका सेवन गृहस्थको भी होता है-ऐसा यहां बताया। सम्यकदर्शनके पश्चात् जो राग-द्वेष हैं वे अत्यन्त अल्प है और उनमें धर्मी को एकत्यबुद्धि नहीं है। मिथ्यादृष्टि को राग-द्वेषमें एकत्वबुद्धि है अर्थात् उसको अनंतानुबन्धी राग-द्वेष अनन्त संमारका कारण है। इस प्रकार मिथ्यात्व संसारका बीज है। और सम्यक्दर्शन होने पर उसका छेद होकर मोक्षका बीजारोपण होता है। सम्यकदर्शनरूपी 'बीज' उत्पन्न हुआ वह बढ़कर केवलज्ञानरूपी पूर्णिमा होकर छोड़ेगा। सम्यक्त्व कहता है कि "मुझे ग्रहण करनेसे ग्रहण करनेवालेकी इच्छा न हो तो भी मुझे उसे जबरन मोक्ष ले जाना पड़ता है। इसलिये मुझे ग्रहण करनेके पहले यह विचार कर लो कि मोक्ष जानेकी इच्छा पलट दूं तो भी वह काम आने की नहीं है। मुझे ग्रहण करनेके पश्चात् तो मुझे उसे मोक्ष पहुँचाना ही चाहिये यह मेरी प्रतिज्ञा है।"-ऐसा कहकर श्रीमद राजचन्द्रजीने सम्यक्त्वकी महिमा बताई है और उसे मोक्षका मूल कहा है। सम्यक्त्व अंगीकार करे और मोक्ष न हो ऐसा बनता नहीं। और सम्यक्त्व बिना मोक्ष हो जाय ऐसा भी बनता नहीं। इसलिये परम यत्नसे सम्यकदर्शन प्रगट करनेका उपदेश है। अहा ! सम्यकदर्शन होते ही चेतन्यके भंडारकी तिजोरी खुल गई। अब उसमेंसे हान-मानन्दका माल जितना चाहिए उतना बाहर निकाल। पहले मिथ्यात्व के तालेमें जो खजाना बंद था। अब सम्यकदर्शनरूपी चाबीसे खोलते ही बैतन्यका अक्षय भंडार प्रगट हुआ यह सादिअनन्त काल पर्यन्त इसमेंसे कैषलवान और पूर्णानन्द लिया ही करे...लिया ही करे...तो भी वह भंडार समाप्त हो ऐसा नहीं। उसी प्रकार वह कम हो जाय ऐसा भी नहीं। अहा ! सर्वश प्रभुने और वीतरागी सन्तों ऐसा वेतन्यभंडार खोलकर बताया। तो इसे कौन न लंबे! कौन अनुभव न करे! Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म - प्रकाश ] [ २५ सम्यकूदर्शन बिना, चाहे जितना करे तो भी चैतन्यका भंडार नहीं खुलता। मोक्षमार्ग प्रगट नहीं होता, श्रावकपना भी होता नहीं। जो जीव सच्चे देव-गुरु-धर्मका विरोध करता है और कुदेव, कुगुरु, कुधर्मका आदर करता है उसे तो व्यवहारसे भी श्रावकपना नहीं होता वह तो मिथ्यात्वके तीव्र पापमें डूबा हुआ है। पेले जीवको तो पूर्वका पुण्य हो वह भी घट जाता है। ऐसे जीवको तो महा पापी कहकर पहली ही गाथामें निषेध किया है। उसमें तो धर्मको भी योग्यता नहीं । यहाँ तो सच्चा श्रावक-धर्मात्मा होनेके लिये सबसे पहले सर्वदेवको पहचानपूर्वक सम्यक्दर्शनको शुद्ध करनेका उपदेश है । कोई कहे कि " हमने दिगम्बर धर्मके संप्रदाय में जन्म धारण किया है इसलिये सम्यक्दर्शन तो हमको होता ही है। " तो यह बात सच्चो नहीं। सर्वशदेवने जैसा कहा वैसा अपने चैतन्यस्वभावको पहचाने बिना कभी सम्यकदर्शन नहीं होता । दिगम्बर धर्म तो सच्चा ही है । परन्तु तू स्वयं समझे तब ना ! समझे बिना इस सत्यका तुझे क्या लाभ ? तेरे भगवान और गुरु तो सच्चे हैं परन्तु उनका स्वरूप पहचाने तभी तू सच्चा होगा। पहचान बिना तुझे क्या लाभ ? ( समझे बिन उपकार क्या ? ) धर्मकी भूमिका सम्यग्दर्शन है, और मिथ्यात्व बड़ा पाप है । मिथ्यादृष्टि मन्द कषाय करके उसे मोक्षका कारण माने वहाँ उसे अल्प पुण्यके साथ मिथ्यात्वका बड़ा पाप बँधता है। इसलिये मिथ्यात्वको भगवानने भवका बीज कहा है। मिध्यादृष्टि जीव पुण्य करे तो भी वह उसे मोक्षका कारण नहीं होता, समकितीको पुण्य-पाप होते हुवे भी वे उसे संसारका बीज नहीं हैं। समकितीको सम्यक्तमेंसे मोक्षकी फसल आवेगी: और मिथ्यादृष्टिको मिथ्यात्वमेंसे संसारका फल आवेगा इसलिये मोक्षाभिलाषी जीवोंको सम्यक्रदर्शनकी प्राप्तिका और उसकी रक्षाका परम उद्यम करना चाहिए | जो सम्यग्दर्शनका उद्यम नहीं करते और पुण्यको मोक्षका साधन समझकर उसकी रुचिमें अटक जाते हैं उसे कहते हैं कि भरे मूढ़ ! तुझे भगवानकी भक्ति करना नहीं आती, भगवान तेरी भक्तिको स्वीकार नहीं करते क्योंकि, तेरे ज्ञानमें तूने भगवानको स्वीकार नहीं किया । अपने सर्वशस्वभावको जिसने पहचाना उसने भगवानको स्वीकार किया, और भगवानने उसे मोक्षमागमें स्वीकार किया, वह भगवानका सच्चा भक्त हुवा। दुनिया चाहे उसे न माने या पागल कहे परन्तु भगवानने और सन्तोंने उसे मोक्षमार्गमें स्वीकार किया है, भगवानके घरमें वह प्रथम Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] [ प्राक्कधर्म-प्रकाश है। भगवानके शानमें जिसकी महा-पात्रता भासित हुई उसके समान बड़ा अभिनन्दन (सन्मान ) क्या ? वह तो तीन लोकमें सबसे महान् सर्वशताको प्राप्त होगा। और दुनिया भले पूजती हो, परन्तु भगवानने जिसे धर्मके लिये अयोग्य कहा तो उसके समान अपमान अन्य क्या ? अहो, भगवानकी वाणीमें जिस जीवके लिये ऐसा माया कि यह जीव तीर्थकर होगा, यह जीव गणधर होगा तो उसके समान महा भाम्य अभ्य क्या ? सर्वक्षके मार्गमें सम्यग्दृष्टिका बड़ा सन्मान है, और मिथ्याष्टिपना यही बड़ा अपमान है। इस घोर दुःखसे भरे हुवे संसारमें भटकते जोवको सम्यग्दर्शन प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है, परन्तु वही धर्मका मूल है-ऐसा समझकर आत्मार्थीको पहले ही उसका उद्यम करना चाहिये। जो मुनिदशा हो सके तो करनी, और वह न हो सके तो श्रावकधर्मका पालन करना-ऐसा कहते हैं, परन्तु उन दोनोंमें सम्यग्दर्शन तो पहले होना चाहिये, यह मूलभूत रखकर पीछे मुनिधर्म या श्रावकधर्मकी बात है। प्रश्नः-यह सम्यग्दर्शन किस प्रकार होता है ? उत्तरः-'भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो' अर्थात् संयोग और विकार रहित शुद्ध चिदानन्द स्वभाव कैसा है उसे लक्ष्यमें लेकर अनुभव करनेसे सम्यग्दर्शन होता है। अन्य किसीके आश्रयसे सम्यग्दर्शन होता नहीं। संयोग या बन्धभावजितना ही आत्माको अनुभव करना और ज्ञानमय अबन्धस्वभावी आत्माको भूल जाना वह मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व सहितकी क्रियाएँ वे सब एक इकाई बिना की, शून्योंकी तरह धर्मके लिये व्यर्थ हैं। छहढालामें पंडित दौलतरामजीने भी कहा है कि मुनिव्रत धार अनंतवार ग्रीवक उपजायो, पै निज आतमहान विना सुख लेश न पायो । गणधरावि सन्तोंने सम्यग्दर्शनको मोक्षका बीज कहा है। यदि कोई बीजके बिना वृक्ष उगाना चाहे तो कैसे उगे ?-लोग उसे मूर्ख कहते हैं। उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके बिना जो धर्मरूपी वृक्ष लगाना चाहते हैं वे भी परमार्थसे मूर्ख हैं। जिसे अन्तरमें रागके साथ एकतावुद्धि अत्यन्त टूट गई है और बाह्यमें बसादिका परिप्रह छूट गया है ऐसे वीतरागी सन्त महात्माका यह कथन है। जीवको अनन्त कालमें अन्य सब कुछ मिला है परन्तु शुद्ध सम्यग्दर्शन कभी प्राप्त नहीं Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावधर्म प्रकाश [२७ था। महान देव और राजा-महाराजा अनन्तबार हुवा, उसी प्रकार घोर नरक-तिर्यचके दुःख भी अनन्त बार भोगे; परन्तु मैं स्वयं ज्ञानगुणका भंडार और मानन्द-स्वरूप -ऐसी आत्मप्रतीति या अनुभव उसने पूर्व में कभी नहीं किया । सन्त करुणापूर्वक कहते हैं कि हे भाई ! तुझे ऐसे चैतन्यतत्त्वकी प्रतीतिका अवसर पुनः पुनः कहाँ मिलेमा ? इसलिये ऐसा अवसर प्राप्त कर उसका उद्यम कर; जिससे इस भवदुःखसे तेरा छुटकारा हो। इस सम्यग्दर्शनका साधन क्या? तो कहते हैं कि-भाई, तेरे सम्यग्दर्शनका साधन तो तेरेमें होता है कि तेरेसे बाहर होता है ? आत्मा स्वयं सत्स्वभावीसर्वशस्वभावी परमात्मा है, उसमें अन्तर्मुख होनेसे ही परमात्मा होता है। बाहरके साधनसे नहीं होता । अन्तरमें देखने वाला अन्तरआत्मा है और याहरसे माननेवाला बहिरात्मा है। जैसे आमको गुठलीमेंसे आम और बबूलमेंसे बबूल फलता है, उमी प्रकार आत्मप्रतीतिरूप सम्यग्दर्शनमेंसे तो मोक्षके आम फलते हैं, और मिथ्यात्वरूप बबूलमेंसे बबूल जैसी संसारकी चारगति फूटती हैं। शुद्धस्वभावमेंसे संसरण करके (बाहर निकलके) विकारभावमें परिणमित होना संसार है। शुद्धस्वभावके आश्रयसे विकारका अभाव और पूर्णानंदकी प्राप्ति मोक्ष है। इसप्रकार आत्माका संसार और मोक्ष सभी स्वयमें ही समाविष्ट है उसका कारण भी स्वयंमें ही है। बाहरकी अन्य कोई वस्तु आत्माके संसारमोक्षका कारण नहीं। जो आत्माका पूर्ण अस्तित्व माने, संसार और मोक्षको माने, चार गति माने, चारों गतियोंमें दुःख लगे और उससे छूटना चाहं-ऐसे आस्तिक जिज्ञासु जीवके लिये यह बात है। जगतमें भिन्न भिन्न अनन्त आत्माएँ अनादि-अनन्त है। आत्मा अभी तक कहाँ रहा? कि आत्माके भान बिना संसारकी भिन्न गिन्न गतियोंमें भिन्न शरीर धारण करके दुःखी हुआ। अब उनसे कैसे छूटा जाय और मोक्ष कैसे प्राप्त हो उसकी यह बात है। अरे जीव ! अहानसे इस संसारमें तूने जो दुःख भोगे उनकी क्या बात ? उसमें सत्समागमसे सत्य समझनेका यह उत्तम अवसर आया है। ऐसे समय जो आत्माकी दरकार करके सम्यग्दर्शन नहीं प्राप्त किया तो समुद्र में डाल दिये रत्नकी तरह इस भवसमुद्र में तेरा कहीं ठिकाना नहीं लगेगा, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८) [ भावकधर्म-प्रकाश पुनः पुनः ऐसा उत्तम अवसर हाथ नहीं आता। “सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति महा दुर्लभ जानकर उसका परम उद्यम कर । यहाँ तो सम्यग्दर्शनके पश्चात् श्रावकके व्रतका प्रकाशन करना है, परन्तु उसके पूर्व यह बताया कि व्रतकी भूमिका सम्यक्त है; सम्यग्दृष्टिको राग करनेकी बुद्धि नहीं, राग द्वारा मोक्षमार्ग सधेगा ऐसा वह नहीं मानता; उसे भूमिका अनुसार रागके त्यागरूप व्रत होते हैं। व्रतमें जो शुभराग रहा उसे वह श्रद्धा आदरणीय नहीं मानता। चैतन्यस्वरूपमें थोड़ी एकाग्रता होते ही अनन्तानुबन्धी कषायके पश्चात् अप्रत्याख्यान सम्बधी कषायोंका अभाव होकर पंचम गुणस्थानके योग्य जो शुद्धि हुई वह सच्चा धर्म है। चौथे गुणस्थानवर्ती सर्वार्थ सिद्धिके देवकी अपेक्षा पांच गुणस्थान वाले श्रावकको आत्माका विशेष आनन्द है;-पश्चात् भले ही वह मनुष्य हो या तिर्यच । उत्तम पुरुषोंको सम्यग्दर्शन प्रगट कर मुनिके महावत या श्रावकके देशव्रतका पालन करना चाहिये। रागमें किसी प्रकार एकत्वबुद्धि नहीं हो और शुद्ध-स्वभावकी दृष्टि नहीं छूटे-इस प्रकार सम्यग्दर्शनके निरन्तर पालनपूर्वक धर्मका उपदेश है। ___ अरे जीव ! इस तीव्र संक्लेशसे भरे संसारमें भ्रमण करते हुए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अति दुर्लभ है। जिसने सम्यग्दर्शन प्रगट किया उसने आत्मामें मोक्षका पक्ष बोया है। इसलिये सर्व उद्यमसे सम्यग्दर्शनका सेवन कर ।। सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेके पश्चात् क्या करना वह अब चौथे श्लोकमें कहते हैं Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम XXXXXXXXXXXXxx [ ४ ] Xxxxxxxxxxxx सम्यक्त्वपूर्वक व्रतका उपदेश हे भाई ! आत्माको भूलकर भवमें भटकते अनन्तकाल पीत र गया, उसमें अतिमूल्यवान यह मनुष्य अवतार और धर्मका ऐसा दुर्लभयोग तुझे माप्त हुआ, तो अब परमात्मा जैसा ही तेरा जो स्वभाव उसे दृष्टिमें लेकर मोक्षका साधन कर, प्रयत्नपूर्वक सम्यक्त्व प्रगट कर, शुदोपयोगरूप मुनिधर्मकी उपासना कर, और जो इतना न बन सके - तो श्रावकधर्मका जरूर पालन कर । RXXXXXXXXXXX X XXXXXXXXX सम्पाप्तेऽत्रभवे कथ कथमपि द्राधीयसाऽनेहसा । मानुष्ये शुचिदर्शने च महता कार्य तपो मोक्षदम ॥ नो चेल्लोकनिषेधतोऽथ महतो मोडादशक्रय । सम्पयेत न तत्तदा गृहवतां षटकर्म योग्य व्रतं ॥ ४ ॥ अनादिकालसे इस संसारमें भ्रमण करते जीवको मनुष्यपना प्राप्त करना कठिन है! और उसमें भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति अति दुर्लभ है। इस भवमें भ्रमण करते करते दीर्घकालमें ऐसा मनुष्यपना और सम्यग्दर्शन प्राप्त करके उत्तम पुरुषोंको तो मोक्षदायक ऐसा तप करना योग्य है अर्थात् मुनिदशा प्रगट करना योग्य। मौर जो लोकके निषेधसे, मोहकी तीव्रतासे और निजकी अशक्तिसे मुनिपना नहीं किया जा सके तो गृहस्थके योग्य देवपूजा आदि षटकर्म तथा प्रतोंका पालन करना चाहिये। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अवकाश PA WETA મુનિ ધર્મ છે ५.५ EELHI सम्यग्दर्शन मुनिराज कहते हैं कि हे भव्य ! ऐसा दुर्लभ मनुष्यभव प्राप्त कर आत्महितके लिये तू मुनिधर्म अंगीकार कर, और जो इतना तुझसे न हो सके तो श्रावकधर्मका तो अवश्य पालन कर । परन्तु दोनोंमें सम्यग्दर्शन सहित होनेकी बात है। मुनिधर्म या श्रावकधर्म दोनोंमें मूलमें सम्यग्दर्शन और सर्वशकी पहिचान सहित आगे बढ़नेकी बात है। जिसे यह सम्यग्दर्शन नहीं हो सके तो प्रथम उसका उद्यम करना चाहिये । -यह बात तो प्रथम तीन गाथाओंमें बता आये हैं। उसके पथात् आगेकी भूमिकाकी यह बात है। सम्यग्दृष्टिकी भावना तो मुनिपने की ही होती है; अहो! कब चैतन्यमें लीन होकर सर्वसंगका परित्यागी होकर मुनिमार्गमें विचरण करूं ? शुद्धरत्नत्रयस्वरूप जो उत्कृष्ट मोक्षमार्ग उसरूप कब परिण! अपूर्व अवसर अवो क्यारे आवशे ! क्यारे थइशुं पायान्तर निप्रैय जो, सर्वसम्बन्धनुं बंधन तीक्षण छेदीने, विचरशुं का महत्पुरुषने पंय जो । तीर्थकर और अरिहंत मुनि होकर चैतन्यके जिस मार्ग पर विचरे उस मार्ग पर विचरण कर ऐसा धन्य स्वकाल कब आवेगा? इसप्रकार आत्माके भानपूर्वक धर्मी जीव भावना भाते हैं। ऐसी भावना होते हुये भी निजशक्तिकी मंदतासे और निमित्तरूपसे चारित्रमोहकी तीव्रतासे, तथा कुटुंबीजनों आदिके आग्रहवश होकर स्वयं ऐसा मनिपद प्रहण नहीं कर सके तो वह धर्मात्मा गृहस्थपनेमें रहकर श्रावकके धर्मका पालन करे, यह यहां बताया है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असकर्म प्रकाश ] भी पानंदीस्वामीने श्रावकके हमेशाके छह कर्तव्य बताए है देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिनेदिने ॥ ७ ॥ (पद्मनंदी-उपासकसंस्कार) भगवान जिनेन्द्रदेवकी पूजा, निग्रंथ गुरुओंकी उपासना, वीतरागी जैनशानीका स्वाध्याय, संयम, तप और दान-ये छह कार्य गृहस्थ श्रावकको प्रतिदिन करने योग्य है । मुनिपना न होसके तो दृष्टिकी शुद्धतापूर्वक इन छह कर्तव्यों द्वारा भावकधर्मका पालन तो अवश्य करना चाहिए । भाई, ऐसा अमूल्य मनुष्य-जीवन प्राप्त कर यों ही चला जावे, उसमें तू सर्वदेवकी पहचान न करे, सम्यग्दर्शनका सेवन न करे, शास्त्रस्वाध्याय न करे, धर्मात्माकी सेवा न करे और कषायोंकी मन्दता न करे तो इस जीवनमें तूने क्या किया ? आत्माको भूलकर संसारमें भटकते अनन्तकाल बीत गया, उसमें महा मूल्यवान यह मनुष्यभव और धर्मका ऐसा दुर्लभ योग मिला, तो अब परमात्माके समान हो तेरा स्वभाव उसे दृष्टिमें लेकर मोक्षका साधन कर। यह शरीर और ये संयोग तो क्षणभंगुर हैं, इनमें तो कहीं सुखकी छाया भी नहीं है। सुखियोंमें पूर्ण सुखी तो सर्वेश परमात्मा हैं, दूसरे सुस्त्री मुनिवर हैं-जो आनन्दकी ऊर्मिपूर्वक सर्वपदको साध रहे हैं। और तीसरे सुखी सम्यग्दृष्टि-धर्मात्मा हैं जिन्होंने चैतन्यके परमानन्द स्वभावको प्रतीतिमें लिया और उसका स्वाद चखा है। ऐसे सुखका मभिलाषी जीष प्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करके मुनिधर्मका या धावकधर्मका पालन करता है, उसका यह उपदेश है। संसार-परिभ्रमणमें जीवको प्रथम तो निगोदादि एकेन्द्रियमेंसे निकलकर असपना पाना बहुत दुर्लभ है, प्रसपनामें भी पंचेन्द्रियपना और मनुष्यपना प्राप्त करना दुर्लभ है दुर्लभ होते हुवे भी जीव अनन्तबार उसे प्राप्त कर चुका है परन्तु सम्यग्दर्शन उसने कभी प्राप्त नहीं किया ! इसलिये मुनिराज कहते हैं कि हे भव्य जीव ! इस दुर्लभ मनुष्यपनेमें तू सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति करके शुखोपयोगरूप मुनिर्मकी उपासना कर; और इतना न बन सके तो धावकधर्मका पालन कर। देखो, यहाँ यह भी कहा है कि जो मुनिफ्ना न हो सके तो भावकधर्म पाळला, परन्तु मुनिपनेका स्वरूप अन्यथा नहीं मानना। शुखोपयोगके बिना मान कामको Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) [ भावकधर्म-प्रकाश या पत्रके त्यागको मुनिपना मान ले तो वह श्रद्धा भी सच्ची नहीं रहती, अर्थात् उसे तो श्रावकका धर्म भी नहीं रहता। चाहे कदाचित् मुनिपना न ले सके परन्तु अन्तरंगमें उस स्वरूपकी प्रतीति बराबर प्रज्वलित रले तो सम्यग्दर्शन टिका रहेगा, इसलिये तुमसे विशेष न हो सके तो जितना हो सके उतना ही करना। श्रद्धा सखी होगी तो उसके बलसे मोक्षमार्ग टिका रहेगा। श्रद्धामें ही गड़बड़ी करेगा तो मोक्षमार्गसे भ्रष्ट हो जावेगा। सम्यग्दर्शनके द्वारा जिन्होंने शुद्धात्माको प्रतीतिमें लिया, उसमें उन लीनतासे शुद्धोपयोग प्रगट हो और प्रचुर आनन्दका संवेदन अन्तरमें हो रहा हो; बाह्यमें वमादि परिग्रह छूट गया हो-ऐसी मुनिदशा है। अहो, इसमें तो बहुत धीतरागता है, यह तो परमेष्ठी पद है। कुन्दकुन्द स्वामी स्वयं ऐसी मुनिदशामें थे, उन्होंने प्रवचनसारके मंगलाचरणमें पंचपरमेष्ठी भगवन्तोंको] वन्दन किया है, उन्होंने उसमें कहा है कि "जिन्होंने परम शुद्ध उपयोग भूमिकाको प्राप्त किया है ऐसे साधुओंको प्रणाम करता हूँ।" शुद्धोपयोगका नाम चारित्रदशा है, मोह और क्षोभ बिना जो मात्मपरिणाम यह चारित्र धर्म है। वही मुनिपना है। मुनिमार्ग क्या है उसकी जगतको खबर नहीं । कुन्दकुन्दाचार्य जैसे जिस पदको नमस्कार करें-वह मुनिपद कैसा ? यहाँ “णमो लोए सन्य साहूणम्" ऐसा कहकर पंचपरमेष्ठी पदमें इन्हें नमस्कार किया जाता है-स साधुपदकी महिमाकी क्या बात ! ! यह तो मोक्षका साक्षात् कारण है। यहाँ कहते है कि हे जीव ! मोक्षका साक्षात् कारण-शुरुचारित्रको तू भंगीकार कर, सम्यग्दर्शन पश्चात् ऐसी चारित्रदशा प्रगट कर । चारित्रदशा बिना मोक्ष नहीं। क्षायिक सम्यक्त्व और तीन बान सहित ऐसे तीर्थकर भी जब शुद्धोपयोगरूप चारित्रदशा प्रगट करते हैं तभी मुनिपना और केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिये सम्यग्दर्शन प्राप्त करके ऐसी बारित्रदशा प्रगट करना वह उत्तम मार्ग है। परन्तु लोकनिषेधसे और स्वयं के परिणाममें उस प्रकारकी शिथिलतासे जो बारित्रदशा न ली जा सके तो भायकके योग्य प्रतादि करे । विगम्बर मुनिदशा पालने में तो बहुतं वीतरागता है, परिणामोंकी शक्ति न देखे और ज्यों-त्यों मुनिपना ले ले और पीछे पालन न कर सके तो उलटे मुनिमार्गकी निन्दा होती है। इसलिये अपने शुद्धपरिणामकी शक्ति देखकर मुनिपना लेना; शक्तिकी मन्नता हो तो मुनिपनेकी भावनापूर्वक श्रावकधर्मका माचरण करना। परन्तु उसके मूलमें सम्यग्दर्शन तो पहले होता ही है, उसमें कमजोरी नहीं चलती। सम्यकमें थोड़ा या अधिक ऐसा मेद पाता। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] भूतार्थके आश्रित श्रावकको दो कषायोंके अभाव जितनी शुद्धि है और मुनिको तीन कषायोंके अभाव जितनी शुद्धि है, जितनी शुद्धता उतना निश्चयधर्म है, स्वरूपाचरणरूप स्वसमय है और उतना मोक्षमार्ग है, और उस भूमिकामें देवपूजा आदिका या पंचमहावतादिका जो शुभराग है वह व्यवहारधर्म है, यह मोक्षका कारण नहीं परन्तु पुण्यास्रवका कारण है। -इसप्रकार शुद्धता और रागके मध्यका मेव पहचानना चाहिये। सम्यक्त्वरूप भावशुद्धिके बिना मात्र शुभ या अशुभभाव तो अनादिसे सब जीवोंमें हुआ ही करते हैं; उस अकेले शुभको वास्तविक व्यवहार नहीं कहते। निश्चय बिना व्यवहार कैसा ? निश्चयपूर्वक जो शुभरागरूप व्यवहार है पर भी कोई वास्तविक धर्म नहीं: तो फिर निश्चय बिना अकेले शुभरागकी क्या बात ! -घह तो व्यवहारधर्म भी वास्तव में नहीं कहलाता। ___सम्यग्दर्शन होते शुद्धता प्रगट होती है और धर्म प्रगट होता है। धर्मीको रागमें एकत्वबुद्धि न होते हुए भी देवपूजा, गुरुभक्ति, शास्वाध्याय आदि सम्बन्धी शुभराग उसे होता है, वह उस रागका कर्ता है ऐसा भी व्यवहारमें कहा जाना है, और उसे व्यवहारधर्म कहा जाता है। निश्चयधर्म तो अन्तरंगमें भूनाथस्वभावके आश्रयसे शुद्धि प्रगट हुई वही है। अरे, वीतरागमार्गकी अगम्य लीला रागके द्वारा ज्ञान में नहीं आती, क्या रागमें स्थित रहकर तुझे वीतरागमार्गकी साधना करना है? राग द्वारा वीतरागमार्गका साधन कभी नहीं हो सकता । राग द्वारा धर्म माने ऐसे जीवकी तो यहाँ चर्चा नहीं । यहाँ तो जिसने भूतार्यस्वभावकी दृष्टिसे सम्यग्दर्शन प्रगट किया है उसे आगे बढ़ते मुनिधर्म या श्रावकधर्मका पालन किस प्रकार होता है उसकी चर्चा है। ___ सम्यग्दर्शन हुआ उसी समय स्वसंवेदनमें अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद तो माया है, तत्पश्चात् मुनिपने में तो उस अतीन्द्रिय आनन्दका प्रचुर स्वसंवेदन होता है। अहो! मुनियोंको तो शुखात्माके स्वसंवेदनमें मानन्दकी प्रचुरता है। समयसारकी पांचवीं गाथामें अपने निज वैभवका वर्णन करते हुए श्री आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि "अनवरत झरते हुए सुपर मानन्धकी मुद्रा पाला जो तीन संवेदन उसरूप स्वसंवेदनसे हमारा निज वैभव प्रगट हुआ है। स्वयंको निःशंक अनुभयमें बावा है कि ऐसा आन्मवैभव प्रगट हुआ है । देखो, यह मुनिश्शा! मुनिपना यह तो संवरतत्वको उत्कृष्टता है। जिसे ऐसी मुनिदशाको पहचान नहीं उसे संवरतस्वकी पाचान नहीं। शरीरमें दिगम्बपना हुआ या पंचमहाप्रसका शुगराग हुआ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] [ श्रावकधर्म-प्रकाश उसे ही मुनिपना मानलेना वह कोई सच्चा नहीं; और वस्त्रसहित दशामें मुनिपना माने उसे तो गृहीत मिथ्यात्व भी छूटा नहीं; मुनिदशाके योग्य परम संवरकी भूमिकामें तीव्र रागके किस प्रकारके निमित्त छूट जाते हैं उसकी भी उसे खबर नहीं; अर्थात् उम भूमिकाकी शुद्धताको भी उसने नहीं जाना। वस्त्ररहित हुआ हो, पंचमहाव्रत दोषरहित पालता हो, परन्तु जो अन्तरंगमें तीन कषायके अभावरूप शुद्धोपयोग नहीं तो उसे भी मुनिपना नहीं। मुनिमार्ग तो अलौकिक है। महाविदेह क्षेत्रमें वर्तमानमें सीमंधर परमात्मा साक्षात् तीर्थकर तरीके बिराज रहे हैं वे ऐसा ही मार्ग प्रकाशित कर रहे हैं। ऐसे अनन्त तीर्थकर हुए, लाखों सर्पक्ष भगवान वर्तमानमें उस क्षेत्रमें विचर रहे हैं और भविष्यमें अनन्त होंगे, उन्होंने वाणीमें मुनिपनेका एक ही मार्ग बताया है। यहाँ कहते हैं कि हे जीव ! ऐसा मुनिपना अंगीकार करने योग्य है; जो उसे अंगीकार न कर सके तो उसकी श्रद्धा करके श्रावकधर्म को पालना । श्रावक क्या करे? श्रावक प्रथम तो हमेशा देवपूजा करे। देव अर्थात् सर्वशदेव, उनका स्वरूप पहचानकर उनके प्रति बहुमानपूर्वक रोज रोज दर्शन-पूजन करे। पहले ही सर्वशकी पहिचानकी बात कही थी। स्वयंने सर्वशको पहिचान लिया है और स्वयं सर्वश होना चाहता है वहाँ निमित्तरूपमें सर्वक्षताको प्राप्त अरहंत भगवानके पूजनबहुमानका उत्साह धर्मीको आता है। जिनमन्दिर बनवाना, उसमें जिनप्रतिमा स्थापन करवाना, उनकी पंचकल्याणक पूजा-अभिषेक आदि उत्सव करना, ऐसे कार्योंका उल्लास श्रावकको आता है, ऐसी इसकी भूमिका है: इमलिये उसे श्रावकका कर्तव्य कहा है ! जो उसका निषेध करे तो मिथ्यात्व है। और मात्र इतने शुभरागको ही धर्म समझे तो उसको भी सचा श्रावकपना होता नहीं-ऐसा जानो। सच्चे श्रावकको तो प्रत्येक क्षण पूर्ण शुद्धात्माका श्रद्धानरूप सम्यक्त्व वर्तता है, और उसके आधारसे जितनी शुद्धता प्रगट हुई उसे ही धर्म जानता है। ऐसी दृष्टिपूर्वक वह देवपूजा आदि कार्यों में प्रवर्तता है। समन्तभद्रस्वामी, मानतुंगस्वामी आदि महान मुनियोंने भी सर्वशदेवकी नम्रतापूर्वक महान स्तुति की है; एकभवावतारी इन्द्र भी रोम रोम उल्लसित हो जाये ऐसी अद्भुत भक्ति करता है। हे सर्वज्ञ परमात्मा ! इस पंचमकालमें हमें आपके जैसी परमात्मदशाका तो आत्मामें विरह है और इस भरत क्षेत्रमें आपके साक्षात् दर्शनका भी विरह है ! नाथ, आपके दर्शन बिना कैसे रह सकूँ ?" -इस प्रकार भगवानके विरहमें उनकी प्रतिमाको साक्षात् भगवानके समान समझाकर भाषक हमेशा दर्शन-पूजन करे।-"जिन प्रतिमा जिन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ भावकधर्म-प्रकाश j सारखी" क्योंकि धर्मीको सर्वशका स्वरूप अपने शानमें भास गया है, इसलिये जिनबिम्बको देखते ही उसे उसका स्मरण हो जाता है। नियमसार टीकामें श्री पद्मप्रभमलधारि मुनिराज कहते हैं कि जिसे भषभयरहित ऐसे भगवानके प्रति भक्ति नहीं वह जीव भवसमुद्र के बीच मगरके मुंहमें पड़ा हुआ है। जिस प्रकार संसारके रागी प्राणीको युवा स्त्रीका विरह खटकता है और उसके समाचार मिलते प्रसन्न होता है, उसो प्रकार धर्मके प्रेमी जीवको सर्वक्ष परमात्माका विरह खटकता है, और उनकी प्रतिमाका दर्शन करते या संतों द्वारा उनका सन्देह सुनते (शास्त्रका श्रवण करते ) उसे परमात्माके प्रति भक्तिका उल्लास आता है। "अहो मेरे नाथ ! तनसेमनसे-धनसे-सर्यस्वरूपसे आपके लिये क्या करूँ !" ये पद्मनन्दी स्वामी ही श्रावकके छह कर्तव्य बताते हैं; "उपासक संस्कार में कहते हैं कि जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवानको भक्तिसे नहीं देखता तथा उनकी पूजा-स्तुति नहीं करता उसका जीवन निष्फल है और उसके गृहस्थाश्रमको धिक्कार है ! मुनि इससे ज्यादा क्या कहे? इसलिये भव्य जीवोंको प्रातः उठकर सर्वप्रथम देव-गुरुके दर्शन तथा भक्तिसे चन्दन और शास्त्र-श्रवण कर्तव्य है, अन्य कार्य पीछे करना चाहिये । (गाथा-१५-१६-१७ । ) प्रभो ! आपको पहचाने बिना मेरा अनन्तकाल निष्फल गया, परन्तु अब मैंने आपको पहचान लिया है, मैंने आपके प्रसादसे आपके जैसा मेरा आत्मा पहचान लिया है, आपकी कृपासे मुझे मोक्षमार्ग मिला और अब मेरा जन्म-मरणका अन्त आ गया । ऐना धर्मी जीवको देव-गुरुके प्रति भक्तिका प्रमोद आता है। श्रावकको सम्यग्दर्शकके साथ ऐसे भाव होते हैं। इसमें जितना राग है उतना पुण्य है, राग बिना जितनी शुद्धि है उतना धर्म है। __ भावक जिनपूजाकी तरह हमेशा गुरुकी उपासना तथा हमेशा शालका स्वाध्याय करे । समस्त तत्त्वोंका निर्दोष स्वरूप जिससे दिखे ऐसा ज्ञाननेत्र गुरुओंके प्रसादसे ही प्राप्त होता है । जो जीव निर्ग्रन्थ गुरुओंको मानता नहीं, उनका पहचान और उपासना करता नहीं, उसको तो सूर्य उगे हुए भी अन्धकार है। इसीप्रकार वीतरागी गुरुओंके द्वारा प्रकाशित सत्शास्त्रोंका जो अभ्यास नहीं करता उसको नेत्र होते हुए भी विद्वान लोग अन्धा कहते हैं। विकथा पढ़ा करे और शास्त्रस्वाध्याय न करे-उसके नेत्र किस कामके ! श्रीगुरुके पास रहकर जो शान नहीं सुनता और रदयमें धारण नहीं करता उस मनुष्यके कान तथा मन नहीं है-ऐसा कहा है। (उपासक-संस्कार गाथा १८ से २१) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ) [ भावकधर्म-प्रकाश इसप्रकार देवपूजा, गुरुसेवा, और शास्त्रस्वाध्याय ये श्रावकके हमेशाके कर्तव्य हैं। जिस घरमें देव-गुरु-शास्त्रकी उपासना होती नहीं वह तो घर नहीं परन्तु जेलखाना है। जिस प्रकार भक्तिवान पुत्रको अपनी माताके प्रति कैसा आदरभाव और भक्ति आती है कि अहो, मेरी माता! तेरे उपकार अपार हैं ! तेरे लिये क्या करें!! उसी प्रकार धर्मात्मा श्रावकको तथा जिज्ञासु जीवको भगवानके प्रति, गुरुके प्रति और जिनवाणी माताके प्रति दृदयसे प्रशस्त भक्तिका उद्रेक आता है; अहो मेरे स्वामी ! आपके लिये मैं क्या क्या करूँ ? किस प्रकार आपकी सेवा करूँ ! ऐसा भाव भक्तको आये बिना नहीं रहता, तो भी उसकी जितनी सीमा है उतनी वह जानता है । केवल वह उस रागमें धर्म मानकर रुक नहीं जाता। धर्म तो अन्तरके भूतार्थस्वभावके अवलम्बनसे है-उसने स्वभावको प्रतीतिमें लिया है। ऐसे सम्यग्दर्शन सहित मुनिधर्मका पालन न कर सके तो भावकधर्मका पालन करे उसका यह वर्णन है। श्रावकधर्ममें छह कर्तव्योंको मुख्य बताया है। एक जिनपूजा, दुसरी गुरुपूजा और तीसरी शास्त्रस्वाध्याय-इन तीनकी चर्चा की। उसके बाद अपनी भूमिकाके योग्य संयम, तप और दान भी श्रावक हमेशा करे । विषयों में सुखबुद्धि तो पहले ही छूट गई है, तत्पश्चात् विषय-कषायोंमें से परिणति मोड़कर अन्तरमें एकाग्रताका प्रतिदिन अभ्यास करे। मुनिराजको तथा साधर्मी धर्मात्माको आहारदान, शानदान इत्यादि करनेकी भावना भी प्रतिदिन करे । भरत चक्रवर्ती जैसे भी श्रावक अवस्थामें भोजनके समय प्रतिदिन मुनिवरोंको याद करते हैं कि कोई मुनिराज पधारें तो उन्हें आहारवान देनेके पश्चात् में भोजन करें। मुनिराजके पधारने पर अत्यन्त भक्तिपूर्वक आहारदान करते हैं । दान बिना गृहस्थ-अवस्थाको निष्फल कहा है। जो पुरुष मुनि इत्यादिको भक्तिपूर्वक चतुर्विध दान (आहार-शास्त्र-औषध और अभय ये चार प्रकारके वाल) नहीं देता उसका घर तो वास्तवमें घर नहीं परन्तु उसको बांधनेके लिये बन्धपाश है। ऐसा दान सम्बन्धी बहुत उपदेश पमनन्दी स्वामीने दिया है। (देस्त्रिये, उपासक-संस्कार अधिकार, गाथा ३१ से ३६) श्रावककी भूमिकामें चैतन्यकी दृष्टि सहित इसप्रकार छह कार्योके भाव सहज होते हैं। "भाकर्म-प्रकाश"का मतलब है कि गृहस्थाश्रममें सम्यक्तपूर्वक धर्मका प्रकाश होकर वृद्धि होगा- उसका यह वर्णन है। प्रथम तो सम्यग्दर्शनकी दुर्लभता बतलाई । ऐसे तो सम्बपर्शन सदाकाल दुर्लभ है, उसमें भी आजकल तो उसकी सभी Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्स - प्रकाश ] [10 बात सुननेको मिलना भी दुर्लभ हो गई है। और सुननेको मिले तो भी बहुतसे जीवोंको उसकी खबर नहीं पड़ती। यहाँ कहते हैं कि ऐसा दुर्लभ सम्यग्दर्शन पाकर उत्तम पुरुष मुनिधर्मको अंगीकार करे, वैराग्यस्वरूपमें रमणता बढ़ाये । प्रश्नः - शास्त्रमें तो कहा है कि पहले मुनिदशाका उपदेश दो । आप तो पहले सम्यग्दर्शनका उपदेश देकर पीछे मुनिदशा की बात करते हो ? सम्यग्दर्शन बिना मुनिपना होता ही नहीं ऐसी बात करते हो ! उत्तरः- यह बराबर है: शास्त्रमें पहले मुनिपनाका उपदेश देनेकी को कही है, वह तो श्रावकपना और मुनिपना इन दोकी अपेक्षाले पहले मुनिक्नेसीबात कही है, परन्तु कोई सम्यग्दर्शनके पहले मुनिपना ले लेने की बात नहीं की । सम्यग्दर्शन बिना तो मुनिधर्म अथवा श्रावकधर्म होता ही नहीं। इसलिये पहले सम्यग्दर्शनकी मुख्य बात करके मुनिधर्म भौर श्रावकधर्मकी बात को है । (शाल भाता है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें देशसंयमकी अपेक्षा सीधा मुनिपना लेने वाले जीव बहुत होते हैं । ) भाई, पेस्त मनुष्यपना प्राप्त करके सम्यक्त्वसहित जो मुनिदशा हो तो अवश्य करना, वह तो उत्तम है, और जो इतना तेरी शक्तिकी हीनतासे नहीं हो सके, तों भावकधर्मके पालन द्वारा मनुष्यभवकी सार्थकता करना । ऐसा मनुष्यभव बार बार मिलना दुर्लभ है । यह शरीर क्षणमें नए होकर उसके रजकण हवामें उड़ जायेंगे । रजकण तारां रखडशे जेम रखडती रेत, पछी नरभव पामीरा क्यां? चेत चेत नर खेत ! जिस प्रकार एक वृक्ष बिस्कुल हरा हो और जलकर भस्म हो जाय और उसकी राज में चारों ओर उड़ जाय तो फिरसे वही परमाणु उसी वृक्षरूप हो जायें " अर्थात् एकत्रित होकर फिरसे उसी स्थान पर वैसे ही वृक्षरूप परिणमें- यह कितना दुर्लभ है ? मनुष्यपना तो उसकी अपेक्षा और भी दुर्लभ है । इसलिये तू इसे धर्मसेवनके बिना विषय-कषायोंमें ही नष्ट न कर । जिनदर्शन आदि छह कार्य थावकके प्रतिदिन होते हैं। यहाँ सम्यग्दर्शन सहित भावकी मुख्य बात है; सम्यग्दर्शन के पूर्व जिज्ञासु भूमिकामें भी गृहस्थों द्वारा जिवदर्शन-पूजा-स्वाध्याय आदि कार्य होते हैं। जो सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको नहीं पहिच उनकी वासना नहीं करे, वह तो व्यवहारसे भी श्रावक नहीं कहलाता । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भावकधर्म-प्रकाश प्रश्नः-देव-गुरु-शास्त्र तरफका भाव तो पराश्रितभाव है न? उत्तरः-मेवानीको तो उस समय स्वयंके धर्मप्रेमका पोषण होता है। संसारसम्बन्धी स्त्री-पुत्र-शरीर-व्यापार आदि तरफके भावमें तो पापका पोषण है, उसको दिशा बदलकर-धर्मके निमित्तों तरफके भाव आ उसमें तो रागकी मन्दता होती है तथा वहाँ सच्ची पहिचानका-स्वाश्रयका अवकाश है। भाई, पराश्रयभाव तो पाप मौर पुण्य दोनों हैं, परन्तु धर्मके जिज्ञासुको पाप तरफका लगाव छूटकर धर्मके निमित्तरूप देव-गुरु-धर्मकी तरफ लगाव होता है ! इसका विवेक नहीं करे और स्वच्छन्द पापमें प्रवर्ते या कुदेवादिको माने उसे तो धर्मी होनेकी पात्रता भी नहीं। सर्वक्ष कैसे होते हैं। उनके साधक गुरु कैसे होते हैं, उनकी वाणीरूप शास्त्र कैसे होते हैं, शास्त्रोंमें आत्माका स्वभाव कैसा बतलाया है, उनके अभ्यासका रस होना चाहिये । सत्शास्त्रोंका स्वाध्याय शानकी निर्मलताका कारण है। लौकिक उपन्यास और अखबार पड़े उसमें तो पापभाव है। जिसे धर्मका प्रेम हो उसे दिनप्रतिदिन नये-नये वीतरागी श्रुतके स्वाभ्यायका उत्साह होता है। यह निर्णयमें तो है किसान मेरे स्वभावमेंसे ही आता है, परन्तु जबतक इस स्वभावमें एकान नहीं रहा जाता तबतक वह शास्त्र-स्वाध्याय द्वारा बारम्बार उसका घोलन करता है। सर्वार्थसिद्धिका देव तेतीस सागरोपम तक तत्त्वचर्चा करता है। इन सब देवोंको आत्माका भान है, एक भवमें मोक्ष जाने वाले हैं, अन्य कोई काम (व्यापारधन्धा या रसोई-पानीका काम) उनका नहीं है। तेतीस सागरोपम अर्थात् असंख्यात वर्षों तक चर्चा करते-करते भी जिसका रहस्य पूर्ण नहीं होता ऐसा गम्भीर भुतहान है, धर्मीको उसके अभ्यासका बड़ा प्रेम होता है, बानका चस्का होता है। चौबीसों घंटे केवल विकशामें या व्यवहार-धन्धेके परिणाममें लगा रहे और मानके अभ्यासमें जरा भी रस न ले-यह तो पापमें पड़ा हुभा है। धर्मी भाषकको तो शानका कितना रस होता है! प्रश्नः-परन्तु शास्त्र-अभ्यासमें हमारी बुद्धि न चले तो? उत्तरः-यह बहाना खोटा है। कदाचित् न्याय, व्याकरण या गणित जैसे विषयमें बुद्धि न चले, परन्तु जो आत्माको समझनेका प्रेम हो तो शालमें आत्माका स्वरूपं क्या कहा है ? उससे धर्म किस प्रकार हो-यह सब समझमें से नहीं आयेणा!. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश -न आये तो गुरु द्वारा या साधर्मीको पूछकर समझना चाहिये, परन्तु पहलेसे ही " समझमें नहीं आता" ऐसा कहकर शास्त्रका अभ्यास ही छोड़ दे उसे तो जानका प्रेम नहीं है। सर्वदेवकी पहचान पूर्वक सेवा-पूजा, सन्त-गुरु-धर्मात्माकी सेवा, साधर्मीका आदर-यह श्रावकको जरूर होता है। गुरुसेवा अर्थात् धर्ममें जो बड़े है, धर्ममें जो उन हैं और उपकारी हैं उनके प्रति विनय-बहुमानका भाव होता है। यह शास्त्रका अषण भी विनयपूर्वक करता है। प्रमावपूर्षक या हाथमें पंखा लेकर हवा खाते खाते शाल सुने तो अविनय है। शास्त्र सुननेके प्रसंगमें विनयसे ध्यानपूर्वक उसका ही लक्ष रखना चाहिये । इसके पश्चात् भूमिकाके योग्य राग घटाकर संयम, नप और दान भी श्रावक हमेशा करे। इसके पश्चात् श्रायकके व्रत कौनसे होते है वे आगेकी गाथामें कहेंगे। इन शुभकार्योंमें कोई रागका आदर करनेका नहीं समझाया, परन्तु धर्मात्माको शुद्धदृष्टिपूर्वक किस भूमिकामें रागकी कितनी मन्दता होती है, यह बतलाया है। भगवान सर्वज्ञ परमात्माके अनुरागी, वनमें बसनेवाले वीतरागी सन्त नौसौ वर्ष पहले हुए पानन्दी मुनिराजने इस श्रावकधर्मका प्रकाश किया है। सर्वशदेवकी पूजा, धर्मात्मा गुरुओंकी सेवा, शास्त्र-स्वाध्याय करना भावकका कर्तव्य है-ऐसा व्यवहारसे उपदेश है। शुद्धोपयोग करना यह तो प्रथम बात है। परन्तु वह न हो सके तो शुभकी भूमिकामें श्रावकको कैसे कार्य होते हैं उसे बतानेके लिये यहाँ उसे कर्त्तव्य कहा है-ऐसा समझना। इसमें जितना शुभराग है वह तो पुण्यबन्धका कारण है, और सम्यग्दर्शन सहित जितनी शुद्धता है वह मोसका कारण है। सम्यग्दर्शन प्राप्त कर मोक्षमार्गमें जिसने गमन किया है ऐसे भावकको मार्गमें किस प्रकारके भाव होते हैं आचार्यश्रीने उसे बतलाकर श्रावकधर्मको प्रकाशित किया है। ऐसा मनुष्य-अवतार और ऐसा उत्तम जैन-शासन पाकर हे जीव ! उसे तू व्यर्थ न गँवा; प्रथम तो सर्व-जिनदेवको पहिचानकर सम्यग्दर्शन प्रगट कर, इसके पश्चात् मुनिदशाके महाव्रत धारण कर, जो महाव्रत न पाल सके तो श्रावकके धाँका पालन कर और श्रावकके देशवत धारण कर । श्रावकके व्रत कौनसे होते हैं वे भागेकी गाथामें कहते हैं। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** * * * ** * * * * *+ + + ++ + = 8 + + + ++ [ x ]++++++ + श्रावकके व्रतोंका वर्णन 44. 28. 舉世代身世背带中非世世世长长长长卷 些什当我替补登######爱#####号 KHEREKERSE: 388888 सम्यग्दृष्टि-पंचमगुणस्थानवी श्रावकका राग कितना घट गया है और उसका विवेक कितना है ! एकभवावतारी इन्द्र और सर्वार्थसिदिके देवोंसे भी ऊँची जिसकी पदवी, उसके विवेककी और उसके मन्दरायकी * क्या बात ! वह अन्दर शुद्धात्माको दृष्टि में लेकर साधता है और उसके पर्यायमें राग बहुत घट गया है। मुनिकी अपेक्षा थोड़ी हो कम जिसकी दशा है।--ऐसी यह श्रावकदशा अलौकिक है ! Bigg8Sagain RECRETREEEEE *aaaaa बह देशवतोद्योतन अर्थात् श्रावकके व्रतोंका प्रकाशन चल रहा है। सबसे पहले सर्वसष द्वारा कहे गये धर्मकी पहचान करनेको कहा गया है, पश्चात् समावि. अकेला ही मोक्षमार्गमें शोभाको प्राप्त होता है, ऐसा कहकर सम्यक्त्वकी प्रेरणा की है। तीसरी गाथामें सम्यग्दर्शनको मोक्षवृक्षका बीज कहकर उसकी दुर्लभता बताई तथा यत्नपूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त करके उसकी रक्षा करनेको कहा गया। सम्यक्त्व प्राप्त करने के पश्चात् मुनिधर्मका अथवा श्रावकधर्मका पालन करनेका उपदेश दिया, उसको भावकके हमेशाके छह कर्तव्योंको भी बतलाया। अब श्रावकके व्रतोंका वर्णन करते हैं घण्मूलनतमष्टधा तदनु च स्यात्वषाणुव्रत । शीलाख्यं च गुणवतं त्रयमतः शिक्षाश्चतस्रः पराः । रात्रौ भोजनवर्जनं शुचिपटात् पेयं पयः शक्तितो। मौनादिवतमप्यनुष्ठितमिदं पुण्याय भव्यात्मनाम् ॥ ५ ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] [ ४१ श्रावक सम्यग्दर्शनपूर्वक पाठ मूलगुणोंका पालन करे तथा पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षावत-ये सात शीलवतः-इस प्रकार कुल बारह प्रत, रात्रि-भोजन परित्याग, पवित्र वनसे छने जलका पीना तथा शक्ति अनुसार मौनादि व्रतका पालन करना; ये सब आवरण भव्य जीवोंको पुण्यके कारण हैं। देखो ! इसमें दो बातें बताई । एक तो हग् अर्थात् सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन होता है-यह बात बताई; और दूसरी ये शुभ-आचरण पुण्यका कारण है अर्थात् मानवका कारण है, मोक्षका कारण नहीं। मोक्षका कारण तो सम्यग्दर्शनपूर्वक स्वद्रव्यो भालंबन द्वारा जितनी वीतरागता हुई वह ही है। जिसको आत्मभान हुआ है, कषायोंसे भिन्न आत्मभाव अनुभवमें भाया है, पूर्ण वीतरागताकी भावना है परन्तु अभी पूर्ण वीतरागता नहीं है। यहाँ भाषक अवस्थामें उसे किस प्रकारका आचरण होता है वह यहां बताया गया है। जिस प्रकार स्वयं गतिमानको धर्मास्तिकाय निमित्त है, उसी प्रकार स्वाधिन शुद्धात्माके बलसे जिसने मोक्षमार्गमें गमन किया है, उस जीवको बीचकी भूमिकामें यह व्रतादि शुभ-आचरण निमित्तरूपसे होता है। सम्यग्दर्शन होने पर चौथे गुणस्थानसे शुद्धता प्रारम्भ हुई है-निश्चय मोक्षमार्गके जघन्य अंशकी शुरुआत हो गई है, पश्चात् पांचवें गुणस्थानमें शुद्धता बढ़ गई है और राग बहुत कम हो गया है। उस भूमिकामें शुभरागके आचरणकी मर्यादा कितनी है और उसमें किस प्रकारके प्रत होते है यह बताया गया है। यह शुभरागरूप आचरण धावकको पुण्यबन्धका कारण है अर्थात् धर्मी जीव अभिप्रायमें इस रागको भी कर्तव्य नहीं मानते, रागके एक अंशको भी धर्मी जीव मोक्षमार्ग नहीं मानते: अतः उसे कर्तव्य नहीं मानते परन्तु अशुभसे बचने के लिये शुभको व्यवहारसे कर्त्तव्य कहा जाता है, क्योंकि उस भूमिकामें उस प्रकारका भाव होता है। ___ जहाँ शुद्धताकी शुरुआत हुई है परन्तु पूर्णता नहीं हुई वहाँ बीचमें साधकको महावत या देशवतके परिणाम होते हैं। परन्तु जिसे अभी शुद्धताका अंश भी प्रगट नहीं हुआ है, जिसे परमें कर्त्तव्यबुद्धि है, जो रागको मोक्षमार्ग स्वीकारता है, उसे तो अभी मिथ्यात्वका शल्य है, ऐसे शल्यवाले जीवको व्रत होते ही नहीं, क्योंकि प्रती तो निःशल्य होता है-'निःशल्य व्रती' यह भगवान् उमास्वामीका सूत्र है। जिसे मिथ्यात्वका शस्य न हो, जिसे मायाका शल्प न हा, जिसे निदानका शस्य न हो उसे हो पाँच गुणस्थान और व्रतीपना होता है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश 66 पहली बात टग अर्थात् सम्यग्दर्शनकी है । सर्वशदेवकी प्रतीतिपूर्वक सम्यग्दर्शन होना यह पहली शर्त है; फिर आगेकी बात है। श्रावकको सम्यग्दर्शनपूर्वक अष्ट मूलगुणोंका पालन नियमसे होता है। बड़का फल, पीपर, कठूमर, ऊमर तथा पाकर इन पाँच क्षीरवृक्षको उदम्बर कहते हैं। ये स-हिंसाके स्थान हैं, उनका त्याग तथा तीन 99 मकार अर्थात् मद्य, मांस, मधु इन तीनोंका नियमसे त्याग ये अष्ट मूलगुण हैं; अथवा पाँच अणुव्रतोंका पालन और मद्य, मांस, मधुका निरतिचार त्याग ये श्रावकके आठ मूलगुण हैं: ये तो प्रत्येक श्रावकको नियमसे ही होते हैं, (चाहे ) मनुष्य हो या तिर्यच हो, पुरुष हो या स्त्री हो । अढाई द्वीपके बाहर तिर्यचोंमें असंख्यात सम्यग्दृष्टि हैं, उन्हींमें श्रावक - पंचमगुणस्थानी भी असंख्यात हैं । सम्यग्दृष्टिको जैसा शुद्धस्वभाव है वैसा प्रतीतिमें आ गया है और पर्यायमें उसका अल्प शुद्ध परिणमन हुआ है । शुद्धस्वभावकी श्रद्धाके परिणमनपूर्वक शुद्धताका परिणमन होता है; और ऐसी शुद्धिके साथ श्रावकको आठ मूलगुण, श्रसहिंसाके अभावरूप पाँच अणुव्रत, रात्रि भोजन त्याग इत्यादि होते हैं । उस सम्बन्धी शुभभाव हैं वे पुण्यका उपार्जन करनेवाले हैं:- "पुण्याय भव्यात्मनाम् । कोई उसको मोक्षका कारण मान ले तो वह भूल है। श्री उमास्वामीने मोक्षशास्त्रमें भी शुभआस्त्रवके प्रकरणमें वतका वर्णन किया है; उन्होंने कोई संवररूपसे वर्णन नहीं किया है। ४२ ] यहाँ श्रावकको मद्य, मांस इत्यादिका त्याग होनेका कहा, परन्तु यह ध्यान रखना कि पहली भूमिका में साधारण जिज्ञासुको भी मद्य, मांस, रात्रि भोजन आदि तीन पापके स्थानोंका तो त्याग होता ही है, और श्रावकको तो प्रतिज्ञापूर्वक नियमसे उसका त्याग होता है । रात्रि - भोजन में बहुत प्रसहिंसा होती है, इसलिये श्रावकको उसका त्याम होता ही है । उसी प्रकार अनछने पानीमें भी त्रस जीव होते हैं। उसे शुद्ध और मोटे कपड़ेसे गालनेके पश्चात् ही श्रावक पानी पीता है । अस्वच्छ कपड़ेसे पानी छाने तो उस कपड़े के मैलमें ही जीव होते हैं, इसलिये कहते हैं कि शुद्ध बसे छना हुआ पानी पीने के काममें लेवे । रात्रिको तो पानी पिये नहीं और दिनमें छानकर पिये । रात्रिको अस जीवोंका संचार बहुत होता है: इसलिये रात्रिके खान पानमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती है । जिसमें सहिंसा होती है ऐसे कोई कार्यके परिणाम व्रती श्रावकको नहीं हो सकते । भक्ष्य-अभक्ष्यके विवेक बिना अथवा दिन-रात के विषेक बिना चाहे जैसे वर्तता होवे और कहे कि हम भ्रावक हैं, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासी -प्रकाश -परन्तु भाई ! श्रावकको तो कितना राग घट गया होता है? उसका विवेक कितना होता है ! एकभवावतारी इन्द्र और सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी अपेक्षा ऊँची जिसकी पदवी उसके विवेककी और उसके मन्द रागको क्या बात ? वह अन्दर शुद्धात्माको दृष्टिमें लेकर साध रहा है और पर्यायमें राग बहुत ही घट गया है । मुनिकी अपेक्षा थोड़ी ही कम इसकी दशा है। यह श्रावकदशा अलौकिक है। वहाँ प्रसहिंसाके भाव नहीं होते अतः बाहरमें भी प्रसहिंसाका आचरण सहज ही नहीं होता,-ऐसी संधि है। अन्दर प्रसहिंसाके परिणाम न हों और बाहर हिंसाकी चाहे जैसी प्रवृत्ति बना करे ऐसा नहीं बनता। कोई कहे कि सभी अभक्ष्य खाना सही परन्तु भाष नहीं करना, तो वह स्वच्छन्दी है, अपने परिणामका उसे विवेक नहीं। भाई, जहाँ अन्दरसे पापके भाव छूट गये वहाँ, “याहरमें पापकी क्रिया भले ही होवे " ऐसी उल्टी वृत्ति उठे ही कैसे ? मुखमें कन्दमूल भक्षण करता हो और कहे कि हमें राग नहीं, यह तो स्वच्छन्दता है। भाई, यह तो वीतरागका मार्ग है । त स्पन्दपूर्वक रागका सेवन करे और तुझे वीतरागमार्ग हाथमें आ जावे ऐसा नहीं बनता। स्वच्छन्दतापूर्वक रागको सेवे और अपनेको मोक्षमार्गी मान ले उसकी तो दृष्टि भी चोखी नहीं; सम्यग्दर्शन ही नहीं, वहाँ श्रावकपनेकी अथवा मोक्षमार्गकी बात कमी ? बीड़ी-तम्बाकूका व्यसन अथवा बासी अथाणा-मुरव्या इन सबोंमें प्रसहिंसा है, श्रावकको उसका सेवन नहीं होता। इस प्रकार प्रसहिंसाके जितने स्थान हों, जहाँ जहाँ अहिंसाकी सम्भावना हो वैसे आचरण थावकको होते नहीं ऐसा समझ लेना । ___ मद्य, मांस और मधु अर्थात् शहद, तथा पांच प्रकारके उवम्बर फल, इनका त्याग तो श्रावकको प्रथम ही होता है ।-ऐसा पुरुषार्थसिद्धि-उपायमें अमृतचन्द्राचार्यदेवने कहा है। जिन्हें इनका त्याग नहीं उन्हें व्यवहारसे भी श्रावकपना नहीं होता और वे धर्मश्रवणके भी योग्य नहीं। समन्तभद्रस्वामीने श्री रत्नकरंडश्रावकाचारमें त्रसहिंसादिके त्यागरूप पांच अणुव्रतका पालन तथा मद्य-मांस-मधुका त्याग-इस प्रकार आठ मूलगुण कहे हैं। ___ मुख्यतः तो दोनोंमें प्रसहिंसा सम्बन्धी तीव पाप-परिणामोंके त्यागकी बात है। जिस गृहस्थको सम्यग्दर्शनपूर्वक पांच पाप और तीन 'म'कारके त्याग की उडता हुई उसने समस्त गुणरूपी महलकी नींव डाली । अनादिसे संसारभ्रमणका कारण जो मिथ्यात्व और तीव्र पाप उसका अभाव होते ही जीव अनेक गुण ग्रहणका पात्र हुआ । इसलिये इन आठ न्यागोंको अष्ट मूलगुण कहा है। बहुतसे लोग दवा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४) [ भावकधर्म-प्रकाश आदिम मधु सेवन करते हैं, परन्तु मांसकी तरह ही मधुको भी अभक्ष्य गिना है। रात्रि भोजनमें भी प्रसहिंसाका बढ़ा दोष है। भावकको ऐसे परिणाम नहीं होते। भाई, अनन्तकालमें तुझे ऐसा मनुष्य-अवतार मिला तो उसमें आत्माका हित किस प्रकार हो-उसका विचार कर । एक अंगुल जितने क्षेत्रमें असंख्यात औदारिकशरीर; एक शरीरमें अनन्त जीव-वे कितने ? अभीतक जितने सिद्ध हुए उनसे भी अनन्तगुने निगोद जीव एक-एक शरीरमें हैं; उस निगोदमेंसे निकलकर सपना प्राप्त करना और उसमें यह मनुष्यपना और जैनधर्मका ऐसा अवसर मिलना तो बहुत ही दुर्लभ है। भाई, तुझे उसकी प्राप्ति हुई है तो आत्माका जिज्ञासु होकर मुनिदशा या श्रावकदशा प्रगट कर । यह अवसर धर्मके सेवन बिना निष्फल न गँवा। सर्वप्रभु द्वारा कहे हुये आत्माके हितका सचा रास्ता अनन्तकालमें तूने नहीं देखासेवन नहीं किया; वह मार्ग यहां सर्वह परमात्माके अनुगामी सन्त तुझे बता रहे हैं। सती राजमती, द्रौपदी, सीताजी, ब्राह्मी-सुंदरी, चन्दना, अंजना, तथा रामचंद्रजी, भरत, सुदर्शन, पारिषेणकुमार आदि पूर्वमें राजपाटमें थे तब भी वे संसारसे एकदम उदासीन थे, वे भी आत्माके भान सहित धर्मका सेवन करते थे । अर्थात् गृहस्थअवस्थामें हो सके ऐसी (श्रावकधर्मकी) यह बात है । पश्चात् छह-सातवें गुणस्थान रूप मुनिदशा तो विशेष ऊँची दशा है, वह गृहस्थ-अवस्थामें रहकर नहीं हो सकती परन्तु गृहस्थ-अवस्थामें रहकर जो सम्यग्दर्शनपूर्वक शक्ति-अनुसार वीतरागधर्मका सेवन करते वे भी अल्पकालमें मुनिदशा और केवलज्ञान प्रगट कर अवश्य मोक्षको प्राप्त होंगे। शुद्धस्वरूपका जहाँ सम्यक निर्णय हुआ यहाँ मोक्षका दरवाजा * ॐ खुल गया। गृहवासमें रहनेवाले सम्यग्दृष्टिको भी आत्मदर्शन द्वारा . मोक्षका दरवाजा खुल गया है। जो शुद्ध स्वतत्त्वका उपादेयपना और समस्त परभावोंका अनुपादेयपना-ऐसे मेदज्ञानके बलसे मोक्षमार्गको साध रहा है, ऐसे निर्मोही गृहस्थको समन्तभद्रस्वामीने * प्रशंसनीय और “ मोक्षमार्गस्थ" कहा है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावधर्म-प्रकाश [. ... * ......************** ...........[ ६ ]....... श्रावकके बारह व्रत ....... 9999900000000 0 00000000sex अपने आंगनमें मुनिराजको देखते ही धर्मात्माको अत्यन्त ४ आनन्द होता है । श्रावकके आठ प्रकारको कषायके अभावसे सम्यक्त्व पूर्वक जितनी शुद्धता प्रगट हुई है उतना मोक्षमार्ग है। ऐसा मोक्षमार्ग 8 हो वहाँ त्रसहिंसाके परिणाम नहीं होते। भाई ! आत्माका खजाना 8 खोलनेके लिये यह अवसर मिला, उसमें विकथामें समय नष्ट करना कैसे शोभे ? सम्यक्त्वसहित आंशिक वीतरागता पूर्वक श्रावकपना 8 षोभता है। 800599999900 * 9999999999908 पांचवीं गाथामें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत ऐसे जो बारह व्रत कहे वे कौन कौन हैं ? -यह बताकर उनका पालन करनेको कहते हैं: हन्ति स्थावरदेहिनः स्वविषये सर्वान्त्रसान् रक्षति ब्रूते सत्यमचौर्यत्तिमबलां शुद्धां निजां सेवते । दिग्देशव्रत दण्डवर्जनमतः सामायिकं प्रौषधं दानं भोगयुगपमाणमुररी कुर्याद् गृहीति व्रती ॥६॥ देशवती धावकको प्रयोजनवश (आहार आदिमें) स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है परन्तु समस्त प्रस जीवोंकी तो रक्षा करता है। सत्य बोलता है, मचौर्यबत पालता है, शुद्ध स्वस्त्रीके सेवनमें संतोष अर्थात् परस्त्री सेवनका त्याग होता है तथा पाँचौं व्रत परिग्रहकी मर्यादा भी श्रावकको होती है। अभी उसके मुनिदशा नहीं अर्थात् सर्व परिग्रहका भाव छटा नहीं, परन्तु उसकी मर्यादा आ गई । परिप्रहमें कहीं सुख नहीं है, ऐसा मान है और "कोई भी परद्रव्य मेरा नहीं, मैं तो पानमात्र हूँ" ऐसी अन्तईटिमें तो सर्व परिग्रह झूटा ही हुआ है, परन्तु चारित्र Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] अपेक्षासे अभी गृहस्थको मर्वपरिग्रह नहीं छूटा । मिथ्यात्वका परिग्रह छूट गया है और दूसरे परिग्रहकी मर्यादा हो गई है। इस प्रकार पाँच अणुव्रत गृही-श्रावकको होते हैं। तथा दिग्बत, देशव्रत, और अर्थदण्डका त्यागरूप व्रत ये तीन गुणवत होते हैं: और सामायिक, प्रौषधोपवास, दान अर्थात् अतिथिसंविभाग और भोगोपभोगपरिमाण ये चार शिक्षाबत होते हैं -इस प्रकार श्रावकको बारह व्रत होते हैं। ये व्रत पुण्यके कारण हैं-यह बात पाँचवीं गाथामें कह आये हैं। चार अनन्तानुबन्धी और चार अप्रत्याख्यान -इन आठ कषायोंके अभावसे भावकको सम्यक्त्वपूर्वक जितनी शुद्धता हुई है उतना मोक्षमार्ग है; ऐसा मोक्षमार्ग प्रगट हुआ हो वहाँ प्रसहिंसाके परिणाम नहीं होते। आत्मा पर जीवको मार सके या जिला सके ऐसी बाहरकी क्रियाके कर्तव्यकी यह बात नहीं, परन्तु अन्दर ऐसे हिंसाके परिणाम ही उसे नहीं होते । प्रत्येक द्रव्य-गुण-पर्यायकी मर्यादा स्वयंकी वस्तुके प्रवर्तन में ही है, परमें प्रवर्तन नहीं होता। ऐसे वस्तुस्वरूपके भानपूर्वक अन्तरंगमें कुछ स्थिरता हो तभी व्रत होता है; और उसे धावकपना कहा जाता है। ऐसे आवकको (-दीन्द्रियसे पंचेन्द्रिय ) त्रसहिंसाका तो सर्वथा त्याग हो, और स्थावरहिंसाकी मी मर्यादा हो। ऐसा अहिंसावत होता है। इसी प्रकार सत्यका भाव हो और असत्यका त्याग हो, चोरीका त्याग होः परस्त्रीका त्याग हो और स्वस्त्रीमें संतोष, और वह भी शुद्ध हो तभी, अर्थात् कि ऋतुमती-अशुद्ध हो तब उसका भो त्याग,-इस प्रकारका एकदेश ब्रह्मचर्य हो; तथा परिग्रहकी कुछ मर्यादा हो; इसप्रकार श्रावकको पांच अणुवत होते हैं। पाँच अणुव्रत पश्चात् श्रावकको तीन गुणवत भी होते हैं: प्रथम दिग्वत अर्थात् दशों दिशामें निश्चित मर्यादा तक ही गमन करनेकी जीवनपर्यंत प्रतिक्षा करनाः दूसरा देशवत अर्थात् दिग्नतमें जो मर्यादा की है उसमें भी निश्चित क्षेत्रके बाहर नहीं जानेका नियम करना; तीसरा अनर्थदण्डपरित्यागनत अर्थात् बिना प्रयोजनके पापकर्म करनेका त्याग; उसके पाँच प्रकार-अपध्यान, पापका उपदेश, प्रमादचर्या, जिससे हिंसा हो ऐसे शान आदिका दान और दुःश्रुति-जिससे राग-द्वेषकी वृद्धि हो ऐसी दुष्ट कथाओंका श्रवण वह न करे। इस प्रकार श्रावकके तीन गुणवत होते हैं। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थापकधर्म-प्रकाश ] [७ मौर चार शिक्षाबत होते हैं। सामायिक-अर्थात् पंचमगुणस्थानवी भाषक प्रतिदिन परिणामको अन्तरमें एकाग्र करनेका अभ्यास करे। प्रौषधोपवास-अष्टमी चौदसके दिनों में श्रावक उपवास करके परिणामको विशेष एकाग्र करनेका प्रयोग करे। सभी आरम्भ छोड़कर धर्मध्यानमें ही पूरा दिन व्यतीत करे। दान-अपनी शक्तिअनुमार योग्य वस्तुका दान करे: आहारदान, शास्त्रदान, औषधदान, अभयदान,-इसप्रकाररके दान श्रावक करे। उनका विशेष वर्णन आगे करेंगे। अतिथिके प्रति अर्थात् मुनि या धर्मात्मा श्रावकके प्रति बहुमानपूर्वक आहारदानादि करे, शास्त्र देवे, शानका प्रचार कैसे बढ़े-ऐसी भावना उसको होती है। इसे अतिथिसंविभाग-व्रत भी कहते हैं। भोगोपभोगपरिमाण बत-अर्थात् खाने-पीने इत्यादि की जो वस्तु एकबार उपयोगमें आतो है उसे भोग-सामग्री कहते हैं, और वस्त्रादि जो सामग्री बारम्बार उपयोगमें आवे उसे उपभोग-सामग्री कहते हैं, उसका प्रमाण करे, मर्यादा करे। उसमें सुखबुद्धि तो पहलेसे ही छुट गई है, क्योंकि जिसमें सुख माने उसकी मर्यादा नहीं होती। इसप्रकार पाँच अणुव्रत और चार शिक्षावन-ऐसे बारह व्रत श्रावकको होते हैं। इन व्रतोंमें जो शुभविकल्प है वह तो पुण्यबन्धका कारण है और उस समय स्वद्रव्यके आलम्बनरूप जितनी शुद्धता होती है वह मवर-निजंग है। शायक आत्मा रागके एक अंशका भी कर्ता नहीं, और गगके एक अंश भी उसे लाभ नहीं ऐसा भान धर्मीको बना रहता है। यदि ज्ञानमें रागका कर्तृत्व माने अथवा रागसे लाभ माने तो मिथ्यात्व है। मेवानीको शुभरागमें पापसे बना उतना लाभ कहलाता है, परन्तु निश्चयधर्मका लाग उस शुभरागमें नहीं। धर्मका लाभ तो जितना बीतगगमाव हुआ उतना ही है। सम्यक्त्वसहित अंशरूपमें वीतरागभावपूर्वक श्रावकपना शोभता है। ___ भाई, आत्माके खजानेको खोलनेके लिये ऐमा अवसर मिला, वहाँ विकथामें, पापस्थानमें और पापावारमें ममय गमाना केसे निमे ? मांश परमात्मा द्वारा कहे हुए आत्माके शुद्ध स्वभावको लशमें लेकर बारम्बार उसको अनुभवमें ला और उसमें एकाग्रताको वृद्धि कर । लोकमें ममतावाले जीव भोजन आदि मर्वप्रसंगमें स्त्री-पुत्रादिको ममतासे याद करते हैं उसी प्रकार धर्मके प्रेमी जीव भोजनादि सर्व प्रसंगमें प्रेमपूर्वक धर्मात्माको याद करते हैं कि मेरे आँगनमें कोई धर्मात्मा अथवा कोई मुनिराज पधारें Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८) [ भावकधर्म-प्रकाश तो उनको भक्तिपूर्वक भोजन देकर मैं भोजन करें। भरत चक्रवर्ती जैसे धर्मात्मा भी भोजनके समय रास्ते पर आकर मुनिराजके आगमनकी प्रतीक्षा करते थे; मुनिराजके M TmM -:-:ो पधारने पर परम भक्तिपूर्वक आहारदान करते थे। अहा ! ऐसा लगे कि आंगनमें कल्पवृक्ष फलित हुआ, इससे भी अधिक आनन्द मोक्षमार्गसाधक मुनिराजको अपने मांगनमें देखकर धर्मात्माको होता है। अपनी रागरहित चैतन्यस्वभावकी दृष्टि है और सर्वसंगत्यागकी बुद्धि है वहाँ गृहस्थको ऐसे शुभभाव आते हैं। उस शुभरागकी मर्यादा जितनी है उतनी वह जानता है। अन्तरका मोक्षमार्ग तो रागसे पार चैतन्यस्वभावके आश्रयसे परिणमता है। श्रावकके व्रतमें मात्र शुभरागकी बात नहीं है। जो शुभराग है उसे तो जैनशासनमें पुण्य कहा है और उस समय श्रावकको जितनी शुद्धता स्वभावके आश्रयसे वर्तती है उतना धर्म है, वह परमार्थ-व्रत है, और मोक्षका साधन है-ऐसा समझना । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४१ भावकमर्म-प्रकाश ] ........ [७] .............. गृहस्थको सत्पात्रदानकी मुख्यता भाई ! लक्ष्मी तो क्षणभंगुर है; तू दान द्वारा लक्ष्मी मादिका प्रेम हटाकर धर्मका प्रेम बढ़ा। जिसे धर्मका उल्लास होता है उसे धर्म प्रसंगमें तन-मन-धन खर्च करनेका उल्लास आये बिना नहीं राता । ' धर्मको शोभा किस प्रकार बड़े, धर्मात्मा किस प्रकार आगे बढ़े और साधर्मियोंको कोई प्रतिकूलता हो तो वह कैसे दूर हो-ऐसा प्रसंग विचारकर श्रावक उसमें उत्साहसे वर्तता है। ऐसे धर्मके प्रेमी श्रावकको दानके भाव होते हैं। सम्यग्दर्शनपूर्वक देशवती श्रावकको अष्ट मूलगुण और बारह अणुव्रत होते है-यह बताया । अब कहते हैं कि-गृहस्थको यद्यपि जिनपूजा भादि अनेक कार्य होते हैं तो भी उनमें सत्पात्रदान सबसे मुख्य है: देवाराधनपूजनादिबहुषु व्यापारकार्येषु सत् पुण्योपार्जनहेतुषु प्रतिदिनं संजायमानेष्वपि । संसारार्णवतारणे प्रवहणं सत्पात्रमुद्दिश्य यत् तद्देशव्रतधारिणो धनवतो दानं प्रकृष्टो गुणः ॥ ७ ॥ श्रावकको सत् पुण्योपार्जनके कारणरूप जिनदेवका आराधन-पूजन आदि बनेक कार्य हमेशा होते हैं। उनमें भी धनवान श्रावकका तो, संसार-समुद्रको पार करनेके लिये नौका समान ऐसा सत्पात्रदान उत्तम गुण है; अर्थात श्रावकके सब कार्यों में दान मुख्य कार्य है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] [भावकधर्म-प्रमाण धर्मी जीव प्रतिदिन धर्मकी प्रमावना, शानका प्रचार, भगवानकी पूजा-भक्ति आदि कार्यों में अपनी लक्ष्मीका सदुपयोग किया करता है, उनमें धर्मात्माकों मुनि आदिके प्रति भक्तिपूर्वक दान देना मुख्य है। आहारदान, औषधदान, शानदान और अभयदान ये चार प्रकारके दान आगेके चार श्लोकोंमें बतावेंगे। __ धनवान अर्थात् जिसने अभी परिग्रह नहीं छोड़ा ऐसे श्रावकका मुख्य कार्य सतपात्रदान है। सम्यग्दर्शनपूर्वक जहाँ ऐसे दान-पूजादिका शुभराग आता है वहाँ अन्तटिमें उस रागका भी निषेध वर्तता है, अर्थात् उस धर्मीको उस रागसे "सत्पुण्य" बँधता है। अज्ञानीको "सत्पुण्य' होता नहीं, क्योंकि उसे तो पुण्यकी रुचि है, रागके आवरकी बुद्धिसे पुण्यके साथ मिथ्यान्वरूपी बड़ा पापकर्म उसे बँधता है। यहाँ दानकी मुख्यता कही है उससे अन्यका निषेध न समझना । जिनपूजा आदिको भी सत्पुण्यका हेतु कहा है, वह भी श्रावकको प्रतिदिन होता है। कोई उसका निषेध करे तो उसे श्रावकपनेकी या धर्मकी खबर नहीं । जिनपूजाको कोई परमार्थसे धर्म ही मान ले तो गलती है, और जिनपूजाका कोई निषेध करे तो वह भी गलती है। जिन प्रतिमा जैनधर्ममें अनादिकी वस्तु है। परन्तु वह जिन प्रतिमा वीतराग हो-"जिन प्रतिमा जिनसारखी” किसीने इस जिन प्रतिमाके ऊपर चन्दन-पुष्प-आभरण-मुकुट-वस्त्र आदि चढ़ाकर उसका स्वरूप विकृत कर दिया, और किसी ने जिन प्रतिमाके दर्शन-पूजनमें पाप बताकर उसका निषेध किया हो, यह दोनोंको भूल है। इस सम्बन्धी एक दृष्टान्त प्रस्तुत किया जाता है-दो मित्र थे; एक मित्रके पिताने दूसरेके पिताको १०० (एक सौ) रुपये उधार दिये, और बहीमें लिख लिये । दुसरेका पिता मर गया। कितने ही वर्षांक बाद पुराने बहीखाते देखते पहले मित्रको खबर लगी की मेरे पिताने मित्रके पिताको एक सौ रुपया दिये थे; परन्तु उसे तो बहुत वर्ष बीत गये । ऐसा समझकर उसने १००के ऊपर आगे दो बिन्दु लगाकर १००,०० (दस हजार ) बना दियेः और पश्चात् मित्रको कहा कि तुम्हारे पिताने मेरे पितासे दस हजार रुपये लिये थे, इसलिये लौटाओ। इस मित्रने कहा कि मैं मेरे पुराने बही चापड़े देखकर फिर कहूँगा। घर जाकर पिताकी बहियाँ देखी तो उसमें दस हजारके बदले सौ रुपये निकले। इस पर उसने विचार किया कि जो सौ रुपये स्वीकार करता हूँ तो मुझे दस हजार रुपये देना पड़ेंगे। इसलिये उसकी नीयत खराब हो गई और उसने तो मूलसे ही रकम उड़ा दी की मेरे पहियोंमें कुछ नहीं निकलता । इसमें सौ रुपयेकी रकम तो Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सची थी, परन्तु एकने लोभवश उसमें दो विन्दु बड़ा दिये और दूसरेने वह रकम सम्पूर्ण उड़ा दी। उसी प्रकार अनादि जिनमार्गमें जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर, उनकी पूजा आदि यथार्थ है। परन्तु पकने दो बिन्दुओंकी तरह उसके ऊपर यत्र-आभरण आदि परिग्रह बढ़ाकर विकृति कर डाली और दूसरेने तो शास्त्रमें मूर्ति ही नहीं ऐसा गलत अर्थ करके उसका निषेध किया। और इन दो के अलावा वीतरागी जिनप्रतिमाको स्वीकार करके भी उस तरफके शुभरागको जो मोक्षका साधनरूप धर्म बतावे उसने भी धर्मके सच्चे स्वरूपको नहीं समझा है। भाई, जिनप्रतिमा है, उसके वन-पूजनका भाव होता है, परन्तु उसकी सीमा कितनी ? कि शुभराग जितनी । इससे भागे बढ़कर इसे जो तु परमार्थधर्म मान ले तो वह तेरी भूल है। एक शुभविकल्प उठे वह भी वास्तवमें धानका कार्य नहीं: मैं तो सर्वस्वभावी हूँ, जैसे सर्वशमें विकल्प नहीं वैसे ही मेरे ज्ञानमें भी रागरूपी विकल्प नहीं । " ये विकल्प उठते हैं न ?" तो कहते हैं कि वह कर्मका कार्य है, मेग नहीं। मैं तो शाम है. नका कार्य राग कैसे हो?-इस प्रकार ज्ञानीको रागसे पृथक कालिक स्वभावके भावपूर्षक उसे टालनेका उद्यम होता है । जिसने रागसे पृथक अपने स्वरूपको नहीं जाना और रागको अपना स्वरूप माना है वह रागको कहाँसे टाल सकेगा? ऐसे मेदज्ञानके बिना सामायिक भी सच्ची नहीं होती। मामायिक तो दो घड़ी अन्तरमें निर्विकल्प आनन्द के अनुभवका एक अभ्यास है। और दिन-रात चौबीस घण्टे आनन्दके अनुभवकी जाँच उसका नाम प्रौषध है; और शरीर छूटने के प्रसंगमें अन्तरमें एकाग्रताका विशेष अभ्यासका नाम संल्लेखना अथवा संथाग है। परन्तु जिसे गगसे भिन्न आत्मस्वभावका अनुभव ही नहीं उसे कैसी सामायिक ? और कैसा प्रौषध ? और कैसा संथारा ? भाई, यह वीतरागका मार्ग जगतसे न्यारा है। यहाँ अभी सम्यकदर्शन सहित जिसने व्रत अंगीकार किये हैं ऐसे धर्मी श्रावकको जिगपूजा आदिके उपरान्त दानके भाव होते हैं उसकी चर्चा चल रही है। तीव लोभरूपी कुवेकी खोलमें फँसे हुए जीवोंको उसमेंसे बाहर निकलनेके लिये श्री पद्मनन्दी स्वामीने करुणा करके दानका विशेष उपदेश दिया है। दान अधिकारकी छयालीसवीं गाथामें कौधेका दृष्टान्त देकर कहा है कि जो लोभी पुरुष दान नहीं देता और लक्ष्मीके मोहरूपी बन्धनसे बँधा हुआ है उसका जीवन व्यर्थ है; उसकी अपेक्षा तो वह कौवा श्रेष्ठ है जो अपनेको मिली हुई जली खुरचनको काँव काँध करके दूसरे कौवोंको बुलाकर खाता है। जिस समयमें तेरे गुण जले अर्थात् उनमें विकृति हुई उस समयमें रागसे पुण्य था, उस पुष्यसे कुछ सममी. मिली, और अब तू सत्पात्रके Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२) [ श्रावकधर्म-प्रकाश दानमें उसे नहीं स्वर्चे और मात्र पापहंतुमें ही खर्चे तो तुझे सिर्फ पापका ही बन्धन होता है; तेरी यह लक्ष्मी तुझे बन्धनका ही कारण है । सत्पात्रदानरहित जीवन निष्फल है, क्योंकि जिसमें धर्मका और धर्मात्माका प्रेम नहीं-उसमें आत्माको क्या लाभ! भाई, यह दानका उपदेश सन्त तेरे हितके लिये देते हैं। सन्त तो वीतराग है और कोई तेरे धनकी वाञ्छा नहीं, ये तो परिग्रहरहित दिगम्बर सन्त वन-जंगलमें बसनेवाले और चैतन्यके आनन्दमें झुलनेवाले हैं। यह जीवन, यौवन और धन सब स्वप्नसमान क्षणभंगुर हैं, तो भी जो जीव सत्पात्रदान आदिमें उसका उपयोग नहीं करते और लोभरूपी कुएँकी खोलमें भरे हुए हैं उन पर करुणा करके उद्धारके लिये सन्तोंने यह उपदेश दिया है। अन्तरमें सम्यक्दृष्टिपूर्वक अन्य धर्मात्माओंके प्रति दान-बहुमानका भाव आवे उसमें स्वयंकी धर्मभावना पुष्ट होती है, इसलिये ऐसा कहा कि दान श्रावकको भवसमुद्रसे तिरनेके लिये जहाजके समान है। जिसे निजके धर्मका प्रेम है उसे अन्य धर्मात्माके प्रति प्रमोद-प्रेम और बहुमान आता है। धर्म, धर्मी जीवके आधारसे है इसलिये जिसे धर्मी जीवोंके प्रति प्रेम नहीं उसे धर्मका प्रेम नहीं। जो मनुष्य साधर्मी-सज्जनोंके प्रति शक्ति-अनुसार वात्सल्य नहीं करता उसकी आत्मा प्रबल पापसे ढंकी हुई है और धर्मसे विमुख है अर्थात् वह धर्मका अभिलाषी नहीं। भव्य जीवोंको साधर्मी सज्जनोंके साथ अवश्य प्रीति करनी चाहिये-ऐसा उपासक-संस्कारकी गाथा २६ में पननन्दी स्वामीने कहा है। भाई, लक्ष्मी आदिका प्रेम घटाकर धर्मका प्रेम बढ़ा। स्वयंको धर्मका उल्लास आवे तो धर्मप्रसंगमें तन-मन-धन खर्च करनेका भाव उछले बिना रहे नहीं; धर्मात्माको देखते ही उसे प्रेम उमड़ता है। वह जगतको दिखानेके लिये दानादि नहीं करता, परन्तु स्वयंको अन्तरमें धर्मका ऐसा प्रेम सहज ही उल्लसित होता है। __ धर्मात्माकी दृष्टि में तो आत्माके आनन्दस्वभावकी ही मुख्यता है, परन्तु उसको शुभ कार्यों में दानकी मुख्यता है। दृष्टिमें आत्माके आनन्दकी मुख्यता रखते हुए भूमिका अनुसार दानादिके शुभ भायोंमें वह प्रवर्तता है। वह किसीको दिखानेके लिये नहीं करता, परन्तु अन्तरमें धर्मके प्रति उसको सहजरूपसे उल्लास आता है। लोग स्थूल दृष्टिसे धर्मीको मात्र शुभभाष करता हुआ देखते हैं, परन्तु अन्दरकी गहराई में धर्मीको मूलभूत दृष्टि वर्तती है-जो स्वभावका अवलम्बन कभी छोड़ती नहीं और रागको कभी आत्मरूप करती नहीं, उसको दुनिया देखती Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म - प्रकाश 1 [ ५३ नहीं, परन्तु धर्मका मूल तो वह दृष्टि है । "धर्मका मूल गहरा है ।" गहरा ऐसा जो अन्तरंगस्वभावधर्मका वटवृक्ष है, उस ध्रुवके ऊपर दृष्टि डालकर एकाग्रताका सींचन करते करते इस वटवृक्षमेंसे केवलज्ञान प्रगट होगा । अज्ञानीके शुभभाव अर्थात् परलक्षी शास्त्रपठन ये तो भादव महीने के भींडीके पौधे जैसे हैं, वे लम्बे काल तक टिकेंगे नहीं। धर्मात्माको ध्रुवस्वभावकी दृष्टिसे धर्मका विकास होता है: बीचमें शुभराग और पुण्य आता है उसको तो वह हेय जानता है: - जो विकार है उसकी महिमा क्या ? और उससे आत्माकी महत्ता क्या ? अज्ञानी तो राग द्वारा अपनी महत्ता मानकर, स्वभावकी महत्ताको भूल जाता है और संसार में भटकता है। ज्ञानीको सत्स्वभावकी दृष्टिपूर्वक जो पुण्यबन्ध होता है उसे सतपुण्य कहते हैं: अज्ञानीके पुण्यको सत्पुण्य नहीं कहते । जिसे रागकी - पुण्यकी और उसके फलकी प्रीति है वह तो अभी संयोग प्रहण करनेकी भावना वाला है, अर्थात् उसे दानकी भावना सच्ची नहीं होती है । स्वयं तृष्णा घटावे तो दानका भाव कहा जाता है । परन्तु जो अभी किसीको ग्रहण करनेमें तत्पर है और जिसे संयोगकी भावना है वह राग घटाकर दान देनेमें राजी कहाँसे होगा ? मेरा आत्मा ज्ञानस्वभावा अपनेसे पूर्ण है, परका ग्रहण अथवा त्याग मेरेमें है ही नहीं, ऐसे असंगस्वभावकी दृष्टि वाला जीव परसंयोगहेतु माथापच्ची न करे, इसे संयोगकी भावना कितनी टल गई है ? परन्तु इसका माप अन्तरकी दृष्टि बिना पहिचाना नहीं जा सकता । भाई, तुझे पुण्योदयसे लक्ष्मी मिली और जैनधर्मके सच्चे देव- गुरु महारत्न तुझे महाभाग्यसे मिले, अब तो तू धर्म-प्रसंगमें तेरी लक्ष्मीका उपयोग करनेके बदले स्त्री- पुत्र तथा विषय - कषायके पापभावमें ही धनका उपयोग करता है तो हाथमें आया हुआ रत्न समुद्र में फेंक देने जैसा तेरा काम है । धर्मका जिसे प्रेम होता है वह तो धर्मकी वृद्धि किस प्रकार हो, धर्मात्मा कैसे आगे बढ़े, साधर्मियोंको कोई भी प्रतिकूलता हो तो वह कैसे दूर होवे - ऐसे प्रसंग विचार-विचारकर उनके लिये उत्साहसे धन खता है। धर्मी जीव बारम्बार जिनेन्द्र-पूजनका महोत्सव करता है । पुत्रके लग्नमें कितने उत्साहसे धन खर्च करता है ! उधार करके भी खर्चता है, तो धर्मकी लगनमें देव- गुरुकी प्रभावनाके लिये और साधर्मके प्रेमके लिये उससे भो विशेष उल्लासपूर्वक प्रवर्तना योग्य है । एकबार शुभभावमें कुछ खर्च कर दिया इसलिये बस है - ऐसा नहीं, परन्तु बारम्बार शुभकार्यमें उल्लाससे वर्ते । दान अपनी शक्ति अनुसार होता है, लाख करोड़ की जायदादमेंसे सौ रुपया खर्च होवे - वह कोई शक्ति अनुसार नहीं कहा जा सकता । उत्कृष्टरूपसे चौथा भाग, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } [ श्रावकध मध्यमरूपसे छट्टा भाग, कमसे कम दसवाँ भाग खर्च करे उसको शक्ति अनुसार कहा गया है । देखिये, यह किसी प्रकार कोई परके लिये करनेकी बात नहीं, परन्तु आत्माके मान सहित परिग्रहकी ममता घटाने की बात है । नये नये महोत्सबके प्रसंग तैयार करके श्रावक अपने धर्मका उत्साह बढ़ाता जाता है और पापभाव घटाता जाता है । उम प्रसंगोंमें मुनिराजको अथवा धर्मात्माको अपने आँगनमें पधराकर भक्तिसे आहारदान करना उसका प्रधान कर्तव्य कहा गया है क्योंकि उसमें अपने धर्मके स्मरणका और धर्मकी भावनाकी पुष्टिका सीधा निमित्त है। मुनिराज इत्यादि धर्मात्माको देखते ही स्वयंके रत्नत्रयधर्मकी भावना तीव्र होजाती है । कोई कहे कि हमारे पास बहुत सम्पत्ति नहीं; तो कहते हैं कि भाई, कम पूँजी हो तो कम ही वापर । तुझे तेरे भोग-विलासके लिये लक्ष्मी मिलती है और धर्म-प्रभावनाका प्रसंग आता है वहाँ तू हाथ खींच लेता है, तो तेरे प्रेमकी दिशा धर्मकी तरफ नहीं परन्तु संसार तरफ है । धर्मके वास्तविक प्रेमवाला धर्मप्रसंगमें छिपता नहीं । भाई, लक्ष्मीकी ममता तो तुझे केवल पापबन्धका कारण है: स्त्री-पुत्रके लिये या शरीरके लिये तू जो लक्ष्मी खर्च करेगा वह तो तुझे मात्र पापबन्धका ही कारण होगी । और वीतरागी देव-गुरु-धर्म-शास्त्र- जिनमंदिर आदिमें जो तेरी लक्ष्मीका सदुपयोग करेगा वह पुण्यका कारण होगी और उसमें तेरे धर्मके संस्कार भी दृढ़ होंगे । इसलिये संसारके निमित्त और धर्मके निमित्त इन दोनोंका विवेक कर । धर्मात्मा rreesो तो सहज ही यह विवेक होता है और उसे सुपात्रदानका भाव होता है । जैसे रिश्तेदारको प्रेमसे आदरसे जिमाता है उसी प्रकार, सच्चा सम्बन्ध साधसे है । साधर्मी - धर्मात्माओंको प्रेमसे- बहुमानसे घर बुलाकर जिमाता है, ऐसे दानके भावको संसारसे तिरनेका कारण कहा, क्योंकि मुनिके या धर्मात्माके अन्तर के ज्ञानादिकी पहचान वह संसारसे निरनेका सेतु होता है। सच्ची पहचानपूर्वक दानकी यह बात है । सम्यग्दर्शन बिना अकेले दानके शुभपरिणामले भवका अन्त हो जाय -पैसा नहीं बनता । यहाँ तो सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रावकको दानके भाव होते हैं इसकी मुख्यता है । अब इस दान के चार प्रकार हैं-आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान और अभयदान -इनका वर्णन करते हैं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म-प्रकाश ] E **1 *[ ८ ]************ आहारदानका वर्णन ********** *********** चैतन्यकी मस्ती में मस्त मुनिको देखते गृहस्थको ऐसा भाव आचे कि अहो, रत्नत्रयको साधने वाले इस संतको शरीरकी अनुकूलता रहे ऐसा आहार - औषध देऊँ जिससे वह रत्नत्रयको निर्विघ्न साधे | इसमें इसे मोक्षमार्गका बहुमान है कि अहो ! धन्य ये सन्त और धन्य आजका दिन कि मेरे आँगन में मोक्षमार्गी मुनिराजके चरण पड़े... आज तो मेरे आंगन में मोक्षमार्ग साक्षात् आया...वाह, धन्य ऐसा मोक्षमार्ग ! ऐसे मोक्षमार्गी मुनिको देखते हा श्रावकका हृदय बहुमानसे उछल जाता है। जिसे धर्मी प्रति भक्ति नहीं, आदर नहीं उसे धर्मका प्रेम नहीं । 000 धर्मी श्रावकको आहारदानके कैसे भाव होते हैं वह यहाँ बताते हैंसर्वो वान्छति सौख्यमेव तनुभृत् तन्मोक्ष एव स्फुटं दृष्टयादित्रय एव सिध्यति स तन्निर्ग्रन्थ एव स्थितम् । तद्भृतिर्वपुषोऽस्य वृत्तिरशनात् नहीयते श्रावकैः काले क्लिष्टतरेsपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते ॥ ८ ॥ [ 44 सर्व जीव सुख चाहते हैं; वह सुख प्रगटरूपसे मोक्ष में हैं; उस मोझकी सिद्धि सम्यक दर्शनादि रत्नत्रय द्वारा हातां है: रत्नत्रय निर्व्रन्थ-दिगम्बर साधुको होता साधुकी स्थिति शरीरके निमित्तसे होती है, और शरीरको स्थिति भोजनके निमित्तसे होती है; और भोजन धावकों द्वारा देनेमें आता है। इस प्रकार इस अतिशय क्लिष्ट कामें श्री मोक्षमार्गको प्रवृत्ति "प्रायः " श्रावकों के निमित्तसे हो रही है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश ___ व्यवहारका कथन है इसलिये प्रायः शब्द रखा है; निश्चयसे तो आत्माके शुद्ध भावके आश्रयसे ही मोक्षमार्ग टिका हुआ है, और उस भूमिकामें यथाजात. रूपधर निर्ग्रन्थ शरीर, आहार आदि बाह्य निमित्त होते हैं अर्थात् दानके उपदेशमें प्रायः इसके द्वारा ही मोक्षमार्ग प्रवर्तता है-ऐसा निमित्तसे कहा जाता है । वास्तवमें कोई आहारसे या शरीरसे मोक्षमार्ग टिकता है-ऐसा नहीं बताना है। अरे, मोक्षमार्गके टिकनेमें जहाँ महावत आदिके शुभरागका सहारा नहीं वहाँ शरीरकी और आहारकी क्या बात? इसके आधारसे मोक्षमार्ग कहना यह तो सब निमित्तका कथन है। यहाँ तो आहारदान देने में धर्मी जीव-श्रावकका ध्येय कहाँ है? वह बताना है। दान आदिके शुभभावके समय ही धर्मी गृहस्थको अन्तरमें मोक्षमार्गका यहुमान है; पुण्यका बहुमान नहीं, बाह्यक्रियाका कर्तव्य नहीं, परन्तु मोक्षमार्गका ही बहुमान है कि अहो, धन्य ये सन्त ! धन्य आजका दिन कि मेरे आँगनमें मोक्षमार्गी मुनिराजके चरण पड़े ! आज तो जीना-जागता मोक्षमार्ग मेरे माँगनमें आया ! अहो, धन्य यह मोक्षमार्ग ! ऐसे मोक्षमार्गी मुनिको देखते ही श्रावकका हृदय बहुमानसे उछल उठता है, मुनिके प्रति उसे अत्यन्त भक्ति और प्रमोद उत्पन्न होता है । "साचुं रे सगपण साधर्मीतj"-अन्य लौकिक सम्बन्ध अपेक्षा इसे धर्मात्माके प्रति विशेष उल्लास आता है। मोही जीवको स्त्री-पुत्र-भाई बहन आदिके प्रति प्रेमरूप भक्ति आती है वह तो पापभक्ति है; धर्मी जीवको देव-गुरु-धर्मात्माके प्रति परम प्रीतिरूप भक्ति उछल उठती है वह पुण्यका कारण है, और उसमें वीतरागविज्ञानमय धर्मके प्रेमका पोषण होता है। जिसे धर्मीके प्रति भक्ति नहीं होती उसे धर्मके प्रति भी भक्ति नहीं, क्योंकि धकि बिना धर्म नहीं होता । जिसे धर्मका प्रेम हो उसे धर्मात्माके प्रति उल्लास आये बिना नहीं रहता। सीताजीके बिरहमें रामचन्द्रजीकी चेष्टा साधारण लोगोंको तो पागल जैसी लगे, परन्तु उनका अन्तरंग कुछ जुदा ही था । अहो, सीता मेरी सहधर्मिणी ! उसके हदयमें धर्मका वास है, उसे आत्मज्ञान वर्त रहा है। वह कहाँ होगी ? उस जंगलमें उसका क्या हुआ होगा? इसप्रकार साधर्मीपनेके कारण रामचन्द्रजीको सीताके हरणसे विशेष दुःख आया था। अरे, वह धर्मात्मा देव-गुरुकी परम भक्त, उसे मेरा वियोग हुआ, मुझे ऐसी धर्मात्मा-साधर्मीका विछोह हुआ,-ऐसे धर्मकी प्रधानताका विरह है। परन्तु बानीके हृदयको संयोगकी ओरसे देखने वाले मूढ़ जीव परख नहीं सकते । . . धर्मी-श्रावक अन्य धर्मात्माको देखकर आनन्दित होता है और बहुमानसे आहारदान आदिका भाव आता है, उसका यह वर्णन चल रहा है । मुनिको तो Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावधर्म-प्रकाश] कोई शरीर पर राग नहीं, वे तो चैतन्यकी साधनामें लीन है। और जब कभी देशी स्थिरताके लिये आहारकी वृत्ति उठती है तब आहारके लिये नगरीमें पधारते है। ऐसे मुनिको देखते गृहस्थको ऐसे भाव आते हैं कि महो ! रत्नत्रयको साधनेवाले इन मुनिको शरीरकी अनुकूलता रहे ऐसा आहार-औषध देऊँ जिससे ये रत्नत्रयको निर्विघ्न साधे । इस प्रकार व्यवहारसे शरीरको धर्मका साधन कहा है और उस शरीरका निमित्त अन्न है। इसलिये वास्तव में तो आहारदान देनेके पीछे गृहस्थकी भावना परम्परासे रत्नत्रयके पोषणकी ही है, उसका लक्ष्य रत्नत्रय पर है. और वह भक्तिके साथ अपनी आत्मामें रत्नत्रयकी भावना पुष्ट करता है। श्रीराम और सीताजी जैसे भी परमभक्तिसे मुनियोंको आहार देते थे। - मुनियोंके आहारकी विशेषविधि है। मुनि जहां-तहाँ आहार नहीं करते । वे जैनधर्मकी श्रद्धावाले श्रावकके यही ही, नवधाभक्ति आदि विधिपूर्वक आहार करते हैं। श्रावकके यहाँ भी बुलाये बिना (- भक्तिसे पड़गाहन-निमंत्रण किये बिना) मुनि आहारके लिये पधारते नहीं। और पीछे श्रावक अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक नौ प्रकार भक्तिसे निर्दोष आहार मुनिके हाथमें देते हैं । (१-प्रतिग्रहण अर्थात् आदरपूर्षक निमंत्रण, २-उच्च आसन, ३-पाद-प्रक्षालन, ४-पूजन-स्तुति, ५-प्रणाम, ५-मनशुद्धि, ७-वचनशुद्धि, ८-कायशुद्धि और ९-आहारशुद्धि-ऐसी नषधाभक्तिपूर्वक भावक माहारदान दे।) जिस दिन मुनिके आहारदानका प्रसंग अपने आँगनमें हो उस दिन उर्स श्रीवकके आनन्दका पार नहीं होता। श्रीराम और सीता जैसे भी जंगल में मुनिको भक्तिसे आहारदान करते हैं उस समय एक गृद्धपक्षी (-जटायु) भी उसे देखकर उसको अनुमोदना करता है और उसे जातिस्मरणहान होता है। श्रेयांसकुमारने जब ऋषभमुनिको प्रथम आहारदान दिया तब भरत चक्रवर्ती उसे धन्यवाद देने उसके घर गये थे । यहाँ मुनिकी उत्कृष्ट बात ली, उसी प्रकार अन्य साधर्मी धावक धर्मात्माके प्रति भी आहारदान आदिका भाव धर्मीको होता है। ऐसे शुभभाव भावककी भूमिकामें होते हैं इसलिये उसे श्रावकका धर्म कहा है, तो भी उसकी मर्यादा कितनी?-कि पुण्यबन्ध हो इतनी, इससे अधिक नहीं। दानकी महिमाका वर्णन करते हुए उपवारसे ऐसा भी कहा है कि मुनिको माहारदान श्रावकको मोलका कारण है, वहाँ वास्तवमें तो श्रावकको उस समयमें जो पूर्णताके लक्ष्यसे सम्यकथद्धा-भान वर्तता है वही मोनका कारण है, राग कहीं मोक्षका पारण नहीं, ऐसा समझना । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] [ भावकधर्म-प्रकाश सब जीवोंको सुख चाहिये। पूर्ण सुख मोक्षदशामें है। 8 मोक्षका कारण सम्यग्दर्शन-बान-चारित्र है। * यह रत्नत्रय निग्रंथ मुनिको होता है। * मुनिका शरीर आहारादिके निमित्तसे टिकता है। * आहारका निमित्त गृहस्थ-श्रावक है। * इसलिये परम्परासे गृहस्थ मोक्षमार्गका कारण है। जिस भावकने मुनिको भक्तिसे आहारदान दिया उसने मोक्षमार्ग टिकाया ऐसा परम्परा निमित्त अपेक्षा कहा है। परन्तु इसमें आहार लेनेवाला और देनेवाला दोनों सम्यग्दर्शन सहित हैं, दोनोंको रागका निषेध और पूर्ण विज्ञानघन स्वभाषका आदर वर्तता है । आहारदान देनेवालेको भी सत्पात्र और कुपात्रका विवेक है। चाहे जैसे मिथ्यारष्टि अन्यलिंगीको गुरु मानकर आदर करे उसमें मिथ्यात्वकी पुष्टि होती है। धर्मी श्रावकको तो मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिका प्रेम है। सुख तो मोक्षदशामें है ऐसा उसने जाना है इसलिये उसे अन्य कहीं सुखबुद्धि नहीं । रत्नत्रयधारी दिगम्बर मुनि ऐसे मोक्षसुखको साध रहे हैं, इससे मोक्षाभिलाषी जीवको ऐसे मोक्षसाधक मुनिके प्रति परम उल्लास, भक्ति और अनुमोदना आती है। वहाँ आहारदान आदि. के प्रसंग सहज ही बन जाते हैं। देखो, यहाँ तो श्रावक भी ऐसा है कि जिसे मोक्षदशामें ही सुख भासित हुआ है, संसारमें अर्थात् पुण्यमें-रागमें-संयोगमें कहीं सुख भासता नहीं । जिसे पुण्यमें मिठास लगे, रागमें सुख लगे, उसे मोक्षके अतीन्द्रिय सुखकी प्रतीति नहीं, और मोक्षमार्गी मुनिवरके प्रति..उसे सच्ची भक्ति उल्लसित नहीं होती । मोक्षसुख तो रागरहित है इसे पहचाने बिना, रागको सुखका कारण माने उसे मोक्षकी अथवा मोक्षमार्गी संतोंकी पहचान नहीं। और पहचान बिनाकी भक्तिको सभी भक्ति नहीं कही जाती। मुनिको आहारदान देनेवाले श्रावकका लक्ष्य मोक्षमार्ग पर है कि महो ! मे धर्मात्मा मुनिराज मोक्षमार्गको साध रहे हैं। वह इस मोक्षमार्गके बहुमानसे और उसकी पुटिकी भावनासे माहारदान देता है इससे उसे मोक्षमार्ग टिकानेकी भावना है और अपने में भी वैसा ही मोक्षमार्ग प्रगट करनेकी भावना है, इसलिये कहा है कि माहारदान देनेवाले भावक द्वारा मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति होती है । जैसे बहुत बार संघ जिमाने वालेको ऐसी भावना होती है कि इसमें कोई जीव बाकी Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीषकधर्म-प्रकाश ] Lue नहीं रहना चाहिये; क्योंकि इसमें कदाचित् कोई जीव तीर्थकर होने वाला हो तो ! इसप्रकार जिमानेमें उसे अव्यक्तरूपसे तीर्थकर आदिके बहुमानका भाव है । उसीप्रकार यहाँ मुनिको आहार देने वाले श्रावककी दृष्टि मोक्षमार्ग पर है, आहार देऊँ और पुण्य बँधे इस पर उसका लक्ष्य नहीं। इसका एक दृष्टान्त आता है कि कोईने भक्तिसे एक मुनिराजको आहारदान दिया और उसके आँगनमें रत्नवृष्टि हुई, दूसरा कोई लोभी मनुष्य ऐसा विचारने लगा कि मैं भी इन मुनिराजको आहारदान हूँ जिससे मेरे घर रत्नोंकी वृष्टि होगी। देखो, इस भावनामें तो लोभका पोषण है। श्रावकको ऐसी भावना नहीं होती; श्रावकको तो मोक्षमार्गके पोषणकी भावना होती है कि अहो ! चैतन्यके अनुभवसे जैसा मोक्षमार्ग ये मुनिराज साध रहे हैं वैसा मोक्षमार्ग में भी सार्धं; ऐसी मोक्षमार्गको प्रवृत्तिकी भावना उसे वर्तती है। इसलिये इस क्लिष्ट कालमें भी प्रायः ऐसे श्रावकों द्वारा मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति है-ऐसा कहा है। अन्दर में शुद्धदृष्टि तो है, रागसे पृथक् चैतन्यका वेदन हुआ है, वहाँ भावकको ऐसे शुभभाव आयें उसके फलसे वह मोक्षफलको साधता है ऐसा भी उपचारसे कहा जाता है, परन्तु वास्तवमें उस समय अंतर में जो रागसे परे दृष्टि पड़ी है वही मोक्षको साध रही है । (प्रवचनसार गाथा २५४ में भी इसी अपेक्षा बात की है। ) अन्तर्दृष्टिको समझे बिना मात्र रागसे वास्तविक मोक्षप्राप्ति मान ले तो उसे शास्त्रके अर्थकी अथवा संतोंके हृदयकी खबर नहीं, मोक्षमार्गका स्वरूप वह नहीं जानता । यह अधिकार ही व्यवहारकी मुख्यतासे है, इसलिये इसमें तो व्यवहार-कथन होगा; अन्तर्दृष्टिका परमार्थ लक्ष्यमें रखकर समझना चाहिये । एक ओर जोरशोरसे भार देकर ऐसा कहा जाता है कि भूतार्थस्वभावके माभयसे ही धर्म होता है, और यहाँ कहा कि आहारके या शरीरके निमित्तले धर्म टिकता है, तो भी उसमें कोई परस्पर विरोध नहीं, क्योंकि पहला परमार्थकथन है और दूसरा उपचारकथन है। मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति प्रायः गृहस्थ द्वारा दिये हुये दानले चलती है, इसमें प्रायः शब्द यह सूचित करता है कि यह नियमरूप नहीं, जहाँ शुद्धात्माके आश्रयसे मोक्षमार्ग टिके वहाँ आहारादिको निमित्त कहा जाता है, इसलिये यह तो उपचार ही हुआ । शुद्धात्माके आश्रयसे मोक्षमार्ग टिकता है - यह नियमकप सिद्धान्त है, इसके बिना मोक्षमार्ग हो नहीं सकता । सुख अर्थात् मोक्षः आत्माकी मोक्षदशा यही सुन है, इसके अलावा मकानमें, पैसेमें, लीमें, रागमें, कहीं सुख नहीं, धर्मीको आत्मा सिवाय कहीं सुखबुद्धि नहीं । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैतन्यके बाहर किसी प्रवृत्तिमें कहीं सुख है ही नहीं। मात्माके मुक स्वमायक अनुभवमें सुख है। सम्यग्दृष्टिने ऐसी भात्माका निश्चय किया है, उसके सुखका स्वाद वखा है। और जो उम्र अनुभव द्वारा मोक्षको साक्षात् साध रहे हैं ऐसे मुनिके प्रति अत्यन्त उल्लाससे और भक्तिसे बह आहारदान देता है। आनन्दस्वरूप प्रात्मामें श्रद्धा-भान-स्थिरता मोक्षका कारण है और बीचके प्रतादि शुभपरिणाम पुण्यबन्धके कारण हैं। आत्माके आनन्दसागरको उछालकर उसमें जो मग्न हैं ऐसे नममुनि रत्नत्रयको साध रहे हैं, उसके निमित्तरूप देह है और देहके टिकानेका कारण आहार है, इसलिये जिसने भक्तिसे मुनिको आहार दिया उसने मोक्षमार्ग दिया, अर्थात् उसके भाषमें मोक्षमार्ग टिकानेका आदर हुआ। इस प्रका भक्तिसे आहारदान देने वाला धावक इस दुःषमकालमें मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिका कारण है । ऐसा समझकर धर्मात्मा श्रावकको मुनि आदि सत्पात्रको रोज भक्तिसे दान देना चाहिये। अहो, मेरे घर कोई धर्मात्मा संत पधारें, शान-ध्यानमें अतीन्द्रिय आनन्दका भोजन करनेवाले कोई संत मेरे घर पधारें, तो भक्तिसे उन्हें भोजन कराकर पीछे मैं भोजन करूँ। ऐसा भाव गृहस्थ-श्रावकको रोज-रोज आता है। ऋषभदेवक जीवने पूर्षके आठवें भवमें मुनिवरोंको परमभक्तिसे आहारदान दिया था, और तिर्यचोंने भी उसका अनुमोदन करके उत्तमफल प्राप्त किया था, यह बात पुराणोंमें प्रसिब है। श्रेयांसकुमारने आदिनाथ मुनिराजको आहारदान दिया था, चन्दना सतीने महाधीर मुनिराजको आहारदान दिया। ये सब प्रसंग प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार चार प्रकारके दानमेंसे आहारदानकी चर्चा की, अब दूसरे औषधिदानका उपदेश देते हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६१ पाप-प्रकाश ne.................[ ९ ]..................... औषधिदानका वर्णन .. ... .. ... .. . .. . . . देखिये, यहाँ दानमें सामने सत्पात्ररूप मुख्यतः मुनिको लिया 8 है, अर्थात् धर्मके लक्ष्यपूर्वक दानकी इसमें मुख्यता है। दान करने वालेकी दृष्टि मोक्षमार्ग पर लगी है। शुद्धोपयोग द्वारा केवलज्ञानके कपाट खोल रहे मुनिवर देहके प्रति निर्मम होते हैं। परन्तु भावक भक्तिपूर्वक ध्यान रखकर निर्दोष आहारके साथ निर्दोप औषधि भी देता है। मुनिको तो चैतन्यके अन्दर अमृतसागरमेंसे आनन्दकी लहरें उछली हैं, इन्हें ठंडी-गर्मीका अथवा देहको रक्षाका लक्ष्य Sssssssssssss श्रावक मुनि आदिको औषधदान देवे-यह कहते हैं स्वेच्छाहारविहार जल्पनतया नीवपुर्जायते साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण संभाव्यते । कुर्यादौपधपथ्यवारिभिरिदं चारित्र भारक्षमं यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मो गृहस्थोत्तमात् ।। ९ ॥ इच्छानुसार आहार-विहार और सम्माषण द्वारा शरीर निरोग रहता है, परन्तु मुनियोंको तो इच्छानुसार भोजनादि नहीं होता इसलिये उनका शरीर प्रायः मशक ही रहता है । परन्तु उत्तम गृहस्थ योग्य औषधि तथा पथ्य भोजन-पानी द्वारा मुनियों के शरीरको चारित्रपालन हेतु समर्थ बनाता है । इस प्रकार मुनिधर्मकी प्रवृत्ति उत्तम प्रावक द्वारा होती हैं । अतः धर्मी गृहस्थोंको ऐसे दानधर्मका' पालन करना चाहिये। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भाषकर्म-प्रकार जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक शुद्धोपयोग द्वारा केवलज्ञानके कपाट खोल रहे हैं ऐसे मुनिराज शरीरसे भी अत्यन्त उदासीन होते हैं, वे वन-जंगलमें रहते हैं, ठंडमें ओढ़ना अथवा गर्मी में स्नान करना उन्हें नहीं होता, रोगादि होवे तो भी औषधि नहीं लेते, दिनमें एक बार आहार लेते हैं, उसमें भी कोई बार ठंडा माहार मिलता है, कोई समय भरगर्मीमें गरम आहार मिलता है, इस प्रकार इच्छानुसार उनको आहार नहीं मिलता, अतः मुनिको कई बार रोग-निर्बलता मादि हो जाती है, परन्तु ऐसे प्रसंगमें धर्मात्मा उत्तम श्रावक मुनिका ध्यान रखते हैं, उनको रोग वगैरह हुआ हो तो उसे जानकर, आहारके समय आहारके साथ निर्दोष औषधि भी देते हैं, तथा ऋतु अनुसार योग्य आहार देते हैं । इस प्रकार भक्तिपूर्वक भाषक मुनिका ध्यान रखते हैं । यहाँ उत्कृष्टरूपसे मुनिकी बात ली है। इससे यह न समझना कि मुनिको छोड़कर अन्य जीवोंको आहार अथवा औषधदान देनेका निषेध है। श्रावक अन्य जीवोंको भी उनकी भूमिकाके योग्य आदरसे अथवा करणाबुद्धिसे योग्य दान देवे। परन्तु धर्मप्रसंगकी मुख्यता है, वहाँ धर्मात्माको देखते ही विशेष उल्लास आता है। मुनि उत्तम पात्र है इस कारण उसकी मुख्यता है। अहो, मुनिदशा क्या है-उसकी जगतको खबर नहीं। छोटा-सा राजकुमार हो और मुनि होकर चैतन्यको साधता हो, चैतन्यके अतीन्द्रिय आनन्दका प्रचुर स्वसंवेदन जिसको प्रगट हुआ हो ऐसा मुनि देहसे तो अत्यन्त उदासीन हैं। सर्व भावयी औदासिन्य वृत्ति करी, मात्र देह ते संयम हेतु होय जो । चाहे जितनी ठंड हो परन्तु देह सिवाय अन्य परिग्रह जिसे नहीं; बाह्यरष्टिवाले जीवोंको लगता है कि ऐसा मुनि बहुत दुःखी होगा। अरे भाई, उनके अन्तरमें तो आनन्दकी धारायें बहती हैं, कि जिस आनन्दकी कल्पना भी तुझे नहीं आ सकती। बैतन्यके इस आनन्दकी अभिलाषामें ठंड-गर्मीका लक्ष्य ही कहाँ है ? जिस प्रकार मध्यविन्दुसे सागर उछलता है उसी प्रकार चैतन्यके अन्तरके मध्यमेंसे मुनिको मानन्दकी लहरें उछलती है । ऐसे मुनिको रोगादि होवे तो भक्तिपूर्वक ध्यान रखकर उत्तम गृहस्थ पथ्य आहारके साथ योग्य औषधि भी देते है इसका नाम साधु वैयावृत्य है, वह गुरुभक्तिका एक प्रकार है। श्रावकके कर्तव्यमें पहले देवपूजा कही और दूसरी गुरु-उपासना कही, उसमें इस प्रकारके भाव भावकको होते हैं। मुनि स्वयं तो बोलते नहीं कि मुझे ऐसा रोग हुआ है, अतः ऐसी खुराक अथवा ऐसी दवा दो, परन्तु भक्तिवान भाषक इसका ध्यान रखता है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर्म-प्रकाश ] [ ६३ देखिये ! इसमें मात्र शुभरागकी बात नहीं, परन्तु सर्वज्ञकी भद्धा और सम्यग्दर्शन कैसे हो वह पहले बताया गया है, ऐसी श्रद्धापूर्वक भावकधर्मकी यह बात है । जहाँ श्रद्धा ही सच्ची नहीं और कुदेव, कुगुरुका सेवन होता है वहाँ तो श्रावकधर्म नहीं होता । श्रावकको मुनि आदि धर्मात्माके प्रति कैसा प्रेम होता है वह यहाँ बताना है । जिस प्रकार अपने शरीरमें रोगादि होने पर दक्षा करवानेका राग होता है, तो मुनि इत्यादि धर्मात्माके प्रति भी धर्मीको वात्सल्यभावसे औषधिदानका भाव आता है। गृहस्थ प्यारे पुत्रको रोगादि होने पर उसका कैसे ध्यान रखता है ! तो धर्मको तो सबसे प्रिय मुनि आदि धर्मात्मा हैं, उनके प्रति उसे आहारदान - औषधिदान शास्त्रदान इत्यादिका भाव आये बिना रहता नहीं । यहाँ कोई दवासे शरीर अच्छा रहता है अथवा शरीरसे धर्म टिकता है-ऐसा सिद्धान्त नहीं स्थापना है, परन्तु धर्मीको राग किस प्रकारका होता है वह बताना है। जिसे धर्मकी अपेक्षा संसारकी तरफका प्रेम अधिक रहे वह धर्मी कैसा ? संसारमें जीव स्त्री-पुत्र आदिकी वर्षगांठ लग्न-प्रसंग आदिके बहाने रागकी पुष्टि करता है, वहाँ तो अशुभभाव है तो भी पुष्टि करता है, तो धर्मका जिसे रंग है वह धर्मी जीव भगवानके जन्मकल्याणक, मोक्षकल्याणक, कोई यात्रा - प्रसंग, भक्तिप्रसंग, ज्ञान-प्रसंग - मादिके बहाने धर्मका उत्साह व्यक्त करता है। शुभके अनेक प्रकारोंमें औषधिदानका भी प्रकार श्रावकको होता है, उसकी बात की । अब तीसरा ज्ञानदान है उसका वर्णन करते हैं। GEEEEEEEE हे भावक ! हो और स्वभावसुखका यह भवदुःख तुझे प्रिय न लगता अनुभव तू चाहता हो, तो तेरे प्रगट ध्येयको दिशा पलट दे; जगत् से उदास होकर अन्तरमें चैतन्यको ध्यानेसे तुझे परम आनन्द होगा और भवकी लता क्षणमें टूट जावेगी । आनन्दकारी परमभाराभ्य चैतन्यदेव तेरेमें ही विराज रहा है । BEREFBAGE Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ [भावक-प्रकार ........ [१०] ....... ज्ञानदान अथवा शास्त्रदानका वर्णन ...2222222 **** ****** · कुन्दकुन्दाचार्यके जीवने पूर्वमें ग्वालेके भवमें भक्तिपूर्वक मुनिको शाख दिया था-वह उदाहरण शास्त्रदानके लिये प्रसिद्ध है। देखो, इस शानदानकी बड़ी महिमा है ! जिसने सच्चे शास्त्रकी पहचान करली है और स्वयं सम्यग्ज्ञान प्रगट किया है उसे ऐसा भाव आता है कि अहो, ऐसी जिनवाणी और ऐसी गुरुवाणीका जगतमें प्रचार हो और जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करके अपना हित करें । शानके बहुमानपूर्वक शास्त्रदान द्वारा ज्ञानका बहुत श्योपशममाव प्रगट होता है। मानदानकी महिमा और उसका महान फल केवलशान बताते हैंव्याख्या पुस्तकदानमुअत्तधियां पाठाय भव्यात्मनां भक्त्या यक्रियते श्रताश्रयमिदं दानं तदाहुर्बुधाः । सिदेस्मिन् जननान्तरेषु कतिषु त्रैलोक्य-लोकोत्सवः भोकारिप्रकटीकताखिल जगत् कैवल्पभाजो जनाः ॥ १० ॥ सर्पक्षदेवके कहे हुए शास्त्रोंका भक्तिपूर्वक व्याख्यान करना तथा विद्याल खुशिवाले जीवोंको स्वाध्यायहेतु पुस्तक देना उसे शानीजन शालान. या शानदान कहते हैं। ऐसे शानदानका फल क्या? तो कहते हैं कि ऐसे शानदान द्वारा भव्य जीप थोड़े ही भवोंमें, तीन लोकको मानन्दकारी तथा कल्याणकारी अर्थात् समवसरका Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रावकधर्म-प्रकाश ] आदि लक्ष्मीको करनेवाली, और लोकके समस्त पदार्थोंको हस्तरेखा समान देखनेवाली ऐसी केवलज्ञानज्योति प्राप्त करता है। अर्थात् तीर्थकर-पद सहित केवलज्ञानको प्राप्त करता है। शानकी आराधनाका जो भाव है उसके फलमें केवलज्ञान प्राप्त होता है और बीवमें शानके बहुमानका, धर्मीक बहुमानका जो शुभभाष है उससे तीर्थकर-पद आदि मिलता है। इसलिये अपने हितको चाहनेवाले भाषकको हमेशा ज्ञानदान करना चाहिये। देखो, इस शानदानकी महिमा ! सच्चे शाल कौन है उसकी जिसने पहचान की है और स्वयं सम्यग्ज्ञान प्रगट किया है उसे ऐसा भाष भाता है कि अहो, ऐसी जिनवाणीका जगत्में प्रचार हो, और जीव सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके अपना हित करें। ऐसी शान-प्रचारको भावनापूर्षक स्वयं शास्त्र लिखे, लिखावे, पदे, प्रसिद्ध करे, लोगोंको सरलतासे शास्त्र मिलें-ऐसा करे, ऐसे शानदानका भाव धर्मी जीयको भाता है, धर्म-जिज्ञासुको भी ऐसा भाव आता है। शानदानमें स्वयंके शानका बहुमान पुष्ट होता है। यहाँ किसी सम्यग्दृष्टि जीवको ऐसा ऊँचा पुण्य बँधता है कि वह तीर्थकर होता है, और समवशरणमें दिव्यध्वनि खिरती है, उस दिव्यध्वनिको झेलकर बहुतसे जीव धर्म प्राप्त करते हैं। " अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग" अर्थात् शानके तीव्र रससे बारम्बार उसमें उपयोग लगामा उसे भी तीर्थकर-प्रकृतिका कारण कहा है। परन्तु ऐसे भाव वास्तवमें किसे होते हैं? ज्ञानस्वरूप आत्माको जानकर जिसने सम्यग्दर्शन प्रगट किया हो अर्थात् स्वयं धर्म प्राप्त किया हो उसे ही शानदान या अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग यथार्थरूपसे होता है। सचा मार्ग जिसने जान लिया है ऐसे श्रावकके धर्मकी यह बात है। सम्यग्दर्शन बिना तो व्रत-दान आदि शुभ करते हुए भी वह अनादिसे संसारमें परिभ्रमण कर रहा है। यहाँ तो मेदज्ञान प्रगट कर जो मोक्षमार्गमें आरूढ़ है ऐसे जीवकी बात है। जिसने स्वयं ही शान नहीं पाया वह अन्यको शानदान क्या करेगा ? जानके निर्णय बिना शास्त्र आदिके बहुमानसे पुस्तक आदिका दान करे उसमें मोक्षमार्गरहित पुण्य बँधता है, परन्तु यहाँ श्रावक-धर्ममें तो मोक्षमार्ग सहित दानादिकी प्रधानता है; इसलिये सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति तो प्रथम करनी चाहिये, उसके बिना मोक्षमार्ग नहीं होता । शानदान-शास्त्रदान करनेवाले श्रावकको सत्शाल और कुशालके बीच विवेक है। सर्वज्ञकी वाणी झेलकर गणधरादि मन्तों द्वारा रचे हुए वीतरागी शास्त्रोंको पहचानकर उनका दान और प्रचार करे; परन्तु मिथ्याष्टियोंके रचे हुए, तत्त्वविरुद्ध, कुमार्गका पोषण करनेवाले ऐसे कुशालोंको वह नहीं Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश माने, उनका दान या प्रचार नहीं करे । अनेकान्तमय सत्शास्त्रको पहचानकर उनका ही दानादि करे । संयोगकी और अशुद्धताको रुचि छोड़कर, अपने चिदानन्दस्वभावकी दृष्टिरुचि-प्रीति करना वह सम्यग्दर्शन है, वह धर्मकी पहली वस्तु है, उसके बिना पुण्य बंधता है परन्तु कल्याण नहीं होता, मोक्षमार्ग नहीं होता। पुण्यकी रुचिमें रुका, पुण्यके विकल्पमें कर्तृत्वबुद्धिसे तन्मय होकर रुका उसे पुण्यके साथ-साथ मिथ्यात्वका पाप भी बैंधता है। पंडित श्री टोडरमलजी मोक्षमार्ग प्रकाशकके छठे अध्यायमें कहते हैं कि-"जैनधर्ममें तो ऐसी आम्नाय है कि पहले बड़ा पाप छुड़ाकर पोछे छोटा पाप छुड़ानेमें आता है। इसलिये इस मिथ्यात्वको सान व्यसनादिसे भी महान पाप जानकर पहले छुड़ाया है। इसलिये जो पापके फलसे डरता हो, और निजके आत्माको दुःखसमुद्र में हुबाना न चाहता हो वह जीव इस मिथ्यात्व-पापको अवश्य छोडे । निन्दा-प्रशंसा आदिके विचारसे भो शिथिल होना योग्य नहीं।" ___ कोई कहे कि सम्यक्त्व तो बहुत ऊँची भूमिकामें होता है, पहले तो बत-संयम होना चाहिये, तो उसे जिनमतके क्रमकी खबर नहीं। “जिनमतमें तो ऐसी परिपाटी है कि पहले सम्यक्त्व हो, पीछे व्रत हो।” (मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ट २९.५) "मुनिपद लेनेका क्रम तो यह है कि पहले तत्त्वज्ञान हो, पीछे उदासीन परिणाम हो, परीषहादि सहन करने की शक्ति हो और वह स्वयंकी प्रेरणासे ही मुनि होना चाहे, तब श्रीगुरु उसे मुनिधर्म अंगीकार करावें । परन्तु यह तो किस प्रकारकी विपरीतता है कि तत्त्वज्ञानरहित और विषयासक्त जीवको माया द्वारा अथवा लोभ बताकर मुनिपर देकर, पीछेसे अन्यथा प्रवृत्ति करानी! यह तो बड़ा अन्याय है।"-दो सौ वर्ष पूर्व पंडित टोडरमलजीका यह कथन है। बन्धके पाँच कारणों में मिथ्यात्व सबसे मुख्य कारण है। मिथ्यात्व छोड़े बिना अव्रत अथवा कषाय आदि नहीं छूटते । मिथ्यात्व छूटते ही अनन्त बम्धन एक क्षणमें टूट जाते हैं। जिसे अभी मिथ्यात्व छोड़ने की तो इच्छा नहीं उसे अवत कहाँसे छुटेंगे? और व्रत कहाँसे आवेंगे? आत्मा क्या है उसकी जिसे खबर नहीं यह किसमें स्थिर रहकर व्रत करेगा ? चिदानन्द स्वरूपका अनुगव होनेके पश्चात् उसमें कुछ विशेष स्थिरता करते हैं, तब दो कपायोंकी चौकड़ीके अभावरूप पंचमगुणस्थान प्रगट होता है और उसे सच्चे व्रत होते हैं। ऐसे भाषकधर्मके उद्योतका यह अधिकार है। सम्यग्दर्शन बिना पलेश (आनन्द नहीं पर क्लेश) सहन करके मर जाय तो भी भष घटनेके नहीं। समयसार कलश टीका, पृष्ट १२६ में पंडित राजमलधी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावधर्म-प्रकाश कहते हैं कि-'शुभ क्रिया परम्परासे-आगे जाकर मोक्षका कारण होगी-ऐसा अक्षानीको भ्रम है। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह इनसे रहितपना, तथा महान परीषहोंका सहना; -इसके बड़े बोझसे, बहुत कालतक मरके चूरा होते हुए बहुत कष्ट करते हैं तो करो, परन्तु इसके द्वारा कर्मक्षय तो होता नहीं।' अबानीकी यह सब शुभक्रिया तो काष्टरूप है, दुःखरूप है, शुद्धम्वरूपके अनुभवकी तरह यह कोई सुखरूप नहीं, अनुभवका जो परम आनन्द है उसकी गंध भी शुभरागमें नहीं। ऐसे शुभरागको कोई मोक्षका कारण माने,-परम्परासे भी उस रागको मोक्षका कारण होना माने तो कहते हैं कि वह झूठा है, भ्रममें है । मोक्षका कारण यह नहीं: मोक्षका कारण तो शुद्धस्वरूपका अनुभव है। प्रश्नः-चौथे कालमें शुद्धस्वरूपका अनुभव मोक्षका कारण भले हो, परन्तु इस कठिन पंचमकालमें तो राग मोक्षका कारण होगा न ? उत्तरः-पंचम कालमें हुए मुनि पंचमकालके जावांका तो यह बात समझाते हैं। चौथे कालका धर्म जुदा और पंचमकालका धर्म जुदा-ऐसा नहीं है। धर्म अर्थात् मोक्षका मार्ग तीनों कालमें एक ही प्रकारका है। जब और जहाँ, जो कोई जीव मोक्ष प्राप्त करेगा वह गगको छोड़कर शुद्धम्वरूपके अनुभवसे ही प्राप्त करेगा । चाहे किसी भी क्षेत्रमें, कोई भी जीव गग द्वारा मोक्ष प्राप्त नहीं करता, यह नियम है। प्रथम जिसने मोक्षमार्गके ऐसे स्वरूपका निर्णय किया है और सम्यग्दर्शन द्वारा अपनेमें उसका अंश प्रगट किया है, उसे बादमें गगकी मंदताके कौनसे प्रकार होते हैं उनके कथनमें चार प्रकारके दानकी बात चल रही है । मुनि आदि धर्मात्माके प्रति भक्तिसे आहारदान-औषधिदानके पश्चात् शानदानका भी भाव भावकको आता है । उसे वीतरागी शास्त्रोंका बहुत विनय और बहुमान होता है। वीतरागी शानकी प्रभावना कैसे हो, बहुत जीयोंमें इसका प्रचार कैसे हो, इसके लिये वह अपनी शक्ति लगावे: इसमें अन्य जीव समझे या न समझे उसकी मुख्यता नहीं परन्तु धर्मीको अपने सम्यग्ज्ञानका बहुत प्रेम है उसकी मुख्यता है; अर्थात् अन्य जीव भी सचा तत्त्वज्ञान कैसे प्राप्त करें वैसी भावना धर्मीको होती है। सर्वशदेव द्वारा कहे गये शास्त्रोंका रहस्य स्वयं जानकर अन्यको उसे समझाना और भक्ति से उसका प्रचार करना वह शानदान है । अन्तरमें तो स्वयंने स्वयंको सम्यग्ज्ञानका दान दिया, और बाहामें अन्य जीव भी ऐसा मान प्राप्त करें और भव दुःबसे टें-पेसी भावना धर्मीको होती है। शास्त्रज्ञानके बहाने मम्मको Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश ६८ ] समझाने अथवा प्रचार करनेके बहाने अपनी मान-प्रतिष्ठा अथवा बड़प्पनकी भावना हो तो वह पाप है । धर्मीको ऐसी भावना नहीं होती । धर्मात्मा तो कहता है कि अरे, हमारी ज्ञानचेतनासे हमारा कार्य हमारी आत्मामें हो रहा है, वहाँ बाहर अन्यको बतानेका क्या काम है ! अन्य जीव जाने तो इसे संतोष हो ऐसा नहीं, इसे तो अन्तरमें आत्मासे ही सन्तोष है । 66 स्वयं एकाकी अन्तरमें अपनी आत्माका कल्याण कर ले वह बड़ा, अथवा बहुतसे जीवोंको समझावे वह बड़ा ? " - अरे भाई ! अन्य समझे कि न समझे उसके साथ इसको क्या सम्बन्ध ? कदाचित् अन्य बहुतसे जीव समझें तो भी उस कारणसे इसे जरा भी लाभ हुआ हो ऐसा नहीं; और धर्मीको कदाचित् वाणीका योग कम हो ( - मूक केवली भगवानकी तरह वाणीका योग न भी हो ) तो उससे कोई उसका अन्तरका लाभ रुक जावे ऐसा नहीं । बाह्यमें अन्य जीव समझे इस परसे धर्मोका जो माप करना चाहता है उसे धर्मीकी अन्तरदशाकी पहचान नहीं । यहाँ ज्ञानदानमें तो यह बात है कि स्वयंको ऐसा भाव होता है कि अन्य जीव भी सच्चे ज्ञानको प्राप्त हों, परन्तु अन्य जीव समझें या न समझें यह उनकी योग्यता पर है, उनके साथ इसे कोई लेना-देना नहीं । स्वयंको पहले अज्ञान था और महादुःख था, वह दूर होकर स्वयंको सम्यग्ज्ञान हुआ और अपूर्व सुख प्रगट हुआ अर्थात् स्वयंको सम्यग्ज्ञानकी महिमा भासी है, इससे अन्य जीव भी ऐसे सम्यग्ज्ञानको प्राप्त हों तो उनका दुःख मिटे और सुख प्रगटे - इस प्रकार धर्मीको अन्तर में ज्ञानकी प्रभावनाका भाव आता है और साथमें उसी समय अन्तरमें शुद्धात्माकी भावनाले ज्ञानकी प्रभावना - उत्कृष्ट भावना और वृद्धि अन्तरमें हो रही है। देखो, यह भावककी दशा ! ऐसी दशा हो तभी जैनका श्रावकपना कहलाता है, और मुनिदशा तो उसके पश्चात् होती है। उसने सर्वज्ञका और सर्वशकी वाणीका स्वयं निर्णय किया है। जिसे स्वयंको ही निर्णय नहीं वह सच्चे ज्ञानकी क्या प्रभावना करेगा ? यह तो अपने ज्ञानमें निर्णय सहित धर्मात्माकी बात है । और धर्मात्माको, विशेष बुद्धिमानको बहुमानपूर्वक शास्त्र देना वह भी ज्ञानदान है; शास्त्रोंका सचा अर्थ समझाना, प्रसिद्ध करना वह भी ज्ञानदानका मेद है। किसी साधारण मनुष्य को ज्ञानका विशेष प्रेम हो और उसे शास्त्र न मिलते हों तो धर्मी उसे प्रेमपूर्वक प्रबन्ध करके देवे। - ऐसा भाव धर्मीको आता है । अपने पास कोई शास्त्र हो और दूसरेके पास न हो वहाँ, अन्य पढ़ेगा तो मुझसे आगे बढ़ जावेगा अथवा मेरा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] समझना कम हो जावेगा-ऐसी ईर्षावश या मानवशः शाल पढ़नेको मांगे और वह न दे-ऐसे जीवको शानका सच्चा प्रेम नहीं और शुभ भावका भी ठिकाना नहीं। भाई, अन्य जीव शानमें आगे बढ़ता हो तो भले बढ़े, तुझे उसका अनुमोदन करना चाहिये। तुझे शानका प्रेम हो तो, अन्य भी ज्ञान प्राप्त करे इसमें अनुमोदन हो कि ईर्षा हो? अन्यके ज्ञानकी जो ईर्षा आती है तो तुझे शास्त्र पढ़-पढ़कर मानका पोषण करना है, तुझे ज्ञानका सच्चा प्रेम नहीं। ज्ञानके प्रेमीको अन्यके शानको ईर्षा नहीं होती परन्तु अनुमोदना होती है। एक जीव यहुत समयसे मुनि हो, दूसरा जीव पीछेसे अभी ही मुनि हुआ हो और शीघ्र केवलज्ञान प्राप्त करले. यहाँ पहले मुनिको ऐसी ईर्षा नहीं होती कि अरे, अभी तो आज ही दीक्षा ली और मुझसे पहले इसने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ! परन्तु उलटकर अनुमोदना आती है कि वाह ! धन्य है से कि इसने केवलज्ञान साध लिया, मुझे भी यही इष्ट है, मुझे भी यही करना है...... इसप्रकार अनुमोदना द्वारा अपने पुरुषार्थको जागृत करता है। ईर्षा करने वाला तो अटकता है, और अनुमोदना करने वाला अपने पुरुषार्थको जागृत करता है। अपने अंतरंगमें जहां शानस्वभाषका बहुमान है वहाँ रागके समय शानकी प्रभावनाका और अनुमोदनाका भाव आये बिना नहीं रहता। मानके बहुमान द्वारा यह थोड़े ही समयमें केवलज्ञान प्राप्त करेगा। रागका फल केवलशान नहीं परन्तु ज्ञानके बहुमानका फल केवलज्ञान है। और साथमें शुभरागसे जो उत्तम पुण्यबंध है उसके फलमें समवशरण आदिको रचना होगी और इन्द्र महोत्सव करेगा। अभी यहाँ चाहे किसीको खबर न हो परन्तु केवलशान होते ही तीनलोकमें आश्चर्यकारी हलचल हो जावेगी, इन्द्र इसका महोत्सव करेंगे और तीनलोकमें आनन्द होगा। अहो, यह तो वीतरागमार्ग है ! वीतरागका मार्ग तो वीतराग हो होता है ना? वीतरागभावकी वृद्धि हो यही सची मार्गप्रभावना है। रागको जो आदरणीय बताये वह जीव वीतरागमार्गकी प्रभावना कैसे कर सकता है? उसे तो रागकी ही भावना है। जैनधर्मके चारों अनुयोगोंके शास्त्रोंका तात्पर्य वीतरागता है। धर्मी जीव वीतरागी तात्पर्य बताकर चारों अनुयोगोंका प्रचार करे। प्रथमानुयोगमें तीर्थकरादि महान् धर्मात्माओंके जीवनकी कथा, चरणानुयोगमें उनके आचरणका वर्णन, करणानुयोगमें गुणस्थान आदिका वर्णन और द्रव्यानुयोगमें अध्यात्मका वर्णन-न बार प्रकारके शास्त्रोंमें वीतरागताका ही तात्पर्य है । इन शास्त्रोंका बहुमानपूर्वक स्वयं अभ्यास करे, प्रचार और प्रसार करे । जवाहरातके गहने या बहुमूल्य वन माविको कैसे प्रेमसे घरमें सम्भालकर रखते हैं,-सकी अपेक्षा विशेष प्रेमसे शासको Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gar 11 [ श्रावकधर्म-प्रकाश घरमें विराजमान करे, और सजाकरके उनका बहुमान करे । यह सब शानका विनय है । शानदानके सम्बन्धमें कुन्दकुन्दस्वामीकी पूर्वभवकी कथा प्रसिद्ध है, पूर्वभवमें वह एक सेठके यहाँ गायोंका ग्वाला था । एकबार उस ग्वालेको वनमें कोई शास्त्र मिला; उसने अत्यन्त बहुमानपूर्वक किन्हीं मुनिराजको उस शास्त्रका दान क्रिया । उस समय अव्यक्तरूपसे ज्ञानकी अचिंत्य महिमाका कोई भाव पैदा हुआ; इससे वह उस सेठके घर ही जन्मा; छोटी उम्र में ही मुनि हुआ और ज्ञानका अगाध समुद्र उसको उल्लसित हुआ। अहा, उन्होंने तो तीर्थकर परमात्माकी दिव्यवाणी साक्षात् सुनी, और भरतक्षेत्रमें ज्ञानकी नहर चलाई ! इनके अन्तरमें ज्ञानकी बहुत शुद्धि प्रमट हुई और बाह्यमें भी श्रुतकी महान् प्रतिष्ठा इस भरतक्षेत्रमें उन्होंने की । अहा, उनके निजवैभवकी क्या बात ! ज्ञानदान से अर्थात् ज्ञानके बहुमानके भावसे ज्ञानका क्षयोपशमभाष खिलता है, और यहाँ तो उसका उत्कृष्ट फल बताते हुए कहते हैं कि वह जीव थोड़े भवमें केवलज्ञान प्राप्त करेगा, उसे समवसरणकी शोभाकी रखना होगी और तीनलोकके जीव उसका उत्सव मनायेंगे। क्योंकि ज्ञानानन्द स्वभावकी आराधना साथमें वर्तती है अर्थात् आराधकभावकी भूमिकामें ऐसा ऊँचा पुण्य बँधता है । उसमें धर्मका लक्ष्य ज्ञानस्वभावकी आराधना पर है, राग अथवा पुण्य पर उसका लक्ष्य नहीं, वह तो बीचमें अनाजके साथके भूसेकी तरह सहज ही प्राप्त जाता है। ज्ञानस्वभावकी आराधनासे धर्मी जीव सर्वज्ञपदको साधता है । उसे किसी समय ऐसा भी होता है कि, अरे ! हम भगवानके पास होते, भगवानकी वाणी सुनते और भगवानले प्रश्नोंका सीधा समाधान लेते; अब भरतक्षेत्रमें भगवानका विरह हुआ; किमले प्रश्न पूछूं ? और कौन समाधान करे ? धर्मात्माको सर्वज्ञपरमात्मा के विरहका ऐसा भाव आता है। भरत चक्रवर्ती जैसेको भी ऋषभदेव भगवान मोक्ष पधारे तब ऐसा विरहका भाव आया था। अंतरंगमें निजके पूर्ण ज्ञानकी भावना है कि अरे ! इस पंचमकालमें अपने सर्वज्ञपदका हमको विरह ! अर्थात् निमित्तमें भी सर्वज्ञका विरह लताता है। इस भरतक्षेत्रमें कुंदकुंद प्रभुको विचार आया- अरे नाथ ! पंचमकालमें इस भस्तक्षेत्र में आपका बिछोह हुआ, सर्वज्ञताका विरह हुआ ... इसप्रकार सर्वज्ञके प्रति भक्तिका भाव उल्लसित हुआ, और वे चितवन करने लगे। वहां पुण्यका योग था और पात्रता भी विशेष थी, इससे सीमंधर भगवानके पास जानेका योग बना। अहा, सेवा (जीव) मनुष्य शरीरसहित विदेहक्षेत्र गया, और भगवानसे मिलाप हुआ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धावकधर्म-प्रकाश । भगवानकी दिव्यध्वनि साक्षात् श्रवण की और उन्होंने इस भरतक्षेत्रमें भुतहालकी धारा बहाई । इन्हें आराधक भावका विशेष जोर और साथमें पुण्यका भी महान योग था । इन्होंने तो तीर्थकर जैसा काम किया है। __ आराधकका पुण्य लोकोत्तर होता है। तीर्थकरके जीवको गर्ममें मालेकी छह महीनेकी देर हो, अभी तो यह जीव (श्रेणिक आदि कोई ) नरक में हो गया स्वर्गमें हो; इधर तो इन्द्र-इन्द्राणी यहाँ आकर उनके माता-पिताका बहुमान करते हैं कि धन्य रत्नखधारिणी माता ! छह महीने पश्चात् आपकी फैखमें तीनलोकके नाम तीर्थकर आनेवाले हैं !-ऐसा बहुमान करते हैं; और जहाँ उनका जन्म होनेवाला हो वहाँ प्रतिदिन करोड़ों रत्नोंकी वृष्टि करते हैं । छह मास पूर्व नरकमें भी उस जीवको उपद्रव शांत होजाते हैं । तीर्थकर-प्रकृतिका उदय तो पीछे तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान होगा तब आवेगा, परन्तु उसके पहले उसके साथ ऐसा पुण्य होता है। (यहाँ उत्कृष्ट पुण्यकी बात है; सभी आगधक जीवोंको ऐसा पुण्य होता है-ऐसा नहीं, परन्तु तीर्थकर होनेवाले जीवको ही ऐसा पुण्य होता है ।) यह सब तो अविस्य बात है। आत्माका स्वभाव भी अचित्य, और उसका जो भाराधक हुमा उसका पुण्य भी अचिंत्य ! इसप्रकार आत्माके लक्ष्यसे भावक-धर्मात्मा शानदान करता है, उसमें उसे रागका निषेध है और शानका आदर है, इसलिये यह केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थकर होगा, तीनलोकके जीव उत्सव मनायेंगे और उसकी दिव्यध्वनिसे धर्मका निर्मल मार्ग चलेगा। इसप्रकार शानदानका वर्णन किया । "दुर्लम है संसारमें एक यथारय मान" Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++++ 22.....**** [भावकधर्म-प्रकाश ....... [११] ....... अभयदानका वर्णन MAMALIN MARATHI RSSSSSSS0000 99999999999 । धर्मी जीव सम्यग्दर्शनादि द्वारा जिसप्रकार अपने दुःखको ज दूर करनेका उपाय करता है उसी प्रकार अन्य जीवों पर भी उसे , करुणाके भाव आते हैं । जिसे जीवदया ही नहीं उसे सच्चा धर्म अथवा दान कहाँसे हो ?....सच्चा अभयपना वह है कि जिससे भव8 भ्रमणका भय दूर हो, आत्मा निर्भयरूपसे सुखके मार्गकी ओर अग्रसर 8 8 हो । अज्ञान ही सबसे बड़ा भयका कारण है। सम्यग्ज्ञान द्वारा 8 ही वह भय दूर होकर अभयपना होता है; इसलिये जीवोंको सम्यग्ज्ञानके मार्गमें लगाना सच्चा अभयदान है । 9000000000000 भाषकधर्मके कथनमें चार प्रकारके दोनोंका वर्णन चल रहा है। उसमें आहारदान, औषधदान तथा शानदान-इन तीनका वर्णन हुआ। अब चौथा अभयदान, उसका वर्णन करते हैं सर्वेषामभयं प्रवृदकरुणैर्यद्दीयते प्राणिनां दानं स्यादभयादि तेन रहितं दानत्रयं निष्फलम् । आहारौषधशास्त्रदानविधिभिः क्षुद्रोगजाडयाद्भयं यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततो दानं तदेकं परम् ॥ ११ ॥ अतिशय करुणावान भव्य जीवों द्वारा समस्त प्राणियोंको जो अभय देने में आता है वह अभयदान है। बाकीके तीन दान इस जीवदयाके बिना निष्फल है। माहारदानसे क्षुधाका दुःख दूर होता है, औषधदानसे रोगका भय दूर होता है और शानदानसे अज्ञानका भय दूर होता है-इस प्रकार इन तीन दानोंसे भी जीवोंको अभय ही देने में आता है। इसलिये सब दानों में अभयदान ही एक श्रेष्ठ मोर प्रशंसनीय है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] धर्मी जीव अपनी आत्मामें जिस प्रकार सम्यग्दर्शनादि द्वारा दुःख दूर करनेका उपाय करता है उसी प्रकार अन्य जीवोंको भी दुःख न हो, उनका दुःख मिटे, ऐसे करुणाके भाव उसे होते हैं । जीवदया भी जिसे न हो उसका तो एक भी दान सच्चा नहीं होता । किसी जीवको मारनेकी अथवा दुःख देनेकी वृत्ति धर्मीको नहीं होती, सब जीवोंके प्रति करुणा होती है । दुःखी जीवोंके प्रति करुणापूर्वक पात्रअनुसार आहार, औषध अथवा ज्ञान आदि देकर उसका भय मिटाता है । देखो, ऐसे करुणाके परिणाम श्रावकको सहज ही होते हैं। ३० ] सबा अभयदान तो उसे कहते हैं कि जिससे भवभ्रमणका दुःख टले और आत्मा निर्भयरूपसे सिद्धके पत्थकी ओर अग्रसर हो ! अज्ञान और मिथ्यात्व ही जीवके लिये सबसे बड़े भय और दुःखका कारण है: सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने पर वह भय दूर होकर आत्मा अभयपना प्राप्त करता है । इसलिये जीवको सम्यग्ज्ञानके मार्ग में लगाना वह बड़ा अभयदान है । इसलिये भगवानको भी अभयदाता (अभयश्याणम् ) कहा जाता है । भगवान् और सन्त कहते हैं कि हे जीव ! तू अपने स्वरूपको पहचानकर निर्भय हो ! शंकाका नाम भय है जिसको स्वरूपमें शंका है उसे मरण आदिका भय कभी नहीं मिटता । सम्यग्दृष्टि जीव ही निःशंक होनेसे निर्भय है, उसे मरण आदि सात प्रकारके भय नहीं होते । कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि सम्यक्त्ववन्त जीव निःशंकित उससे हैं निर्भय खरे, और सप्त भय प्रविमुक्त हैं जिससे उस हेतु निःशंक हैं । स्वरूपकी भ्रान्ति दूर हुई वह भय दूर हो गया । शरीर ही मैं नहीं, मैं तो शाश्वत ज्ञानमय आत्मा हूँ, तब मेरा मरण कैसा ? ओर मरण ही नहीं फिर मरणका भय कैसा ? मिथ्यात्वमें मरणका भय था, मिथ्यात्व दूर हुआ वह मरणादिका भय मिटा | इसके अतिरिक्त रोगादिका अथवा सिंह - बाघका भय थोड़े समयके लिये चाहे मिट जावे परन्तु जबतक यह भय न मिटे तबतक जीवको सच्चा सुख नहीं होता । - इस प्रकार ज्ञानी समझाते हैं कि हे भाई! तू तो ज्ञानस्वरूप है; इस देहका जन्म-मरण वह वास्तवमें तेरा स्वरूप नहीं; अज्ञानसे तूने देहको अपना मानकर इसमें सुखकी कल्पना की है इससे तुझे रोगका, क्षुधाका, मरणादिका भय लगता है । परन्तु देहसे भिन्न वज्र जैसा तेरा ज्ञानस्वरूप है वह निर्भय है, उसे १० Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश अन्तरमें देखनेसे पर-सम्बन्धी कोई भय तुझे नहीं रहेगा-इस प्रकार नित्य अभयस्वरूप समझकर शानी सच्चा अभयदान देता है, उसमें सब दान समाविष्ट हो जाते हैं। परन्तु जो जीव ऐसा समझनेकी योग्यतावाले न हों उन दुःखी जीवों पर भी श्रावक करुणा करके जिस प्रकार उनका भय कम हो उस प्रकार उन्हें आहार, औषध आदिका दान देता है । अपनी आत्माका भय दूर हुआ है और अन्यको अभय देनेका शुभभाव. आता है-ऐसी श्रावककी भूमिका है। अपना ही भय जिसने दूर नहीं किया यह : अन्यका भय कहाँसे मिटायेगा? अज्ञानीको भी जो करुणाभाव आता है, दानका, भाव आता है उसमें उसे भी शुभभाव है, परन्तु ज्ञानी जैसा उत्तम प्रकारका भाव उसे नहीं होता। देखो, कितने ही जीव असंयमी जीवोंके प्रति दया-दानके परिणामको पाप बताते हैं, यह तो अत्यन्त विपरीतता है। भूखेको कोई खिलाये, प्यासेको पानी पिलाये, दुष्काल हो, गायें घासके बिना मरती हों और कोई दयाभावसे उन्हें हरा घास खिलाये तो उसमें कोई पाप नहीं; उसके दयाके भाव हैं वे पुण्यके कारण हैं । जीव-दयाके भावमें पाप बतावे उसे तो बहुत बड़ी विपरीतता है। धर्म वस्तु तो अभी पृथक् है, परन्तु इसे तो पुण्य और पापके बीचका भी विवेक नहीं। इसी प्रकार कोई जीव पंचेन्द्रिय आदि जीवोंकी हिंसा करके उसमें धर्म मनाता है, वह तो महान् पापी है। ऐसे हिंसामार्गको जिज्ञासु कभी ठीक नहीं मानता। एक भी जीवको मारनेका अथवा दुःखी करनेका भाव धर्मी श्रावकको होता नहीं। अरे धीतरागमार्गको साधने आया उसके परिणाम तो कितने कोमल हों ! पत्ननंदी स्वामी तो कहते हैं कि-मेरे निमित्तसे किसी प्राणीको दुःख न हो। किसीको मेरी निन्दासे अथवा मेरे दोष प्रहण (देखना) करनेसे सन्तोष होता हो तो इस प्रकार भी वह सुखी होवे; किसीको इस देहनाशकी इच्छा हो तो वह यह देह लेकर भी सुखी होवे । अर्थात् हमारे निमित्तसे किसीको भय न हो, दुःख न हो । अर्थात् हमें किसीके प्रति देष अथवा क्रोध न हो . इस प्रकार स्वयं अपने वीतरागभाषमें रहना चाहता है। यहाँ तो चारित्रवंत मनिकी मुख्यतासे बात है, उसमें गौणरूपसे श्रावक भी आ जाता है, क्योंकि श्रावकको भी अपनी भूमिका अनुसार ऐसी ही भावना होती है। सामनेका जीव स्वयं अपने गुण-दोषके कारण अभयपना प्राप्त करे अथवा न करे यह वस्तु उसके आधीन है, परन्तु वहाँ ज्ञानीको अपने, . भावमें सब जीवोंको अभय देनेकी वृत्ति है। हमारा कोई शत्रु नहीं, हम किसीके.. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७५ श्रावक्रधर्म - प्रकाश ] शत्रु नहीं हैं—ऐसी भावनामें शानीको अनन्तानुबंधी कषायका पूर्व अभाव है । तत्पश्चात् अन्य राग-द्वेष आदिकी भी बहुत मन्दता हो गई है; और भावकको तो ( पंचम गुणस्थान में) इससे भी अधिक राग दूर हो गया है, तथा हिंसादिके परिणाम छूट गये हैं । — इस प्रकार भावकके देशव्रतका यह प्रकाशन है । आत्माका चिदानन्द स्वभाव पूर्ण रागरहित है, उसे जिसने श्रद्धामें लिया है। अथवा श्रद्धामें लेना चाहता है ऐसे जीवको रागकी कितनी मन्दता हो, देव-गुरुधर्मकी तरफ परिणाम किस प्रकारके हों, सर्वज्ञकी पहिचान कैसी हो– इन सब मेका इस अधिकारमें मुनिराजने बहुत सरल वर्णन किया है। सभामें यह तीसरी बार पढ़ा जा रहा है। महापुण्य हो तभी जैनधर्मका और सत्य श्रवणका ऐसा योग प्राप्त होता है: उसे समझनेके लिये अन्तरमें बहुत पात्रता होनी चाहिये। एक रागका कण भी जिसमें नहीं ऐसे स्वभावका श्रवण करनेमें और उसे समझनेकी पात्रतामें जो जीव आया उसे स्थूल अनीतिका, तीव्र कषायका, मांस-मद्य आदि अभक्ष्यके भक्षणका तथा कुदेव - कुगुरु-कुधर्मके सेवनका तो त्याग होता ही है; और सच्चे देव-गुरु-शास्त्रका आदर, साधर्मीका प्रेम, परिणामोंकी कोमलता, विषयोंकी मिठासका त्याग, वैराग्यका रंग- पेसी योग्यता होती है। ऐसी पात्रता विना ही तत्त्वज्ञान हो जाय ऐसा नहीं । भरत चक्रवर्तीके छोटी-छोटी उम्र के राजकुमार भी आत्माके भान सहित राजपाट में थे, उनका अंतरंग जगतसे उदास था। छोटे राजकुमार राजसभामें आकर दो घड़ी बैठते हैं वहाँ भरतजी राज-भंडारमेंसे करोड़ों सोनेकी मोहरें उन्हें देने को कहते हैं, परन्तु छोटेसे कुमार वैराग्यले कहते हैं-पिताजी ! ये सोनेकी मोहरें राज-भंडार में ही रहने दो, हमें इनसे क्या करना है ? हम तो मोक्षलक्ष्मीकी साधना के लिये आये हैं, पैसा एकत्रित करनेके लिये नहीं आये । परके साथ हमारे सुखका सम्बन्ध नहीं, परसे निरपेक्ष हमारा सुख दादाजी ( ऋषभदेव भगवान ) के प्रतापसे हमने समझा है, और इसी सुखको साधना चाहते हैं । देखो, कितना वैराग्य ! यह तो पात्रता समझने के लिये एक उदाहरण दिया। इसप्रकार धर्मकी योग्यतावाले जीवको अन्य सब पदार्थोंकी अपेक्षा आत्मस्वभावका देव-गुरु- धर्मका विशेष प्रेम होता है, और सम्यक्मान सहित वह रागादिको दूर करता जाता है। उसमें बीच-बीचमें दानके प्रकार देवपूजा आदि किसप्रकारके होते हैं यह बताया, अब उस दानका फल कहेंगे । हमारी आत्मामें है - ऐसा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावका-सा •remi- [१२] ...mertainm श्रावकको दानका फल 一是鲁社###染井世鲁###背身单 **** * ****** * * * धर्मात्माको शुद्धताके साथ रहनेवाले शुभभावसे ऊँचा पुण्य बंधता है, परन्तु उसकी दृष्टि तो आत्माकी शुद्धताको साधने पर है। जो जीव सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं करे और मात्र शुभरागसे ही मोक्ष होना मानकर उ में अटका रहे तो वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, उसे तो श्रावकपना भी सचा नहीं होता....सामनेका जीव धर्मकी आराधना कर रहा हो उसे देखकर धर्मीको उसके प्रति प्रमोद आता है, क्योंकि उसे स्वयंको आराधनाका तीव्र प्रेम है। सर्पक्षकथित वस्तुस्वरूपका निर्णय करके जिसने सम्यग्दर्शन प्रगट किया है, उसके पश्चात् मुनिदशाकी भावना होते हुए भी जो अभी महावत अंगीकार नहीं कर सकता इसलिये श्रावकधर्मरूप देशवतका पालन करता है, ऐसे जीवको आहारदानऔषधदान-शासादान-अभयदान-इन चार प्रकारके दानका भाव आता है उसका वर्णन कियाअब उस दानका फल बताते हैं आहारामुखितौषधादतितरां निरोगता जायते शाखापात्र निवेदितात्परभवे पाण्डित्यमत्यद्भुतम् । एतत्सर्वगुणपमापरिकरः पुंसोऽभयात्दानतः पर्यन्ते पुनरोन्नतोन्नतपद प्राप्तिर्विमुक्तिस्ततः ॥ १२ ॥ उत्तम आदि पात्रोंको आहारदान देनेसे परभवमें स्वर्गादि सुखकी प्राप्ति होती है। मौषधदानसे अतिशय निरोगता और सुन्दर रूप मिलता है, शानदानसे अश्यन्त अद्भुत पाण्डित्य प्रगट होता है और अभयदानसे जीवको इन सब गुणोंका परिवार प्राप्त होता है तथा क्रम-क्रमसे ऊँची पदवीको प्राप्त कर वह मोक्ष प्राप्त करता है। देखो, यह दानका फल ! भावकधर्मके मूलमें जो सम्यग्दर्शन है उसे लक्ष्यमें रखकर यह बात समझनी है। सम्यक्सी भूमिका पानादि शुममावोंसे रेखा Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावधर्म- काश | it उत्कृष्ट पुण्य बन्धता है कि इन्द्रपद, चक्रवर्ती पद आदि प्राप्त होता है; और उस पुण्यफलमें हेयबुद्धि है इसलिये वह रागको तोड़कर, वीतराग होकर मोक्ष प्राप्त करेगा । इस अपेक्षाले उपचार करके दानके फलसे आराधक जीवको मोक्षकी प्राप्ति कह दी । परन्तु जो जीव सम्यग्दर्शन प्रगट न करे और मात्र शुभरागसे ही मोक्ष होना मानकर उसमें रुक जाये, वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता, उसे तो भावकपना भी सच्चा नहीं होता । दानके फलस्वरूप पुण्य से स्वर्गके सुख निरोग-रूपवान शरीर, चक्रवर्तीपदका वैभव आदि मिले उसमें शानीको कोई सुखबुद्धि नहीं, अन्तरके चैतन्यसुखको प्रतीति और अनुभवमें लिया है, इसके अतिरिक्त अन्य कहीं पर उसे सुख नहीं भासता । दानके फलमें किसीको ऐसी ऋद्धि प्रगट हो कि उसके शरीरके स्नानका पानी छींटते ही अन्यका रोग मिट जावे और मूर्छा दूर हो जाये । शास्त्रदानसे ज्ञानावरणका क्षयोपशम होता है और आश्चर्यकारी बुद्धि प्रगटती है । देखो ना, ग्वालेके भवमें शास्त्रदान देकर ज्ञानका बहुमान किया तो इस भवमें कुन्दकुन्दाचार्यदेवको कैसा श्रुतज्ञान प्रगटा ! और कैसी लब्धि प्राप्त हुई ! तो ज्ञानके अगाध सागर थे: तीर्थंकर भगवानकी साक्षात् दिव्यध्वनि इस पंचम कालमें उन्हें सुनने को मिली । मंगलाचरणके श्लोक में महावीर भगवान और गौतम गणधरके पीछे मंगलम् कुन्दकुन्दार्यो कहकर तीसरा उनका नाम लिया जाता है। देव-गुरु-शास्त्रके अनादरसे जीवको तीव्र पाप बँधता है, और देव-गुरु-शास्त्र के बहुमानसे जीवको ज्ञानादि प्रगट होते हैं। जिस प्रकार अनाजके साथ भूसा तो सहज ही पकता है, परन्तु चतुर किसान भूसेके लिये बोनी नहीं करता, उसकी दृष्टि तो अनाज पर है । उसी प्रकार धर्मात्माको शुद्धता के साथ रहनेवाले शुभसे ऊँचा पुण्य बन्धता है और चक्रवर्ती आदि ऊँची पदवी सहज ही मिलती है, परन्तु उसकी दृष्टि तो आत्माकी शुद्धता के साधन पर है, पुण्य अथवा उसके फलकी वाञ्छा उसे नहीं । जिले पुण्यके फलकी वाञ्छा है ऐसे मिथ्यादृष्टिको तो ऊँचा पुण्य नहीं बन्धताः चक्रवर्ती आदि ऊँची पदवीके योग्य पुण्य मिथ्यादर्शनकी भूमिकामें बन्धता नहीं । सम्यग्दर्शनरहित जीव मुनिराज आदि उत्तम पात्रको आहारदान दे अथवा अनुमोदन करे तो उसके फलमें वह भोगभूमिमें उत्पन्न होता है, वहाँ असंख्य वर्षकी आयु होती है और दस प्रकारके कल्पवृक्ष उसे पुण्यका फल देते हैं । ऋषभदेव भादि जीवोंने पूर्वमें मुनियोंको आहारदान दिया इससे भोगभूमिमें जन्मे थे, और वहाँ मुनिके उपदेशसे सम्यग्दर्शन प्राप्त किया था । श्रेयांसकुमारने ऋषभदेव भगवानको आहारदान दिया उसकी महिमा तो प्रसिद्ध है । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] (भावकधर्म-प्रकाश ROM - - - - - कुन्दकुन्द स्वामीका जीव पूर्वके ग्वालेके भवमें ज्ञानके अचिंत्य बहुमानपूर्वक शास्त्रदान करता है। दूसरे भवमें उन्हें सीमंधरनाथकी साक्षात् दिव्यवाणी सुननेका महाभाग्य मिलता है और वे श्रुतकी महान प्रभावना करते हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्म-प्रकाश ] इसप्रकारके भक्ति-पूजा-आहारदान आदि शुभभाव श्रावकको होते है, ऐसी ही उसकी भूमिका है। दृष्टिमें तो वर्तमानमें ही उसने रागको हेय किया है इसलिये दृष्टिके बलसे अल्पकालमें ही चारित्र प्रगट कर, रागको मर्षया दूर कर वह मुक्ति प्राप्त करेगा। सामनेवाला जीव धर्मकी आराधना कर रहा हो उसे देखकर धर्मीको उसके प्रति प्रमोद, बहुमान और भक्तिका भाव उल्लमित होता है, क्योंकि स्वयंको उस आराधनाका तीव्र प्रेम है। इसलिये उसके प्रति भक्तिसे ( -मैं उस पर उपकार करता हूँ ऐसी बुद्धिसे नहीं परन्तु आदरपोक) शास्त्रदान, आहारवान आदिके भाय आते हैं। इस बहाने वह स्वयं अपने रागको घटाता है और आराधनाकी भावनाको पुष्ट करता है। देखो, यह तो वीतरागी सन्तोंने यस्तुस्वरूप प्रगट किया है ! वे अन्यन्त निस्पृह थे, उन्हें कोई परिग्रह नहीं था, उन्हें जगतसे कुछ लेना नहीं था। धर्मी जीव भी निस्पृह होता है, उसे भी किसीसे लेनेकी इच्छा नहीं। लेनेकी वृत्ति तो पाप है। धर्मी जीव तो दानादि द्वारा राग घटाना चाहता है। किसी धर्मीको विशेष पुण्यसे बहुत वैभव भी हो, उससे उसे अधिक गग है-ऐसा नहीं। रागका माप संयोगसे नहीं। यहाँ तो धर्मकी निचली भूमिकामें (श्रावकदशामें ) धर्म कितना हो, राग कैसा हो और उसका फल क्या हो वह वताया है। वहां जिननी वीतरागता हुई है उतना धर्म है और उसका फल तो आत्मशांतिका अनुभव है। स्वर्गादि वैभव मिले वह कोई वीतरागभावरूप धर्मका फल नहीं, वह तो गगका फल है। कोई जीव यहाँ ब्रह्मचर्य पाले और स्वर्गमें उसे अनेक देवियाँ मिलें, तो क्या ब्रह्मचर्यक फलमें देवियाँ मिली ? नहीं, ब्रह्मचर्यमें जितना गग दूर हुआ और वीतरागभाव हुमा उसका फल तो आत्मामें शान्ति है, परन्तु अभी वह पूर्ण वीतराग नहीं हुआ अर्थात् अनेक प्रकारके शुभ और अशुभ राग बाकी रह गये हैं। अभी धर्मीको जो शुभराग बाकी रह गया है उसके फलमें वह कहाँ जायेगा? क्या नरका दे गतिमें जायेगा ? नहीं; वह तो देवलोकमें ही जावेगा। अर्थात् देवलोककी प्राप्ति रानका फल है, धर्मका नहीं। यहाँ पुण्यका फल बताकर कोई उसकी लालच नहीं कराते, परन्तु राग घटानेका उपदेश देते हैं। जिस प्रकार स्त्री, शरीर आदिके लिये मशुभमावसे शक्ति अनुसार उत्साहपूर्वक खर्च करता है, वहाँ अन्यको यह कहना नहीं पड़ता कि तू इतना सर्व कर । तो जिसे धर्मका प्रेम है वह जीव स्वप्रेरणाले, उत्साहसे देव-गुरु-धर्मकी भक्ति, पात्रदान आदिमें बारम्बार अपनी लक्ष्मीका उपयोग करता है, -समें वह किसीके कहने की राह नहीं देखता। राग तो अपने लिये घटाना है ना! Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ श्रावकधर्म-प्रकाश किसी अन्य के लिये राग नहीं घटाना है। इसलिये धर्मी जीव चतुर्विध दान द्वारा अपने रागको घटाये ऐसा उपदेश है ॥ १२ ॥ अनेक प्रकारके आरम्भ और पापसे भरे हुए गृहस्थाश्रममें पापसे बचने के लिये दान मुख्य कार्य है; उसका उपदेश आगेकी छह गाथाओंमें करेंगे। ) -- यदितु सम्यनिछे ... MER सम्यक्त्वादि रत्नत्रयगुणके धारक ऐसे गुणीजनोंके प्रति धर्मीको प्रमोद आता है; उस रत्नत्रयको तथा उसके आराधक गुणीजनोंको देखकर उसके अन्तरमें प्रेम-हर्ष-उत्साह और बहुमान उत्पन्न होता है, उसे वात्सल्य उल्लसित होता है। गुणीजनोंके प्रति जिसे प्रमोद न आवे, तो समझो कि उस जीवको गुणोंकी महिमाकी खबर नहीं, उसे अन्तरमें गुण प्रगटे नहीं। अपनेमें जिसे गुण प्रगटे हों उसे वैसे गुण अन्यमें देखकर प्रमोद आये - बिना नहीं रहता। 8993989 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] ...........[१३].............. अनेक प्रकार पापोंसे बचनेके लिये गृहस्थ दान करे। * * * 鲁金鲁伊特鲁鲁普鲁鲁車鲁鲁,鲁鲁哥是普鲁鲁世 REEK HERE AREER SREEEEEEEE + 899g अहा, जिसे सर्वज्ञके धर्मको महिमा आई है, अन्तरदृष्टिसे प्रास्माके. धर्मको जो साधता है. महिमापूर्वक वीतरागभावमें जो आगे बढ़ता है, और तीव्र राग घटनेसे जिसे श्रावकपना हुआ है--उस श्रावकके भाव कसे हों उसकी यह बात है। सर्वार्थसिद्धिके देवको अपेक्षा जिसकी पदवी ऊँची, और स्वर्गके इन्द्रकी अपेक्षा जिसे आत्मसुख अधिक ऐसी श्रावकदशा है। वह श्रावक भी हमेशा दान करता है। मात्र - लक्ष्मीको लोलुपतामें, पापभावमें जीवन बिता दे और भात्माकी कोई जिज्ञासा न करे-ऐसा जीवन धर्मीका अथवा जिशामुका नहीं होता। RETREKKEE ASE गृहस्थको दानकी प्रधानताका उपदेश देते हैं कृत्वाऽकार्यशतानि पापबहुलान्याश्रित्य खेदं पर भ्रान्त्वा वारिधिमेखलां वसुमती दुःखेनयच्चार्जितम् । तत्पुत्रादपि जीवितादपि धन मियोऽस्य पन्या शुभो दानं तेन च दीयतामिदमहो नान्येन तत्सद्गति ॥ १३॥ जीवोंको पुत्रकी अपेक्षा और अपने जीवनकी अपेक्षा धन अधिक प्यारा है। पापसे भरे हुए सैकड़ों अकार्य करके, समुद्र, पर्वत और पृथ्वीमें भ्रमण करके तथा अनेक प्रकारके कपसे महा खेद भोगकर दुःखसे जो धन प्राप्त करता है, वह धन जीवोंको पुत्रकी अपेक्षा और जीवनकी अपेक्षा भी अधिक प्यारा है, ऐसे धनका उपयोग करनेका शुभमार्ग एक दान ही है, इसके सिवाय धन खर्च करनेका कोई उत्तम मार्ग नहीं। इसलिये आवार्यदेव कहते हैं कि अहो, भव्य जीवो! तुम ऐसा दान करो। 11 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [भावकधर्म-प्रकाश देखो तो, आजकल तो जीवोंको पैसा कमानेके लिये कितना पाप और झूठ करना पड़ता है। समुद्रपारके देशमें जाकर अनेक प्रकारके अपमान सहन करे, सरकार पैसा ले लेगी ऐसा दिन-रात भयभीत रहा करे, इस प्रकार पैसेके लिये कितना कष्ट सहन करता है और कितने पाप करता है? इसके लिये अपना बहुमूल्य जीवन भी नष्ट कर देता है, पुत्रादिका भी वियोग सहन करता है, इस प्रकार वह जीवनकी अपेक्षा और पुत्रकी अपेक्षा धनको प्यारा गिनता है। तो आचार्यदेव कहते है कि-भाई, ऐसा प्यारा धन, जिसके लिये तूने कितने पाप किये, उस धनका सञ्चा-उत्तम उपयोग क्या ? इसका विचार कर। स्त्री-पुत्रके लिये अथवा विषयभोगोंके लिये तू जितना धन खर्च करेगा, उसमें तो उलटे तुझे पापबन्ध होगा। इसलिये लक्ष्मीकी सच्ची गति यह है कि राग घटाकर देव-गुरु-धर्मकी प्रभावना, पूजा-भक्ति, शास्त्रप्रचार, दान आदि उत्तम कार्यों में उसका उपयोग करना । प्रश्नः-बच्चोंके लिये कुछ न रखना ? उत्तरः-भाई, जो तेरा पुत्र सुपुत्र और पुण्यवंत होगा तो वह तुझसे सवाया धन प्राप्त करेगा; और जो घह पुत्र कुपुत्र होगा तो तेरी इकट्ठी की हुई सब लक्ष्मीको भोग-विलासमें नष्ट कर देगा, और पापमार्गमें उपयोग करके तेरे धनको धूल कर डालेगा, तो अब तुझे संचय किसके लिये करना है ? पुत्रका नाम लेकर तुझे अपने लोभका पोषण करना हो तो जुदी बात है ! अन्यथा पूत सपूत तो क्यों धन संचय ? पूत कपूत तो क्यों धन संचय ! इसलिये, लोभादि पापके कुएँ से तेरी आत्माका रक्षण हो ऐसा कर; लक्ष्मीके रक्षणकी ममता छोड़ और दानादि द्वारा तेरी तृष्णाको घटा। वीतरागी सन्तोंको तो तेरे पाससे कुछ नहीं चाहिये। परन्तु जिसे पूर्ण राग-रहित स्वभावकी रुचि उत्पन्न हुई, वीतरागस्वभावकी तरफ जिसका परिणमन लगा उसको राग घटे विना नहीं आता। किसीके कहनेसे नहीं परन्तु अपने सहज परिणामसे ही मुमुक्षुको राग घट जाता है। इस सम्बन्धमें धर्मी गृहस्थको कैसे विचार होते है ? समन्तभद्रस्वामी रत्नकर:श्रावकाचारमें कहते हैं कि यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा कि प्रयोजनम् । अथ पापासवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ॥ २७ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश __ यदि पापका आस्रव मझे रुक गया है तो मुझे मेरे स्वरूपकी सम्पदा प्राप्त होगी, वहाँ अन्य सम्पदाका मुझे क्या काम ! और जो मुझे पापका मालब हो रहा है तो ऐसी सम्पदासे मुझे क्या लाभ है? जिस सम्पदाके मिलनेसे पाप बढ़ता हो और स्वरूपकी सम्पदा लुटती हो ऐसी सम्पदा किस कामकी ?-स प्रकार दोनों तरहसे सम्पदाका असारपना जानकर धर्मी उसका मोह छोड़ता है । जो मात्र लक्ष्मीकी लोलुपताके पापभावमें जीवन बिता दे और आत्माकी कोई जिज्ञासा न करे ऐसा जीवन धर्मीका अथवा जिज्ञासुका नहीं होता । अहा; जिसे सर्वचकी महिमा आयी है, अन्तरराष्टिसे आत्माके स्वभावको जो साधते हैं, महिमापूर्वक वीतराग मार्गमें जो आगे बढ़ते हैं, और तीन राग घटनेसे जिन्हें श्रावकपना प्रगट हुमा हैऐसे श्रावकके भाव कैसे हों उसकी यह बात है। सर्वार्थसिद्धिके देवकी अपेक्षा जिसकी पदवी. ऊँची है, स्वर्गके इन्द्रकी अपेक्षा जिसका आत्मसुम्य अधिक है-ऐसी आवक दशा है। स्वभावके सामर्थ्यका जिसे भान है, विभावकी विपरीतता समझता है और परको पृथक् देखता है, ऐसा श्रावक रागके त्याग द्वारा अपने में क्षण-क्षण शुद्धताका दान करता है और बाह्यमें अन्यको भी रत्नत्रयके निमित्तरूप शास्त्र भादिका दान करता है। ऐसा मनुष्य-भव प्राप्त कर, आत्माकी जिज्ञासा कर उसके मानकी कीमत भानी चाहिये, श्रावकको स्वाध्याय, दान आदि शुभभाव विशेषरूपसे होते है। जिसे शानका रस हो, प्रेम हो, वह हमेशा स्वाध्याय करे; नये-नये शानोंका स्वाध्याय करनेसे ज्ञानकी निर्मलता बढ़ती जाती है, उसे नये-नये वीतरागभाष प्रगट होते जाते हैं। अपूर्व तत्त्वके श्रवण और स्वाध्याय करनेसे उसे ऐसा लगता है कि महो, माज मेरा दिन सफल हुआ ! छह प्रकारके अन्तरंग तोंमें ध्यानके पभात् दूसरा नंबर स्वाध्यायका कहा है। भावकको सब पक्षोंका विवेक होता है। स्वाध्याय मादिकी तरा देवपूजा मादि कार्योंमें भी यह भक्तिसे वर्तता है। भावकको भगवान् सर्वदेव प्रति परम प्रीति हो....अहो, यह तो इष्ट ध्येय है ! इस प्रकार जीवनमें वह भगवानको तो इच्छता है। चलते-फिरते प्रत्येक प्रसंगमें उसे भगवान याद माते है। यह नदीके झरनेकी कल-कल मावाज सुनकर कहता है कि हे प्रभो! आपने पूजीका त्याग कर दीक्षा ली इससे मनाथ हुई यह पृथ्वी कलरव करती विलाप करती है और उसके मासुमोंका यह प्रवाह है। वह भाकाशमें सूर्य-चन्द्रको देखकर कहता है कि प्रभो ! मापने शुक्ल-ध्यान द्वारा घातिया कमीको जब भस्म किया तब उसके स्फस्लिग Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रावकधर्म-प्रकाश माकाशमें उड़े, वे स्फुल्लिंग ही ये सूर्य-चन्द्र रूपमें उड़ते दिखाई दे रहे हैं। और भ्यान-अग्निमें भस्म होकर उड़ते हुए कर्मके समूह इन बादलोंके रूपमें अभी भी जहां-तहाँ घूम रहे हैं। ऐसी उपमाओं द्वारा श्रावक भगवानके शुक्ल-ध्यानको याद करता है और स्वयं भी उसकी भावना भाता है। ध्यानकी अग्नि, और वैराग्यकी हवा उससे अग्नि प्रज्वलित होकर कर्म भस्म हो गये, उसमेंसे सूर्य-चन्द्र रूपी स्फुल्लिग उड़े । ध्यानस्थ भगवानके बाल हवामें फर फर उड़ते देखकर कहता है कि, ये बाल नहीं ये, तो भगवानके अन्तरमें ध्यान द्वारा जो कर्म जल रहे हैं उनका धुआं उड़ रहा है। इस प्रकार सर्वशदेवको पहचानकर उनकी भक्तिका रंग लगाया है। उसके साथ गुरुकी उपासना, शास्त्रका स्वाध्याय आदि भी होता है। शाल तो कहते हैं कि अरे, कान द्वारा जिसने वीतरागी सिद्धान्तका श्रवण नहीं किया और मनमें उसका चितवन नहीं किया, उसे कान और मन मिलना न मिलनेके बराबर ही है। आत्माकी जिज्ञासा नहीं करे तो कान और मन दोनों गुमाकर एकेन्द्रियमें चला जायगा । कानकी सफलता इसमें है कि धर्मका श्रवण करे, मनकी सफलता इसमें है कि आत्मिक गुणोंका चितवन करे, और धनकी सफलता इसमें है कि सत्पात्रके दानमें उसका उपयोग हो। भाई, अनेक प्रकारके पाप करके तूने धन इकट्ठा किया, तो अब परिणामोंको पलटकर उसका ऐसा उपयोग कर कि जिससे तेरे पाप धुलें और तुझे उत्तम पुण्य बन्धे ।-उसका उपयोग तो धर्मके पानानपूर्वक सत्पात्रदान करना यही है। लोगोंको जीवनसे और पुत्रसे भी यह धन प्यारा होता है। परन्तु धर्मी भावकको धनकी अपेक्षा धर्म प्यारा है। इसलिये धर्मके लिये धन खर्चनेमें इसे उल्लाल माता है। इसलिये थावकके घरमें अनेक प्रकारके दानके कार्य निरंतर चला करते हैं। धर्म और वानरहित घरको तो स्मशानतुल्य गिनकर कहते हैं कि ऐसे गृहवासको तो गहरे पानी में जाकर 'स्वा...हा' कर देना । जो एकमात्र पापबन्धका ही कारण हो ऐसे गृहवासको तू तिलांजलि देना, पानीमें डबो देना । अरे, वीतरागी सन्त इस दानका गुन्जार शब्द करते हैं .. उसे सुनकर किन भव्य जीवोंके लयकमल न खिल उठे ? किसे उत्साह नहीं आवे ? भ्रमरके गुन्जार शब्दसे और. चन्द्रमाके उदयसे कमलकी कली तो खिल उठतो है, पत्थर नहीं खिलता है; उसी प्रकार इस उपदेशरूपी गुंजार शब्दको सुनकर धर्मकी रुचिवाले जीवका हरय तो खिल उठता है...कि वाह ! देव-गुरु-धर्मकी सेवाका अवसर आया...मेरा धन्य भाग्य...कि मुझे देव-गुरु-का काम मिला । इस प्रकार उल्लसित होता है। शास्त्र में Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ th भावकधर्म-प्रकाश कहते हैं कि शक्ति-प्रमाण दान करना। तेरे पास एक रुपयेकी पूंजी हो तो उसमेंसे एक पैसा दान करना...परन्तु दान अवश्य करना, लोभ घटाने का अभ्यास अवश्य करना । लाखों-करोड़ोंकी पूँजी हो तभी दान दिया जा सके और ओछी पूँजी हो उसमें दान नहीं दिया जा सके-ऐसा कोई नहीं है। स्वयं का लोभ घटानेकी बात है, इसमें कोई पूँजीकी मात्रा देखना नहीं है। उत्तम श्रावक कमाई का चौथा भाग धर्ममें सर्व करे, मध्यमरूपसे छट्ठा भाग खर्च करे और कमसे कम इसमांश खर्च करे-ऐसा उपदेश है। चन्द्रकान्त-मणिकी सफलता कब ? कि चन्द्रमाके संयोगसे उसमें पानी सरने लगे तय; उसी प्रकार लक्ष्मीकी सफलता कब ? कि सत्पात्रके प्रति यह दानमें खर्च हो तब । धर्मीको ऐसा भाव होता ही है, परन्तु उसके उदाहरणसे अन्य जीवोंको समझाते हैं। ___ संसारमें लोभी जीव धनप्राप्तिके लिए कैसे-कैसे पाप करते हैं। लक्ष्मी तो पुण्यानुसार मिलती है परन्तु उसकी प्राप्तिके लिये बहुतसे जोव झूठ-चोरी आदि अनेक प्रकारके पापभाव करते हैं। कदाचित् कोई जीव ऐसे भाव न करे और प्रमाणिकतासे व्यापार करे तो भी लक्ष्मी प्राप्त करनेका भाव तो पाप ही है। यह बताकर यात ऐसा कहते हैं कि भाई, जिस लक्ष्मीके लिये तृ इतने-इतने पाप करता है और जो लक्ष्मी पुत्रादिकी अपेक्षा भी तुझे अधिक प्यारी है, उस लक्ष्मीका उत्तम उपयोग यही है कि सत्पात्रदान आदि धर्मकार्यों में उसे खर्च; सत्पात्रदानमें स्वर्ची गई लक्ष्मी मसंख्यगुणी होकर फलेगी। एक आदमी चार-पाँच हजार रु. के नये नोट लाया और घर आकर स्त्रोको दिये, उस स्त्रीने उन्हें चूलेके पास रख दिया और अन्य कामसे जरा दूर चली गई। उसका छोटा लड़का पीछ सिगड़ी के पास बैठा था। सर्दाक दिन थे, लड़केने नोटकी गड़ी उठाकर सिगड़ीमें डाल दी और अग्नि भड़क गई और वह तापने लगा.. इतने में मां आई, लड़का कहने लगा-माँ देख...मैने सिगड़ी कैसी कर दी! देखते ही माँ समझ गई कि अरे, इसने तो पाँच हजार रुपयोंकी राख कर दी! उसे ऐसा क्रोध चढ़ा कि उसने लड़केको इतना अधिक मारा कि लड़का मर गया ! देखो, पुत्रकी अपेक्षा यह धन कितना प्यारा है !! दूसरी एक घटना-एक ग्वालिन दूध बेचकर उसके तीन रुपये लेकर अपने गाँव जा रही थी, अकालके दिन थे, रास्तेमें लुटेरे मिले। बाईको डर लगा कि ये लोग मेरे रुपये छीन लेंगे, इसलिये वह तीन रुपये-कल्दार पेटमें निगल गई। परन्तु लुटेरोंने वह देख लिया और बाईको मारकर उसके पेटमें से रुपये निकाल लिये। देखो, यह क्रूरता! ऐसे जीव दौड़कर नरक न जावें तो अन्य कहाँ जावें ? ऐसे तीन Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aj [ भावधर्म-प्रका पापके परिणाम तो जिज्ञासुको होते ही नहीं। बहुतसे लोगोंको तो लक्ष्मी कमानेकी धुनमें अच्छी तरह खानेका समय भी नहीं मिलता; देश छोड़कर अनार्यकी तरह परदेशमें जाता है, जहाँ भगवानके दर्शन भी न मिलें, सत्संग भी न मिले! अरे भाई! जिसके लिये तूने इतना किया उस लक्ष्मीका कुछ तो सदुपयोग कर। पचास-साठ वर्ष संसारकी मजदूरी कर-करके मरने बैठा हो, मरते-मरते अन्त घडीमें बच जाय और खटियामें से उठे तो भी और वही का वही पापकार्यमें संलग्न हो जाय, परन्तु ऐसा नहीं विचारता कि अरे, समस्त जिन्दगी धन कमानेमें गर्वा दी और मुफ्तमें पाप बांधा, फिर भी यह धन तो कोई साथ चलनेका नहीं, इसलिये अपने बाथले ही राग घटाकर इसका कोई सदुपयोग करूँ, और जीवनमें आत्माका कुछ हित हो ऐसा उद्यम कर। देव-गुरु-धर्मका उत्साह, सत्पात्रदान, तीर्थयात्रा आदिमें राग घटाकर और लक्ष्मीका उपयोग करेगा तो भी तुझे अन्तरंगमें ऐसा सन्तोष होगा कि मात्माके हितके लिये मैंने कुछ किया है। अन्यथा मात्र पापमें ही जीवन बिताया तो तेरी लक्ष्मी भी निष्फल जावेगी और मरण समय तू पछतावेगा कि अरे, जीवनमें मात्महितके लिये कुछ नहीं किया; और अशान्तरूपसे देह छोड़कर कौन जाने कहाँ जाकर पैदा होगा? इसलिये हे भाई! छठेसे सातवें गुणस्थानमें मूलते मुनिराजने करुणा करके तेरे हितके लिये इस श्रावकधर्मका उपदेश दिया है। तेरे पास चाहे जितने धनका समूह हो, परन्तु उसमें तेरा कितना? तू दानमें खर्च करे उतना तेरा। राग घटाकर दानादि सत्कार्यमें खर्च हो उतना ही धन सफल है। बारम्बार सत्पात्रदानके प्रसंगसे, मुनिवरों-धर्मात्माओं आदिके प्रति बहुमान, विनय, भक्तिसे तुझे धर्मके संस्कार बने रहेंगे, और ये संस्कार परभवमें भी साथ चलेंगे। लक्ष्मी को परभवमें साथ नहीं चलती। इसलिये कहते हैं कि संसारके कार्यो में (विवाह, भोगोपभोग माविमें) तू लोभ करता हो तो भले कर, परन्तु धर्मकार्यों में तू लोभ मत करना, यहाँ तो उत्साहपूर्वक धर्तन करना। जो अपनेको धर्मी भावक कहलवाता है परन्तु धर्म-प्रसंगमें उत्साह तो आता नहीं, धर्मके लिये धन भादिका लोभ भी घटा नहीं सकता, तो भाचार्यदेव कहते हैं कि यह वास्तवमें धर्मी नहीं परन्तु दंभी है, भर्मीपनेका वह सिर्फ दंभ करता है। धर्मका जिसे वास्तव में रंग लगा हो उसे तो धर्मप्रसंगमें उत्साह माये ही; और धर्मके निमित्तों में जितना धन खर्च हो उतना सफल १-ऐसा समझकर दान मादिमें वह उत्साहसे धर्तता है। -सप्रकार दानकी बात कही; यही बात अब विशेष प्रकारसे कहते है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावधर्म-प्रकाश] 4.. kumare.......... [१४] ...... गृहस्थपना दानसे ही शोभता है धर्मको प्रभावना आदिके लिये दान करनेका प्रसंग आवे वहाँ धर्मके प्रेमी जीवका हृदय झनझनाता हुआ उदारतासे उछल जाता है कि-अहो, ऐसे उत्तम कार्यके लिये जितना धन खर्च किया जाये उतना सफल है। जो धन अपने हितके लिये काम न आवे और पन्धनका ही कारण हो-वह धन किस कामका ? -ऐसे धनसे धनवानपना कौन कहे ? सचा धनवान तो वह है कि जो उदारतापूर्वक धर्मकार्यों में अपनी लक्ष्मी खच करता है। भावकके हमेशाके जो छह कर्तव्य हैं, उनमेंसे दानका यह वर्णन बल सा है दानेनैव गृहस्थता गुणवती लोकद्वयोधोतिका नैव स्यान्ननु तहिना धनवतो लोकवयध्वंसकृत् । दुर्व्यापारशतेषु सत्सु गृहिणः पापं यदुत्पद्यते तन्नाशाय शशांकशुभ्रयशसे दानं न चान्यत्परम् ॥१४॥ धनवान मनुष्योंका गृहस्थपना दान द्वारा ही लाभदायक है, तथा दान द्वारा ही इसलोक और परलोक दोनोंका उद्योत होता है, दानरहित गृहस्थपना तो दोनों लोकोंका ध्वंस करनेवाला है। गृहस्थको सैकड़ों प्रकारके दुर्व्यापारले जो पाप होता है उसका नाश दान द्वारा ही होता है और दान द्वारा चन्द्रसमान उज्ज्वल यश प्राप्त होता है। इस प्रकार पापका नाश और यशकी प्राप्तिके लिये गृहस्थको सत्पात्रदानके समान अन्य कुछ नहीं । इसलिये अपना हित चाहनेवाले गृहस्थोंको दान द्वारा गृहस्थपना सफल करना चाहिये । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८) [ श्रावकधर्म-प्रकाश देव-गुरु-शास्त्रकी तरफके उल्लासके द्वारा संसारकी ओरका उल्लास कम होता है तब वहाँ दानादिके शुभभाव आते हैं, इसलिये गृहस्थको पाप घटाकर शुभभाष करना चाहिये-ऐसा उपदेश है। तृ शुभभाव कर ऐसा उपदेश व्यवहारमें होता है; परमार्थसे तो गगका कर्तृत्व आत्माके स्वभावमें नहीं। रागके कणका भी कर्तृत्व माने अथवा उसे मोक्षमार्ग माने तो मिथ्याष्टि है ऐसा शुद्धदृष्टिके वर्णनमें आता है। ऐसी दृष्टिपूर्वक रागकी बहुत मन्दता धर्मीको होती है। रागरहित स्वभाव दृषिमें ले और राग नहीं घटे ऐसा कैसे बने ? यहाँ कहते हैं कि जिसे दानादि शुभभावका भी पता नहीं, मात्र पापभावमें ही पड़ा है उसकी तो इस लोकमें भी शोभा नहीं और परलोकमें भी उसे उत्तम गति नहीं मिलती। पापसे बचनके लिये पात्रदान ही उत्तम मार्ग है । मुनिवरोंको तो परिग्रह ही नहीं, उनको तो अशुभ परिणति छूट गई है और बहुत आत्मरमणता वर्तती है-उनकी तो क्या बात ! यहाँ तो गृहस्थके लिये उपदेश है। जिसमें अनेक प्रकारके पापके प्रसंग हैं ऐसे गृहस्थपने में पापसे बखनेके लिये पूजा-दान-स्वाध्याय आदि कर्तव्य हैं । तीव्र लोभी प्राणीको सम्बोधन करके कार्तिकेय स्वामी तो कहते हैं कि अरे जीव ! यह लक्ष्मी चंचल है, इसकी ममता तू छोड़। तू तीन लोभसे अन्यके लिये (देव-गुरु-शास्त्रके शुभ कार्यों में ) तो लक्ष्मी नहीं खर्चता, परन्तु अपने शरीरके लिये तो खर्च ! इतनी तो ममता घटा। इस प्रकार भी लक्ष्मोकी ममता घटाना सीखेगा तो कभी शुभ कार्योंमें भी लोभ घटानेका प्रसंग आयेगा । यहाँ तो धर्मके निमित्तोंके प्रति उल्लासभावसे जो दानादि होता है उसकी ही मुख्य बात है । जिसे धर्मका लक्ष्य नहीं और कुछ मन्द रागसे दानादि करे तो साधारण पुण्य बँधता है, परन्तु यहाँ तो धर्मके लक्ष्य सहितके पुण्यकी मुख्यता है, इसलिये अधिकारके प्रारम्भमें ही अरहन्तदेवकी पहचान करायी है। शालमें तो जिस समय जो प्रकरण चलता हो उस समय उसका ही विस्तारसे वर्णन होता है, ब्रह्मचर्यके समय ब्रह्मचर्यका वर्णन होता है, और दानके समय दानका वर्णन होता है; मूलभूत सिद्धान्त लक्ष्यमें रखकर प्रत्येक कथनका भाव समझना चाहिये। लोगोंमें तो जिसके पास अधिक धन हो उसे लोग धनवान कहते हैं, परन्तु शासकार कहते हैं कि जो लोभी है उसके पास चाहे जितना धन पड़ा हो तो भी बह धनवान नहीं परन्तु रंक है, क्योंकि जो धन उदारतापूर्वक सत्कार्यमें खर्च करनेके काम न आवे, अपने हितके लिये काम न आवे मात्र पापबन्धका ही कारण हो वह धन किस कामका ? और ऐसे धनसे धनवानपना कौन माने ? सथा धनवान तो Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वधर्म-प्रकाश ] [ a वह है कि जो उदारतापूर्वक अपनी लक्ष्मीको दानमें खर्च करता हो । भले लक्ष्मी थाड़ी हो परन्तु जिसका हृदय उदार है वह धनवान है । और लक्ष्मीका डेर होते हुए मी जिसका हृदय ओछा है- कंजूस है वह दरिद्री है। एक कहावत है कि जैसे युद्ध में तलवार चलानेका प्रसंग आवे वहीं राजपूतकी शूरवीरता छिपी नहीं रहती, वह घरके कोनेमें चुपचाप नहीं बैठता, उसका शौर्य उछल जाता है, उसी प्रकार जहाँ दानका प्रसंग आता है वहाँ उदार हृदयके मनुष्यका हृदय छिपा नहीं रहता; धर्मके प्रसंग में प्रभावना आदिके लिये दान करनेका प्रसंग आवे वहाँ धर्मके प्रेमी जीवका हृदय झनझनाहट करना उदारतासे उछल जाता है। वह बचने का बहाना नहीं ढूँढ़ता, अथवा उसे बार-बार कहना नहीं पड़ता परन्तु अपने उत्साहसे ही दान आदि करता है कि अहो ! ऐसे उत्तम कार्यके लिये जितना दान करूँ उतना कम है । मेरी जो लक्ष्मी ऐसे कार्यमें खर्च हो वह सफल है । इसप्रकार श्रावक दान द्वारा अपने गृहस्थपनेको शोभित करता है। शास्त्रकार अब इस बातका विशेष उपदेश देते हैं। કર रण चढ़ा रजपूत छुपे नहीं.... दाता छुपे नहीं घर माँगन आये..... *********** संसारमें जब हजारों प्रकारकी प्रतिकूलता एकसाथ आपड़े, कहीं मार्ग न सूझे, उस समय उपाय क्या ? उपाय एक ही कि- धैर्यपूर्वक ज्ञानभावना । ज्ञानभावना क्षणमात्रमें सब प्रकारकी उदासीको नट कर हितमार्ग सुझाती है, शांति देती है, कोई अलौकिक धैर्य और अचित्य शक्ति देती है । गृहस्थ श्रावकको भी "ज्ञानभावना" होती है। ** **** **** Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९.] -41.2 . 2 *** . * [ भावकधर्म-प्रकाश ...............[१५]....... : पात्रदानमें उपयोग हो वही सच्चा धन है in.............. ............... देव-गुरु-धर्मके प्रसंगमें बारम्बार दान करनेसे धर्मका संस्कार ताजा रहा करता है और धर्मको रुचिका बारम्बार घोलन होनेसे । आगे बढ़नेका कारण होता है....जो जीव पापकार्यमें तो उत्साहसे धन खच करता है और धर्मकार्योंमें कंजूसी करता है उसे धमका सच्चा प्रेम । नहीं, धर्मका प्रेमवाला गृहस्थ संसारको अपेक्षा विशेष उत्साहसे धर्मकार्यों में । वर्तता है। ___ गृहस्थका जो धन पात्रदानमें खर्च हो वही सफल है-ऐसा कहकर दानकी प्रेरणा देते हैं पात्राणामुपयोगी यत्किल धनं तत्धीमतां मन्यते येनानन्तगुणं परत्र सुखदं व्यावर्तते तत्पुनः । यभोगाय गतं पुनर्धनयतः तन्नष्टमेव ध्रुवं सर्वासामिति सम्पदां गृहवतां दानं प्रधानं फलम् ।। जो धन सत्पात्र-दानके उपयोगमें आता है उस धनको हो बुद्धिमान वास्तवमें धन समझते हैं, क्योंकि सत्पात्रमें खर्च किया हुमा धन परलोकमें अनन्तगुना होकरके सुख देवेगा। परन्तु जो पन भोगादि पापकार्यों में खर्च होता है वह तो सही रूपमें नष्ट हो जाता है। इस प्रकार पात्रदान गृहस्थको समस्त सम्पदाका उत्तमफल है ऐसा समझना । देखो, ऐसा समझे उसके पापपरिणाम कितने कम हो जावें ! और पुण्यपरिणाम कितने बढ़ जावें ! और फिर धर्म तो इनसे भी भिन्न तीसरी ही वस्तु है। भाई, पाप और पुण्यके बीचमें विवेक कर, कि संसारके भोगादिके लिये जो कर वह Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावधर्म-प्रकाश तो मुझे पापबन्धका कारण है; और धर्म प्रसंगमें, धर्मात्माके गुमान मादिक लिये जो करूँ वह पुण्यका कारण है, और उसके फलस्वरूप परलोकमें पेसो सम्पदा मिलेगी । परन्तु धर्मात्मा तो इस सम्पदाको भी छोड़कर, मुनि होकर, रागरहित ऐसे केवलझानको साधकर मोक्ष प्राप्त करेगा । इस प्रकार तीनोंका विवेक करके धर्मी जोष जहाँ तक मुनिदशा न हो सके वहाँ तक गृहस्थ अवस्थामें पापसे बचकर दानादि शुभकार्यों में प्रवर्तता है। श्रो पननन्दि स्वामीने दानका विशेष रूपसे अलग अधिकार भी वर्णन किया है। ( उसके ऊपर भी अनेक बार प्रवचन हो गया है) भाई ! स्त्री मादिके लिये तू जो धन खर्च करता है वह तो व्यर्थ है, पुत्र-पुत्रीके लग्न आदिमें पागल होकर धन खर्च करता है वह तो व्यर्थ है, मात्र व्यर्थ ही नहीं परन्तु उलटे पापका कारण है। उसके बदले हे भाई! जिनमंदिरके लिये, वीतरागी शालोंके लिये तथा धर्मात्मा-श्रावक-साधर्मी आदि सुपात्रोंके लिये तेरी लक्ष्मी खर्च हो वह धन्य है! लक्ष्मी तो एक जड़ है, परन्तु उसके दानका जो भाव है वह धन्य है-ऐसा समझना, क्योंकि सत्कार्यमें जो लक्ष्मी खर्च हुई उसका फल अनन्तगुना मावेगा। इसकी इष्टिमें धर्मकी प्रभावनाका भाव है अर्थात् आराधकभावसे पुण्यका रस अनन्तगुना बढ़ जाता है। नव प्रकारके देव कहे है-पंच परमेष्ठी, जिनमंदिर, जिनबिम्ब, जिनवाणी और जिनधर्म, इन नौ प्रकारके देवोंके प्रति धर्मीको भक्तिका उल्लास भाता है। जो जीव पापकार्यों में तो धन उत्साहसे खर्च करता है और धर्मकार्योंमें कंजूसी करता है, तो उस जीवको धर्मका सच्चा प्रेम नहीं, धर्मकी अपेक्षा संसारका प्रेम उसे अधिक है। धर्मका प्रेमवाला गृहस्थ अपनी लक्ष्मी संसारकी मपेक्षा अधिक उत्साहसे धर्मकार्यों में खर्च करता है। मरे, चैतन्यको साधने के लिये जहाँ सर्पसंगपरित्यागी मुनि दोनेकी भावना हो, वहाँ लक्ष्मीका मोह न घटे यह कैसे बने ? लक्ष्मीमें, भोगामें अथवा शरीरमें धर्मीको सुखबुद्धि नहीं होती। आत्मीय सुख जिसने देखा है अर्थात् विशेष सुखोंकी तृष्णा जिसे नष्ट हो गई है। जिसमें सुख नहीं उसकी भावना कौन करे? इस प्रकार धर्मात्माके परिणाम अत्यन्त कोमल होते हैं, तीव्र पापभाव उसे होता नहीं। लोभियोंके हेतु कौवेका उदाहरण शास्त्रकारने दिया है। जली हुई रसोईकी खुरचन मिले वहाँ कौवा कवि-काव करता रहता है, वहीं अलंकारसे भाचार्य बताते है कि मरे, यह कौवा भी कांव-काव करता हुवा अन्य कौवोंको इकट्ठा करके बाता.है, मौर तू राग द्वारा तेरे गुण जले तब पुण्य अंधा और उसके फलमें यह लक्ष्मी मिली, Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आवकधर्म-प्रका ] इस तेरे गुणके जले हुए खुरखनको जो तू अकेला अकेला खावे और साधर्मी-प्रेम मरहमें उसका उपयोग न करे तो क्या कौवेसे भी तू गया-बीता हो गया ? अतः हे भाई, पात्रदानकी महिमा जानकर तू तेरी लक्ष्मीका सदुपयोग कर । प्रद्युम्न कुमारने पूर्वभवमें औषधिदान किया था, उससे कामदेव जैसा रूप तथा अनेक ऋद्धियाँ मिली थीं लक्ष्मणकी पटरानी विशल्यादेवीने पूर्वभवमें एक अजगरको करुणाभावसे अभयदान किया उससे ऐसी ऋद्धि मिली थी कि उसके स्मानके पानीले लक्ष्मण आदिकी मूर्च्छा उतर गई । वज्रजंघ और श्रीमती S की बात भी प्रसिद्ध है; वे आहारदानसे भोगभूमिमें उत्पन्न हुए और वहाँ मुनिराजके उपदेशसे उन्होंने सम्यग्दर्शन पाया था उनके आहारदानमें अनुमोदन करने वाले चारों जीव ( सिंह, बन्दर, नेवला और सूवर ) भी भोगभूमिमें उनके साथ हो जन्मे और सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सके । सम्यग्दर्शन कोई पूर्वके शुभरागका फल नहीं; परन्तु सम्यग्दर्शन हुवा इसलिये पूर्वके रागको परम्परा - कारण भी कहनेमें माता है, ऐसी उपचारकी पद्धति है । देव-गुरु- धर्मके प्रसंगमें बारम्बार दान करनेसे तेरे धर्मके संस्कार ताजे रहा करेंगे, और धर्मकी रुचिका बारम्बार चिन्तन होनेसे तुझें आगे बढ़नेका कारण बनेगा । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकारी-प्रकारा | धर्मके प्रेम सहित दानादिका जो भाव हुआ वह पूर्वमें अनन्तकालमें नहीं दुवा इसलिये अपूर्व है, और उसके फलमें जो शरीर आदि मिलेंगे वे भी अपूर्ण है, क्योंकि भाराधकभाव सहित पुण्य जिसमें निमित्त हो ऐसा शरीर भी पहले महानदशामें कभी नहीं मिला था। जीवके भावोंमें अपूर्वता होने पर संयोगोंमें भी अपूर्वता हो गई। सत्पात्रदानके प्रसंगसे अन्तरमें स्वयंको धर्मकी प्रीति पुष्ट होती है उसकी मुख्यता है; उसके साथका राग और पुण्य भी जदा प्रकारका होता है। -इसप्रकार दानका उत्तम फल जानना । SAdda Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भावकवर्म-प्रमाण .......... [१६] .......... पुण्यफलको छोड़कर धर्मी जीव मोक्षको साधता है . 我看着投资者最普車本身资者事者参事長者 + အစ္စ प्रभो ! दिव्यध्वनि द्वारा आपने आत्माके अचिन्त्य निधानको स्पष्ट रूपसे बताया, तो अब इस जगत्में ऐसा कौन है जो इसके खातिर राजपाटके निधानको तृणसम समझकर न छोड़े ?और चैतन्यनिधानको न साधे ? अहा, चैतन्यके आनन्दनिधानको जिसने देखा उसे रागके फलरूप बाह्य-वैभव तो तृणतुल्य SSSSSSS लगता है। 800000SSSSSss * 655555550000 पुत्रे राज्यमशेषमर्थिषु धनं दत्वाऽभयं प्राणि प्राप्ता नित्यमुखास्पदं मुतपसा मोक्षं पुरा पार्थिवाः । मोक्षस्यापि भवेत्ततः प्रथमतो दानं निधानं बुधैः शक्त्या देय मिदं सदातिचपले द्रव्ये तथा जीविते ॥ १६ ॥ यह जीवन और धन दोनों अत्यंत क्षणभंगुर है-ऐसा जानकर चतुर पुरुषोंको सदा शक्ति अनुसार दान करना चाहिये, क्योंकि मोक्षका प्रथम कारण दान है। पूर्षमें भनेक राजामोंने याबक जनोंको धन देकर, सब प्राणियोंको अभय देकर भौर समस्त राज्य पुत्रको देकर सम्यक्तप द्वारा नित्य सुखास्पद मोक्ष पाया । देखिये, यहाँ ऐसा बताते हैं कि दानके फलमें धर्मी जीवको राज्य-सम्पदा धगैरह मिले उसमें वह सुख मानकर मूञ्छित नहीं होता, परन्तु दानादि द्वारा उसका त्यांग करके मुनि होकर मोक्षको साधने चला जाता है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषकधर्म-प्रकाश [१ जिस प्रकार चतुर किसान बीजकी रक्षा करके पाकीका अनाज भोगता है, और बीज बोता है उसके हजारोंगुने दाने पकते है, उसी प्रकार धर्मोजीव पुण्यफलरूप लक्ष्मी वगैरह वैभवका उपभोग धर्मकी रक्षापूर्वक करता है, और दानानि सत्कार्योमें लगाता है, जिससे उसका फल बढ़ता जाता है और भविष्यमें तीर्थकरदेवका समवसरण तथा गणधरादि संत-धर्मात्मामोंका योग वगैरह धर्मके उत्तम निमित्त मिलते हैं, वहाँ आत्मस्वरूपको साधकर, बाह्यपरिग्रह छोड़कर, मुनि होकर, केवलज्ञानरूप अनन्त आत्मवैभवको प्राप्त करता है। पुण्यके निषेधकी भूमिकामें ( अर्थात् वीतरागभाषको साधते साधते) बानी को अनन्तगुना पुण्य बंधता है। पुण्यकी रुचिवाले अज्ञानीको जो पुण्य बंधे उससे पुण्यका निषेध करनेवाले ज्ञानीकी भूमिकामें जो पुण्य बंधे वह अलौकिक होता है जिससे तीर्थकर-पद मिले, चक्रवर्ती-पद मिले, बरदेव-पर मिले ऐसा पुण्य आराधक जीवको ही होता है, रागकी रुचि घाले विराधकको ऐसा पुण्य नहीं बँधता । और पुण्यका फल आवे नब भी ज्ञानी उन संयोगोंको अनुष-भणभंगुर बिजली जैसे चपल जानकर उनका त्याग करता है, और भव ऐसे सुखधाम आत्माको साधने हेतु सर्वसंगत्यागी मुनि होता है और मोभको साधता है। पहलेसे ही दानकी भावना द्वारा राग घटाया था उससे आगे बढ़ते बढ़ते सर्वमंग छोड़कर मुनि होता है । परन्तु पहलेसे ही गृहस्थपने में दानादि द्वारा थोड़ा भी गग घटाते जिससे नहीं बनता, रागरहित स्वभाव कग है वह लक्ष्य में भी नहीं लेता. वह सर्व रागको छोड़कर मुनिपना कहाँसे लेगा ?-इस अपेक्षासे मोभका प्रथम कारण दान कहा गया है। मानी जानता है कि, एक तो लक्ष्मी इत्यादि बाह्यसंयोगमें मेरा सुख जरा भी नहीं; फिर संयोग भणभंगुर है, और उसका आना-जाना तो पूर्वके पुण्य-पापके आधीन है। पुण्य हो तो, दाममें खर्च करनेसे लक्ष्मी समाप्त नहीं होती, और पुण्य समाप्त हो तो लाल उपाय द्वारा भी वह रहती नहीं। ऐसा मानते हुये यह महापुरुष धन वगैरह छोड़कर मुनि होता है; और सर्व परिप्रह छोड़कर मुनिपना न लेते बने तबतक उसका उपयोग दानादिमें करता है। इस प्रकार त्याग अथवा दान-ये दो ही लक्ष्मीके उपयोगके उत्तम मार्ग है। अज्ञानी तो परिप्रहमें सुख माननेसे उसकी ममता करके उसे साथमें ही रखना चाहता है। " जितना बढ़े परिग्रह उतना बढ़े सुख" -ऐसी अज्ञानीको भ्रमणा है। जानी जानता है कि जितना परिप्रह छुटे उतना सुख मात्र वायत्यागको बात नहीं: अंदरका मोह छटे तब परिग्रह छूटा कहनेमें माता। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाषाधर्म साल महा, चैतन्यका आनन्दनिधान जिसने देखा उसे रागके फलम्प बाह्य वैभव तो तुणतुल्य लगता है। ऋषभदेव भगवानकी स्तुतिमें पननंदी स्वामी कहते हैं कि अहो माय! दिव्यध्वनि द्वारा आपने आत्माके अचिन्त्य निधानको स्परूपसे बताया, तो मब इस जगत्में ऐसा कौन है कि उस निधानके खातिर इस राजपाटके निधानको तृणसमान समझकर न त्यागे?-और चैतन्यनिधानको न साधे! देखो तो, बाहुबली जैसे बलवान योद्धा गज. सम्पदा छोड़कर इस प्रकार चले गये कि पीछे फिरकर भी नहीं देखा कि राज्यका क्या हाल है ! चैतन्यकी साधनामें अदिगरूपसे ऐसे लीन हुए कि खड़े खड़े ही केवल. ज्ञान प्राप्त कर लिया। शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ जैन चक्रवर्ती-तीर्थकर वैसे ही भग्तचक्रवर्ती, पाण्डव आदि महापुरुष भी क्षणमात्रमें राज्य वैभव छोड़कर मुनि हुए; उनके जीवनमें प्रारम्भसे ही भिन्नताकी भावनाका घोलन था । वे रागसे और राजसे पहले हो से अलिप्त थे, इसलिये क्षणभरमें हो जिसप्रकार सर्प कांचली उतारता है उसी प्रकार के राज्य और राग दोनोंको छोड़कर मुनि हुए और उन्होंने स्वरूपका साधन किया। अज्ञानीको तो साधारण परिप्रह की ममता छोड़नी भी कठिन पड़ती है। चक्रवर्तीकी सम्पदाको तो क्या बात ! परन्तु उन्होंने चैतन्यसुखके सामने उसे भो तुच्छ समझकर एक भणमें छोड़ दी। इसलिये कवि कहते हैं कि छयानवे हजार नार छिनकमें दीनी छार; अरे मन ! ता निहार, काहे तू डरत है ? छहों खण्डकी विभूति छांड़त न बेर कीनीं, चमू चतुरंगन सों नेह न धरत है। नौ निधान आदि जे चौदह रतन त्याग, देह सेती नेह तोड़ वन विचरत है; ऐसो विभौ न्यागत विलम्ब जिन कीन्हीं नाही, तेरे कहो केती निधि ? सोच क्यों करत है ? मरे, लक्ष्मी और जीवन अत्यन्त ही अस्थिर है, उसका क्या भरोसा ? लक्ष्मीका दूसरा नाम 'चपला' कहा है, क्योंकि वह इन्द्रधनुष जैसी चपल है-क्षणभंगुर है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकवर्म-प्रकाश ] है। लक्ष्मी कब चली जावेगी और जीवन कब समाप्त हो जावेगा इसका कोई भरोसा नहीं, कलका करोड़पति अथवा राजा-महाराजा आज भिखारी बन जाता है, भाजका निरोगी दूसरे क्षण मर जाता है, सुबह जिसका राज्याभिषेक हुआ संध्या समय उसकी ही चिता देखने में आती है। भाई, ये तो सब अध्रुव है, इसलिये ध्रुव चैतन्यस्वभावको दृष्टिमें लेकर इस लक्ष्मी आदिका मोह छोड़ । धर्मी श्रावक अथवा जिज्ञासु गृहस्थ अपनी वस्तुमेंसे शक्तिअनुसार याचकोंको इच्छित दान देखें । दान योग्य वस्तुका होता है, अयोग्य वस्तुका दान नहीं होता । लौकिक कथाओं में आता है कि किसी राजाने अपने शरीरका मांस काटकर दानमें दिया, अथवा अमुक भक्तने अपने किसी एक पुत्रका मस्तक दान में दिया,-परन्तु यह वस्तु धर्मसे विरुद्ध है, यह दान नहीं कहलाता, यह तो कुदान है। दान देनेवालोंको भो योग्य-अयोग्यका विवेक होना चाहिये । जो कि आदरणीय धर्मात्मा आदिको आदरपूर्वक दान देवें, और अन्य दीन दुस्खी जीवोंको करुणाबुद्धिसे दान देवें । धर्मीको ऐसी भावना होती है कि मेरे निमित्तसे जगतमें किसी प्राणीको दुःख न हो। सर्व प्राणियोंके प्रति अहिंसाभावरूप अभयदान है । और शास्त्रदान आदिका वर्णन भी पूर्वमें हो गया है। ऐसे दानको मोक्षका प्रथम कारण कहा गया है। ___ प्रश्नः-मोक्षका मूल तो सम्यग्दर्शन है, तो यहाँ दानको मोक्षका प्रथम कारण कैसे कहा? ___ उत्तरः-पहले प्रारम्भमें सर्वक्षकी पहचानकी बात को थी, उस सहितको यह बात है। उसी प्रकार श्रावकको प्रथम भूमिकामें धर्मका उल्लास और दामका माव अवश्य होता है उसे बतानेके लिये व्यवहारसे उसे मोनका प्रथम कारण कहा है। इतना राग घटाना भी जिसे नहीं रुचे वह मोक्षमार्गमें कैसे आवेगा ? वीतरागदृष्टिपूर्वक जितना राग घटा उतना मोक्षमार्ग है। पहले दानादिमें राग घटाना सीखेगा तो आगे बढ़कर मुनिपना लेवेगा और मोक्षमार्गको साधेगा । इस अपेक्षासे दानको मोक्षका प्रथम कारण कहा है-ऐसा समझना । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] [ भावकधर्म-प्रकाश @@Gee GEECCC ......................[१७]ommen......... मनुष्यपना प्राप्त करके या तो मुनि हो, या दान दे .................... ......... . ..... ®®®®®®®®®®®®फ ७000000000000 - जैनधर्मका चरणानुयोग भी अलौकिक है । द्रव्यानुयोगके अध्यात्म का और चरणानुयोगके परिणामका मेल होता है । दृष्टि सुधरे और • परिणाम चाहे जैसे हुआ करें ऐसा नहीं बनता । अध्यात्मकी दृष्टि हो ७ वहाँ देव-गुरुकी भक्ति, दान, साधर्मीके प्रति वात्सल्य आदि भाव - सहज आते ही हैं। श्रावकके अन्तरमें मुनिदशाकी प्रीति है इसलिये ॐ हमेशा त्यागकी ओर लक्ष रहा करता है, और मुनिराजको देखते ७ - ही भक्तिसे उसके रोम-रोम उल्लसित हो जाते हैं। भाई ! ऐसा * मनुष्य-अवतार मिला है तो मोक्षमार्ग साधकर इसे सफल कर । & 00000000 0 0000000000000 आवकधर्मका वर्णन सर्वक्षकी पहिचानसे शुरू किया था, उसमें यह दानका प्रकरण चल रहा है। उसमें कहते हैं कि ऐसा दुर्लभ मनुष्यपना प्राप्त करके जो मोक्ष का उद्यम नहीं करता अर्थात् मुनिपना भी नहीं लेता और दानादि भावकधर्मका भी पालन नहीं करता, वह तो मोहबंधनमें बँधा हुवा है ये मोक्षप्रति नोधताः मुनुभवे लब्धेपि दुर्बुद्धयः ते तिष्ठति गृहे न दानमिह चेत् तन्मोहपाशो दृढः । मत्वेदं गृहिणा यदि विविध दानं सदा दीयतां तत्संसारसरित्पति प्रतरणे पोतायते निश्चितं ॥ १७ ॥ ऐसा उत्तम मनुष्यभव प्राप्त करके भी जो कुबुद्धि जीव मोक्षका उद्यम नहीं करता और गृहस्थपनेमें रहकर दान भी नहीं देता उसका गृहस्थपना दृढ़ मोहपाशके समान है। ऐसा समझकर गृहस्थके लिये अपनी शक्ति अनुसार विविध प्रकार दान देना सदा कर्तव्य है, क्योंकि गृहस्थको तो दान संसारसमुद्रसे तिरनेके लिये निश्चित् जहाजके समान है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश प्रथम तो ऐसे मनुष्यपनेको पाकर मुनि होकर मोक्षका साक्षात् उचम करना चाहिये । उतनी शक्ति न होवे तो गृहस्थपने में रहकर दान तो जरर करना चाहिये । इतना भी जो नहीं करते और संसारके मात्र पापमें ही लगे रहते हैं ये तो तीव मोह. के कारण संसारकी दुर्गतिमें कष्ट उठाते हैं। इससे बचने के लिये दान उत्तम जहाजके समान है। दानमें देव-गुरु-शास्त्रके प्रसंगकी मुख्यता है, जिससे उसमें धर्म. का संस्कार बना रहे और राग घटता जावे । तथा आगे जाकर मुनिपना होकर वह मोक्षमार्गको साध सके। श्रावकके अन्तःकरणमें मुनिदशाकी प्रीति है इसलिये हमेशा त्यागकी ओर लक्ष रहा करता है; मुनिराजको देखते ही भक्तिसे उसको रोम रोम पुलकित हो जाते हैं। मुनिपनाकी भावनाकी बातें करे और अभी राग थोड़ा भी घटानेका ठिकाना न हो, लोभादि असीम हो ऐसे जीवको धर्मका सबा प्रेम नहीं। धर्मों जीव मुनि अथवा अर्जिका न हो सके तो भले ही गृहवासमें रहता हो, परन्तु गृहवासमें रहते हुये भी इसकी मात्मामें कितनी उदासीनता है ! अरे, यह मनुष्य अवतार मिला है, जैनधर्मका और सत्संगका ऐसा उत्तम योग मिला है तो आत्माको साधकर मोक्षमार्ग द्वारा उसको सफल कर। जो संसारके मोहमें ही जीवन बिताता है उसके बदले आन्तरिक प्रयत्न द्वारा मात्मामें से माल बाहर निकाल, मात्माका वैभव प्रगट कर ! बैतन्यनिधानके सामने जगतके अन्य सभी निधान तुच्छ हैं। अहा, संतोंने इस चैतनिधानको स्पष्ट रूपसे दिखा दिया; उसे साधकर, परिग्रह छोड़कर इस चैतन्य खजानेको न लेवे ऐसा मूर्ख कौन है? चैतन्यनिधानको देखनेके पश्चात् बाहरके मोहमें लगा रहे ऐसा मूर्य कौन है? करोड़ों रुपया देने पर भी जिस भायुज्यका एक समय भी बढ़ नहीं सकता ऐसे इस किंमती मनुष्य जोवनको जो व्यर्थ गमाते हैं और जन्म-मरणके मंतका उपाय नहीं करते वे दुर्बुद्धि हैं। भाई, इस आत्माको साधनेका अवसर है। तेरे बजानेमेसे जितना बैभव निकले उतना निकाले ऐसी बात है,। अरे, इस अवसरको कौन बोधे? मानन्दका भंडार खुले तो आनन्दको कौन न केवे ? बड़े बड़े पकवतियोंने मौर मस्यायु राजकुमारोंने इस चैतन्य-खजानेको लेने हेतु बाहरके बजानेको छोड़छोड़कर बनमें गमन किया और अंतरमें ध्यान करके सर्वपदके भचिन्त्य खजाने को बोला, उन्होंने जीवन सफल किया। इसप्रकार धर्मात्मा तो मात्माका मानन्द-बजाना कैसे बड़े उसीमें ही उचमी है। जो दुर्बुद्धि जीव ऐसा उद्यम नहीं करता, तृष्णाकी तीव्रतासे परिप्रह ही इकट्ठा किया करता है उसका तो जीवन व्यर्थ है। दानके बिना पहस्थ तो मोरकी जालमें Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] [ भावकधर्म-प्रकाश फंसे हुएके समान है। जिस प्रकार रसना-इन्द्रियकी तीव्र लोलुपी मछली जालमें फस जानी है और दुःखी होती है, उसी प्रकार तीव लोलुपी गृहस्थ मिथ्यात्व-मोहकी जालमें फँसा रहता है और संसारभ्रमणमें दुःखी होता है। ऐसे संसारसे बचने हेतु दान नौकासमान है। अतः गृहस्थोंको अपनी ऋद्धिके प्रमाणमें दान करना चाहिये। "ऋद्धिके प्रमाणमें" का अर्थ क्या? लाखों-करोड़ोंकी सम्पत्तिमें से पांचदम रुपया खर्चे-वह कोई ऋद्धिके प्रमाणमें नहीं कहा जा सकता । अथवा अन्य कोई करोड़पतिने पाँच हजार वर्च किये और मैं तो उससे कम सम्पत्ति वाला हैअतः मुझे तो उमसे कम खर्च करना चाहिये-ऐसी तुलना न करे । मुझे तो मेरे राग घटाने हेतु करना है ना ? उसमें दुसरेका क्या काम है ? प्रश्नः-हमारे पास ओछी सम्पत्ति होवे तो दान कहाँसे करें ? उत्तरः-भाई, विशेष सम्पति होवे तो ही दान होवे ऐसी कोई बात नहीं। और तू तेरे संसारकार्यो में तो खर्च करता है कि नहीं ? तो धर्मकार्यमें भी उल्लासपूर्वक मोठी सम्पत्तिमें से तेरी शक्ति प्रमाण स्वर्च कर । दानके बिना गृहस्थपना निष्फल है। अरे, मोक्षका उद्यम करनेका यह अवसर है। उसमें सभी राग न छुटे तो थोड़ा राग तो घटा! मोक्ष हेतु तो सभी राग छोड़ने पर मुक्ति है: दानादि द्वारा थोड़ा राग भी घटाते तुझसे जो नहीं बनता तो मोक्षका उद्यम तू किस प्रकार करेगा? अहा, इस मनुष्यपने में आत्मामें रागरहित ज्ञानदशा प्रगट करनेका प्रयत्न जो नहीं करता और प्रमादसे विषय-कषायोंमें ही जीवन बिताता है वह तो मूदबुद्धि मनुष्यपना खो देता है-बादमें उसे पश्चाताप होता है कि अरे रे! मनुष्यपने में हमने कुछ नहीं किया! जिसे धर्मका प्रेम नहीं, जिस घरमें धर्मात्माके प्रति भक्तिके उल्लाससे तन-मन-धन नहीं लगाया माता वह वास्तवमें घर ही नहीं है परन्तु मोहका पिंजरा है, संसारका जेलखाना है। धर्म की प्रभावना और दान द्वारा ही गृहस्थपनेकी सफलता है । मुनिपनेमें रहते हुए तीर्थकरको अथवा अन्य महामुनियोंको आहारदान देने पर रत्मवृष्टि होती है-ऐसी पात्रदानकी महिमा है। एकबार माहारदानके प्रसंगमें एक धर्मात्माके यहां रत्नवृष्टि हुई, उसे देखकर किसीको ऐसा दुभा कि मैं भी दान देऊँ जिससे मेरे यहां भी रत्न बरसें । -ऐसो भावनासहित आहारदान दिया, आहार दंता जाये और भाकाशको ओर देखता जावे कि अब मेरे मांगनमें रत्न बरसेंगे; परन्तु कुछ नहीं बरसा। देखिये, इसे दान नहीं कहते; इसमें मूड Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्म-प्रकाश ] [ २०१ जीवके लोभका पोषण है। धर्मी जीव दान देवे उसमें तो उसे गुणोंके प्रति प्रमोद है और राग घटानेकी भावना है। पहले मूर्खतावश कुदेव- कुगुरु पर जितना प्रेम था उसकी अपेक्षा अधिक प्रेम यदि मच्चे देव - गुरुके प्रति न आवे तो उसने सच्चे देषगुरुको वास्तव में पहिचाना ही नहीं, माना नहीं, वह देव-गुरुका भक्त नहीं; उसे तो सत्तास्वरूपमें कुलटा- स्त्री समान कहा है । देखिये, इस जैनधर्मका चरणानुयोग भी कितना अलौकिक है ! जैन श्रावकके आचरण किस प्रकार होवें उसकी यह बात है। रागकी मन्दताके आचरण बिना जैन श्रावकपना नहीं बनता। एक रागके अंशका कर्तृत्व भी जिसकी दृष्टिमें रहा नहीं ऐसे आचरण में राग कितना मंद पड़ जाता है ! पहले जैसे ही राग-द्वेष किया करे तो समझना कि इसकी होटमें कोई अपूर्वता नहीं आई, इसकी रुचि में कोई परिवर्तन नहीं हुआ । रुचि और दृष्टि बदलते ही सारी परिणतिमें अपूर्वता आ जाती है, परिणामकी उथलपुथल हो जाती है । इसप्रकार द्रव्यानुयोगके अध्यात्मका और चरणानुयोग के परिणामका मेल होता है । दृष्टि सुधरे और परिणाम चाहे जैसे हुआ करें ऐसा नहीं बनता । देव गुरुके प्रति भक्ति, दान वगैरह परिणामकी मन्दताका जिसको ठिकाना नहीं है उसे तो दृष्टि सुधारनेका प्रसंग नहीं । जिज्ञासुकी भूमिकामें भी संसारको तरफके परिणार्मोकी अत्यंत ही मन्दना हा जाती है और धर्मका उत्साह बढ़ जाता है । दानादिके शुभपरिणाम मोक्षके कारण हैं- ऐसा चरणानुयोगमें उपचारसे कहा जाता है, परन्तु उसमें स्वसन्मुखता द्वारा जितने अंश गगका अभाव होता है उतने अंश मोक्षका कारण जानकर दानको उपचारसे मोक्षका कारण कहा इसप्रकार परम्परासे वह मक्षिका कारण होगा, परन्तु किसे ? जो शुभराग में धर्म मानकर नहीं अटके उसे । परन्तु शुभगगको ही जो खरेखर मोक्षका कारण मानकर अटक जावेगा उसके लिये तो वह उपचार से भी मोक्षमार्ग नहीं । वीतरागी शास्त्रोंका कोई भी उपदेश राग घटाने हेतु ही होता है, रागके पोषण हेतु नहीं होता । अद्दो, जिसे अपनी आत्माका संसारसे उद्धार करना है उसे संसारले उद्धार करनेका मार्ग बताने वाले देव-गुरु- धर्मके प्रति परम उल्लास आता है । जो भवसे पार हो गये उनके प्रति उल्लाससे राग घटाकर स्वयं भी भवसे पार होनेके मार्गमें आगे बढ़ता है। जो जीव संसारसे पार होनेका इच्छुक होवे उसे कुदेव, कगुरु, कुशास्त्रके प्रति प्रेम आता ही नहीं, क्योंकि उनके प्रति प्रेम तो संसारका ही फारण है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भावकधर्म-प्रकाश प्रमः-सच्चे देव-गुरुके प्रति प्रेम करना भी तो राग ही है ना? उत्तरः-यह सत्य है, परन्तु सच्चे देव-गुरुको पहिचान सहित उनके तरफका राग सबेरेकी लालिमा जैसा है. उसके बाद थोड़े समयमें ही वीतरागतासे जगमगाता हुआ सूर्य उदय होगा। और कुदेव आदिका राग तो सन्ध्याकी लालिमा जैसा है, उसके पश्चात् अन्धकार है अर्थात् संसारभ्रमण है। जहाँ धर्मके प्रसंगमें आपत्ति पड़े वहाँ तन-मन-धन अर्पण करनेमें धर्मी चूकता नहीं; उसे कहना नहीं पड़ता कि भाई! तुम ऐसा करो ना! परन्तु संघ पर, धर्म पर अथवा साधर्मी पर जहाँ मापत्तिका प्रसंग आवे और आवश्यकता पड़े वहाँ धर्मात्मा अपनी सारी शक्तिके साथ तैयार ही रहता है। जिसप्रकार रण-संग्राममें राजपूतका शौर्य छिपता नहीं उसी प्रकार धर्म-प्रसंगमें धर्मात्माका उत्साह छिपा नहीं रहता। धर्मात्माका धर्मप्रेम ऐसा है कि धर्मप्रसंगमें उसका उत्साह छिपा नहीं र सकता; धर्मकी रक्षा खातिर अथवा प्रभावना खातिर सर्वस्व स्वाहा करनेका प्रसंग मावे तो भी पीछे मुड़कर नहीं देखे। ऐसे धर्मोत्साहपूर्वक दानादिका भाव भावकको भव-समुद्रसे पार होने हेतु जहाज समान है। अतः गृहस्थोंको प्रतिदिन दान देना चाहिये। -इस प्रकार दानका उपदेश दिया गया. अब जिनेन्द्रभगवानके दर्शनका विशेष उपदेश दिया जाता है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०६ भाषा-प्रकाश ................... [१८] ........ जिनेन्द्र-दर्शनका भावभरा उपदेश ... ......... भगवानकी प्रतिमा देखते ही 'अहो, ऐसे भगवान !' इस प्रकार एक बार भी जो मजदेवके यथार्थ स्वरूपको लक्षगन करले तो कहते हैं कि भवसे तेरा बेड़ा पार है । प्रातःकाल भगवानके दर्शन द्वारा अपने इष्ट-ध्येयको स्मरण करके बादमें ही श्रावक दूसरी प्रवृत्ति करे । इसी प्रकार स्वयं भोजन करनेके पूर्व मुनिवरोंको याद करे कि अहा, कोई सन्त-मुनिराज अथवा धर्मात्मा मेरे आंगनमें पधारें और भक्ति-पूर्वक उन्हें भोजन करा करके पोछे मैं भोजन करूं । देव-गुरुकी भक्तिका ऐसा प्रवाह श्रावकके हृदयमें बहना चाहिये । भाई प्रातःकाल उठते ही तुझे वीतराग भगवान को याद नहीं आती, धर्मात्मा सन्त-मुनि याद नहीं आते और संसारके अवार, व्यापार-धन्धा अथवा स्त्री आदिकी याद आती है, तो तु ही विचार कि नेरी परिणति किस ओर जा रही है? भगवान् सर्वशदेवकी श्रद्धा पूर्वक धर्मी धावकको प्रतिदिन जिनेन्द्रदेवके दर्शन, स्वाध्याय, दान आदि कार्य होते हैं उसका वर्णन चल रहा है। उसमें सातवीं गाथासे प्रारम्भ करके सत्रहवीं गाथा तक अनेक प्रकारसे दान का उपदेश किया । जो जीव जिनेन्द्रदेवके दर्शन-पूजन नहीं करता तथा मुनियरोंको भक्तिपूर्वक दान नहीं देता उसका गृहस्थपना पत्थरकी नौकाके समान भव-समुद्रमे हुबोनेवाला है -ऐसा मब कहते हैं नित्यं न विलोक्यते जिनपतिः न स्मयते नाय॑ते न स्तुयेत न दीयते मुनिजने दानं च भल्या परम् । सामध्ये सति यद्गृहाश्रमपदं पाषाणनावा समं तत्रस्वा भवसागरेतिविषमे मजनि नश्यन्ति च ॥१८॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४) [श्रावकधर्म-प्रकाश सामर्थ्य होते हुए भी जो गृहस्थ हमेशा परम भक्तिसे जिननाथके दर्शन नहीं करता, अर्चन नहीं करता और स्तवन नहीं करता, उसी प्रकार परम भक्तिसे मुनिराजोंको दान नहीं देता, उसका गृहस्थाश्रमपद पन्थरकी नावके समान है। उस पत्थरकी नौकाके समान गृहम्थपदमें स्थित हुवा वह जीव अत्यन्त भयंकर भवसागरमें इखता है और नष्ट होता है। जिनेन्द्रदेव-सर्वक्षपरमात्माका दर्शन, पूजन उस श्रावकके हमेशाके कर्तव्य हैं। प्रतिदिनके छह कर्नव्योंमें भी सबसे पहला कर्त्तव्य जिनदेवका दर्शन-पूजन है। प्रातःकाल भगवानके दर्शन द्वाग निजके ध्येयरूप इष्टपदको स्मरण करके पश्चात् ही श्रावक दूसरी प्रवृत्ति करे । इसी प्रकार स्वयं भोजनके पूर्व मुनिवरोंको याद करके अहा, कोई सन्त-मुनिराज अथवा धर्मान्मा मेरे आँगनमें पधारें तो भक्तिपूर्वक उन्हें भोजन देकर पश्चात् में भोजन करूँ । इस प्रकार श्रावकके हृदयमें देव-गुरुको भक्तिका प्रवाद बहना चाहिये । जिस घरमें ऐसी देव-गुरुकी भक्ति नहीं वह घर तो पत्थरको नौकाके समान डूबनेवाला है। छठे अधिकारमें ( श्रावकाचार-उपासकसंस्कार गाथा ३५ में ) भी कहा था कि दान बिना गृहस्थाश्रम पत्थरको नौकाके समान है । भाई ! प्रातःकाल उठते ही तुझे वीतराग भगवानकी याद नहीं आती धर्मात्मा-संत-मुनि याद नहीं आते और संसारके अखबार, व्यापार-धंधा अथवा स्त्री मादिकी याद आती है तो तू ही विचार कि तेरी परिणति किस तरफ जा रही है ?-संसार की तरफ या धर्मकी तरफ ? आत्मप्रेमी हो उसका तो जीवन ही मानो देव-गुरुमय हो जाता है। 'हरतां फरतां प्रगट हरि देखुं रे... मारुं जीव्युं सफळ तब लेखु रे...' पंडित बनारसीदासजी कहते है कि जिनप्रतिमा जिनसारखी' जिनप्रतिमामें जिनवरदेवकी स्थापना है, उस परसे जिनवरदेवका स्वरूप जो पहिचान लेता है, उत्तीप्रकार जिनप्रतिमाको जिनसमान ही देखता है उस जीवकी भवस्थिति अतिअल्प होती है, अल्पकालमें वह मोक्ष प्राप्त करता है। 'षट्खण्डागम्' (भाग ६ पृष्ठ ४२७) में भी जिनेन्द्रदर्शनको सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका निमित्त कहा है तथा उससे निखत और निकाचितरूप मिथ्यात्व आदि कर्मसमूह भी नष्ट हो जाते है ऐसा कहा है। इसकी रुबिमें वीतरागी-सर्वस्वभाव प्रिय लगा है और संसारकी रुचि इसे छूट गई है, इसलिये निमित्तमें भी ऐसे वीतरामानिमित्तके प्रति उसे भक्तिभाव उछलता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] जो परमभक्तिसे जिनेन्द्र-भगवानका दर्शन नहीं करता, तो इसका अर्थ यह हुमा कि इसे वीतरागभाव नहीं रुचता, और तिरनेका निमित्त नहीं रुचता; परन्तु संसारमें डूबनेका निमित्त रुचता है। जैसी रुचि होती है वैसे विषयकी तरफ रुचि जाये बिना नहीं रहती। इसलिये कहते हैं कि वीतरागी जिनदेवको देखते ही जिसे अन्तर में भक्ति नहीं उल्लसती, जिसे पूजा-स्तुतिका भाव नहीं उत्पन्न होता वह गृहस्थ समुद्र के बीच पत्थरको नावमें बैठा है। नियमसारमें पनप्रभु मुनि कहते हैं किहे जीव! भवभयभेदिनि भगवति भवतः किं भक्तिरत्र न शमस्ति ? तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि ॥१२॥ भवभयको छेदन करने वाले ऐसे इन भगवानके प्रति क्या तुझे भक्ति नहीं ?यदि नहीं तो तू भवसमुद्रके बीच मगरके मुखमें है। - NIK भक्ति नौका M MDM आलम्बनं भवजले पततां जनानाम: अरे, बड़े-बड़े मुनि भी जिनेन्द्रदेवके दर्शन और स्तुति करते हैं और यदि तुझे ऐसा भाव नहीं आता और एकमात्र पापमें ही रचापचा राता है तो तू भवसमुद्र में इब जावेगा, भाई ! इसलिये तुझे इस भवदुःखके समुद्र में नहीं बना हो और इससे तिरना हो तो संसारके तरफको तेरी रुचि बदलकर वीतरागी देव-गुरुकी तरफ तेरे परिणामको लगा; वे धर्मका स्वरूप क्या कहते हैं उसे समझ, उनके कहे हुए आत्मस्वरूपको रुचिमें ले; तो भवसमुद्रमेंसे तेरा छुटकारा होगा। 1४ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भावकधर्म-प्रकाश भगवानकी मूर्तिमें 'यह भगवान हैं'-ऐसा स्थापनानिक्षेप वास्तवमें सम्या. दृष्टिको ही होता है। क्योंकि, सम्यग्दर्शनपूर्वक प्रमाणशान होता है, प्रमाणपूर्वक सम्यक्नय होता है, और नयके द्वारा सञ्चा निक्षेप होता है। निक्षेप नय बिना नहीं, नय प्रमाण बिना नहीं और प्रमाण शुद्धात्माकी दृष्टि विना नहीं। अहो, देखो तो सही, यह वस्तुस्वरूप ! जैनदर्शनकी एक ही धारा चली जा रही है। भगवान्की प्रतिमा देखते ही 'अहो, ऐसे भगवान !' ऐसा एक बार भी जो सर्वशदेवका यथार्थ स्वरूप लक्षगत कर लिया, तो कहते हैं कि भवसे तेरा बेड़ा पार है ! यही एकमात्र दर्शन करनेकी बात नहीं की, परन्तु प्रथम तो 'परम भक्ति' सहित दर्शन करनेको कहा है, उसी प्रकार अर्चन (पूजन ) और स्तुति करनेको भी कहा है। सच्चो पहिचान पूर्वक ही परम भक्ति उत्पन्न होती है, और सर्वत्रदेवकी सच्ची पहिचान हो वहाँ तो आत्माका स्वभाव लक्षगत हो जाता है, अर्थात् उसे दीर्घसंसार नहीं रहता है। इस प्रकार भगवानके दर्शनकी बातमें भी गहरा रहस्य है। मात्र ऊपर से मान ले कि, स्थानकवासी लोग मूर्तिको नहीं मानते और हम दिगम्बर जैन अर्थात् मूर्तिको मानने वाले हैं, ऐसे रूढ़िगत भावसे दर्शन करे, उसमें सच्चा लाभ नहीं होता, सर्यक्षदेवकी पहचान सहित दर्शन करे तो ही सच्चा लाभ होता है। (यह बात "सत्तास्वरूप” में बहुत विस्तारसे समझाई है) ____ अरे भाई ! तुझे आत्माके तो दर्शन करना नहीं आता और आत्माके स्वरूप को देखने हेतु दपर्णसमान ऐसे जिनेन्द्रदेवके दर्शन भी तू नहीं करता तो तू कहाँ जावेगा भैया ! जिनेन्द्रभगवानके दर्शन-पूजन भी न करे और तू अपनेको जैन कहलावे, ये तेरा जैनपना कैसा? जिस घरमें प्रतिदिन भक्तिपूर्वक देव-गुरुके दर्शन-पूजन होते हैं, मुनिवरों आदि धर्मात्माओंको आदरपूर्वक दान दिया जाता है-वह घर धन्य है; और इसके बिना घर तो स्मशानतुल्य है। अरे, वीतरागी सन्त इससे अधिक क्या करें ? ऐसे धर्मरहित गृहस्थाश्रमको तो हे भाई! समुद्र के गहरे पानीमें तिलांजलि दे देना! नहीं तो यह तुझे इबो देगा! धर्मी जीव प्रतिदिन जिनेन्द्र भगवान के दर्शनादि करते हैं। जिस प्रकार संसारका रागी जीव स्त्री-पुत्रादिके मुँहको अथवा चित्रको प्रेमसे देखता है, उसी प्रकार धर्मका रागी जीव वीतराग-प्रतिमाका दर्शन भक्तिसहित करता है। रागकी इतनी दशा बदलते भी जिससे नहीं बनती यह वीतरागमार्गको किस प्रकार साधेगा ? जिस प्रकार प्रिय पुत्र-पुत्रीको न देखे तो माताको बैन नहीं पड़ता, अथवा माताको न देखे तो Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भापर्व-प्रसाध] बालकको बैन नहीं पड़ता, उसी प्रकार भगवान के दर्शन बिना धर्मात्माको बैन नहीं पड़ता। “अरे रे, आज मुझे परमात्माके दर्शन न हुवे, आज मैंने मेरे भगवानको नहीं देखा, मेरे प्रिय नाथके दर्शन आज मुझे नहीं मिले!" इसप्रकार धर्मीको भगवानके दर्शन बिना चैन नहीं पड़ता। (चेलना रानीको जिस प्रकार श्रेणिकके राज्यमें पहले चैन नहीं पड़ता था: उसी प्रकार । ) अन्तरमें अपने धर्मकी लगन है और पूर्णदशाकी भावना है इसलिये पूर्णदशाको प्राप्त भगवानको मिलने हेतु धकि अन्तरमें तीव्र इच्छा आ गई है: साक्षात तीर्थकरके वियोगमें उनकी वीतराग-प्रतिमाको भी जिनवर समान ही समझकर भक्तिसे दर्शन-पूजन करता है, और वीतरागके प्रति बहुमानके कारण ऐसी भक्ति-स्तुति करता है कि देखनेवालोंके रोम-रोम पुलकित हो जाते हैं। इसप्रकार जिनेन्द्रदेवके दर्शन, मुनिवरोंकी सेवा, शासस्वाध्याय, दानादिमें श्रावक प्रतिदिन लगा रहता है। यहाँ तो मुनिराज कहते हैं कि शक्ति होने पर भी प्रतिदिन जो जिनदेवक दर्शन नहीं करता वह भावक ही नहीं: वह तो पत्थरकी नौकामें बैठकर भवसागरमें डूबता है। तो फिर वीतराग-प्रतिमाके दर्शन-पूजनका जो निषेध करे उसकी तो बात ही क्या करना !-इसमें तो जिनमार्गकी अतिविराधना है। अरे, सर्वक्षको पूर्ण परमात्मदशा प्रगट हो गई वैसी परमात्मदशाका जिसे प्रेम होवे, उसे उनके दर्शनका उल्लास आये बिना कैसे रहे ? वह तो प्रतिदिन भगवानके दर्शन करके अपनी परमात्मदशारूप ध्येयको प्रतिदिन ताजा रखता है। भगवानके दर्शनकी तरह मुनिवरों के प्रति भी धर्मीको परम भक्ति होती है। भरत चक्रवर्ती जैसे महान भी आदरपूर्वक भक्तिसे मुनियोंको आहारदान देते थे, और अपने आँगनमें मुनि पधारें उस समय अपनेको धन्य मानते थे। अहा ! मोक्षमार्गी मुनिके दर्शन भी कहाँ !!-यह तो धन्यभाग्य और धन्य घड़ी! मुनिके विरकालमें बड़े धर्मात्माओंके प्रति भी ऐसा बहुमानका भाव आता है कि अहो, धन्यभाग्य, मेरे आँगनमें धर्मात्माके चरण पड़े ! ऐसे धर्मके उल्लाससे धर्मी धायक मोसमार्गको साधता है; और जिसे धर्मका ऐसा प्रेम नहीं यह संसारमें इखता है। कोई कहे कि मूर्ति तो पाषाण की है !-परन्तु भाई, इसमें शानबलसे परमात्माका निक्षेप किया है कि-" यह परमात्मा है।"-इस निक्षेपका इन्कार करना ज्ञानका ही इन्कार करने जैसा है। जिनबिम्ब-दर्शनको तो सम्यग्दर्शनका निमित्त गिना है, उस निमित्तका भी जो निषेध करे उसे सम्यग्दर्शनका भी बान नहीं। समन्तभद्र स्वामी कहते है कि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८] [भावकधर्म-प्रकाश हमें तेरी स्तुतिका व्यसन पड़ गया है। जिस प्रकार व्यसनी मनुष्य अपने व्यसनकी वस्तुके बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार सर्वशके भक्तोंको स्तुतिका व्यसन है इसलिये भगवानकी स्तुति-गुणगान बिना वे नहीं रह सकते। धर्मात्माके हदयमें सर्वदेवके गुणगान चित्रित हो गये हैं। अहा, साक्षात् भगवानको देखना मिले यह तो धम्य घड़ी है! कुन्दकुन्दाचार्य जैसोंने विदेहमें जाकर सीमन्धरनाथको साक्षात् देखा। इनकी तो क्या बात! अभी तो यहाँ ऐसा काल नहीं। अरे तीर्थंकरोंका विरह, केवलियोंका विरह, महान संत-मुनियोंका भी विरह-ऐसे कालमें जिनप्रतिमाके दर्शनसे भी धर्मी जीव भगवानके स्वरूपको याद करता है। इसी प्रकार वीतराग जिनमुद्राको देखनेकी जिसे उमंग न हो वह जीव संसारकी तीव्र रुचिको लेकर संसार-सागरमें डूबने वाला है। वीतरागका भक्त तो वीतरागदेवका नाम सुनते ही और दर्शन करते ही प्रसन्न हो जाता है। जिस प्रकार सज्जन विनयवन्त पुत्र रोज सबेरे माता-पिताके पास जाकर विवेकसे चरणस्पर्श करता है, उसी प्रकार धर्मी जीव प्रभुके पास जाकर बालक जैसा होकर, विनयसे प्रतिदिन धर्मपिता जिनेन्द्रभगवानके दर्शन करता है, उनकी स्तुति-पूजा करता है। मुनिवरोंको भक्तिसे आहारदान करता है। पेसी वीतरागी देव-गुरुकी भक्तिके बिना जीव मिथ्यात्वकी नावमें बैठकर चार गतिके समुद्र में डूबता है और बहुमूल्य मनुष्य-जीवनको नष्ट कर डालता है। अतः धर्मके प्रेमी जीव देव-गुरुकी भक्तिके कार्यों में हमेशा अपने धनका और जीवनका सदुपयोग करें-ऐसा उपदेश है। -सप्रकार भावार्य जिनेन्द्रदेवके दर्शनका तथा दानका उपदेश देकर अब दाताकी प्रशंसा करते है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश . . . tute ...........[१९]....... धर्मात्मा इस कलियुगके कल्पवृक्ष हैं HEREBEBEBEESEBERRIES आचार्य कहते हैं कि पुण्यफलरूप चिन्तामणि आदिकी महिमा हमें नहीं; हमें तो यह दाता ही उत्तम गगता है कि जो धर्मकी ___ आराधना सहित दान करता है...अपनी शक्ति होते हुए भी धर्मकार्य रुके ऐसा धर्मी जीव देख नहीं सकता। RSSHRERESENTATERESTING धर्मात्मा-श्रावक दानादि द्वारा इस कालमें कल्पवृक्ष मादिका कार्य करते हैं, पेसा अब कहते हैं: चिन्तारत्न-मुरद्रु-काममुरभि-स्पर्शोपलाचा भुवि ख्याता एव परोपकारकरणे दृष्टा न ते केनचित् , तैरत्रोपकृतं न केषुचिदपि मायो न संभाव्यते तत्कार्याणि पुनः सदैव विदधत् दाता परं दृश्यते ॥ १९ ॥ जगत्में चिन्तामणि, कल्पवृक्ष, कामधेनु और पारस पत्थर परोपकार करने में प्रसिद्ध है, परन्तु यहाँ उपकार करते हुए उनको किसीने नहीं देगा, उसीमकार उन्होंने किसीको उपकृत नहीं किया और यहाँ उनकी संभावना भी प्रायः नहीं है। परन्तु दातार अकेला मनोवांछित दानसे सदेव इस चिन्तामणि मादिका काम करते हुए देखने में आता है। अतः सचा दाता पुरुष ही उन चिन्तामणि मादि पदार्थोसे उत्तम है। धर्मात्माके लिये परमार्थरूपसे चिन्तामणि तो अपनी आत्मा है कि जिसके चिन्तनसे केवलज्ञान और सम्यग्दर्शन आदि निधान प्रगट होते हैं। इस बैतन्यचिन्तामणि Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pto] [ श्रावक-प्रकाश सामने बाहरके चिन्तामणि आदिकी वांछा ज्ञानीको नहीं है, जो भी पुण्यके फलमें चिन्तामणि, कल्पवृक्ष आदि वस्तुएं होती हैं खरी, इसके चिन्तवनले बाह्य सामग्री वस्त्र - भोजनादि मिलते हैं, परन्तु इसके पाससे कोई धर्म अथवा सम्यग्दर्शनादि नहीं मिलता है। चौथे कालमें इस भरतभूमिमें भी कल्पवृक्ष वगैरह थे, समवसरणमें भी वे होते हैं, परन्तु आजकल लोगोंके पुण्य घट गए हैं इसलिये वे वस्तुएँ यहाँ देखनेमें नहीं आती; परन्तु आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसे पुण्यफलकी महिमा हमें नहीं, हमें तो वह दातार ही उत्तम लगता है कि जो धर्मकी आराधना सहित दान करता है । दानके फलमें कल्पवृक्ष आदि तो इसके पास सहजरूपमें आवेंगे । पारसका पत्थर लोहेमेंसे सोना करता है- इसमें क्या ! - इस चैतन्यचिन्तामणिका स्पर्श होते ही आत्मा पामरमेंसे परमात्मा बन जाता है-ऐसा चिन्तामणि शानीके हाथमें आ गया है । वह धर्मात्मा अन्तर में राग घटाकर धर्म की वृद्धि करता है, और बाह्यमें धर्मकी वृद्धि कैसे हो, देव गुरुकी प्रभावना और महिमा कैसे बढ़े और धर्मात्मा - साधर्मीको धर्मसाधन में किसप्रकार अनुकूलता हो, ऐसी भावना से वह दानकार्य करता है। जब आवश्यकता हो तब और जितनी आवश्यकता हो उतना देनेके लिये वह सदैव तैयार रहता है, इसलिये वह वास्तव में चिन्तार्माण और कामधेनु है । दाता पारसमणिके समान है, क्योंकि उसके सम्पर्क में आनेवालेकी दरिद्रता वह दूर करता है । मेरुपर्वतके पास देवकुरु - उत्तरकुरु भोगभूमि है, वहाँ कल्पवृक्ष होते हैं, वे इच्छित सामग्री देते है; वहाँ जुगलिया जीव होते हैं और कल्पवृक्षसे अपना जीवननिर्वाह करते हैं । दानके फलमें जीव वहाँ जन्म लेता है। यहाँ भी प्रथम - द्वितीय तृतीय आरेमें ऐसे कल्पवृक्ष थे, परन्तु वर्तमानमें नहीं हैं। इसलिये शास्त्रकार कहते हैं कि ये कल्पवृक्ष आदि प्रसिद्ध होते हुए भी वर्तमान में यहाँ तो वे किसीका उपकार करते देखनेमें नहीं आते । यहाँ तो दातार श्रावक ही इच्छित दान द्वारा उपकार करता देखने में आता है । चिन्तामणि आदि तो वर्तमानमें श्रवणमात्र हैं दिखते नहीं, परन्तु चिन्तामणिकी तरह उदारता से दान करनेवाला धर्मी - भाबक तो वर्तमान में भी दिखाई पड़ता है। देखो, नौ सौ वर्ष पूर्व पद्मनंदी मुनिराजने यह रखा है; उस समय ऐसे श्रावक थे। ये पद्मनंदी मुनिराज महान संत थे। वनवासी दिगम्बर संतोंने सर्वज्ञके वीतरागमार्ग की यथार्थ प्रणालीको टिका रखा है। दिगम्बर मुबि तो जैनशासनके स्तंभ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकधर्म - प्रकाश ] [ १११ हैं। इन पद्मनंदी मुनिराजने इस शास्त्रमें वैराग्य और भक्तिके उपदेशकी रेलमछेल की है, उसीप्रकार निश्चयपंचाशत आदि अधिकारोंमें शुद्धात्मा के अध्यात्मस्वरूपका अध्ययन किया है । कुन्दकुन्दस्वामीका दुसरा नाम पद्मनंदी स्वामी था । परन्तु वे ये पद्मनंदी नहीं थे, ये पद्मनंदी मुनि तो उनके पीछे लगभग हजार वर्ष बाद हुए। वे कहते हैं कि दान करनेवाला उत्तम श्रावक धर्मात्मा चिन्तामणि समान है । 66 संघमें जरूर पड़े अथवा जिनमंदिर नया-बड़ा कराना है । तो श्रावक कहता है ' कितना खर्च ?' कि सवा लाख रुपया । वह तुरन्त कहता है - यह लो, और उत्तम मन्दिर बनवाओ । *** 99 इसप्रकार उदारताले दान देने वाले धर्मात्मा थे। इसके लिये घर घर जाकर चंदा नहीं करना पड़ता था । अपनी शक्ति होते हुए भी धर्मका कार्य रुके वह धर्मी जीव नहीं देख सकता। इसलिये कहते हैं कि धर्मात्मा श्रावक ही उदारतासे मनोवांछित दान देने वाला बिन्तामणि- कल्पवृक्ष और कामधेनु है, जब आवश्यकता पड़े तब देवे । आवश्यकता पड़ने पर दान नहीं देवे तो वह दातार कैसा ? धर्म प्रसंगम आवश्यकता पड़ने पर दाता छिपा नहीं रहता। जिसप्रकार देशके लिये भामाशाहने ( वह जैन था ) अपनी सम्पूर्ण संपत्ति महाराणा प्रतापके पास रख दी, उसी प्रकार धर्मी जीव धर्म के लिये जरूरत पड़ने पर अपना सर्वस्व अर्पण कर दे । दाताको चिन्तामणि आदि भी दान प्रिय है; क्योंकि चिन्तामणि आदि वस्तुएँ जो उपकार करती हैं वह भी पूर्वमें सत्पात्रदान से जो पुण्य बंधा उसके कारणसे है; इसलिये वास्तवमें दातामें ही यह सब समा जाता है-इसप्रकार दाताकी प्रशंसाकी गई। अब जहाँ धर्मात्मा श्रावक रहते हों वहाँ अनेक प्रकारसे धर्मकी प्रवृत्ति चला करती है - यह बताकर उसकी प्रशंसा करते हैं। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [ श्रावकधर्म-प्रकार ......... [२०] ...... धर्मी श्रावकों द्वारा धर्मका प्रवर्तन .................... ................. * गुणवान श्रावकों द्वारा धर्मकी प्रवृत्ति चला करती है इसलिये वे श्रावक प्रशंसनीय हैं। श्रावक-श्राविका अपनी लक्ष्मी आदि अर्पण करके भी धर्मकी प्रभावना किया करते हैं। सन्तोंके हृदयमें धर्मकी प्रभावनाका भाव होता है; धर्मको शोभाके लिये धर्मात्मा-श्रावक अपना हृदय लगा देते हैं, ऐसी धर्मकी लगन उनके अन्तरमें होती है। जहाँ धर्मी श्रावक निवास करता हो वहाँ धर्मकी कैसी प्रवृत्ति बलती है वह बताते हैं यत्र श्रावकलोक एष वसति स्यात्तत्र चैत्यालयो यस्मिन् सोऽस्ति च तत्र सन्ति यतयो धर्मश्च तेः वर्तते । धर्म सत्यघसंचयो विघटते स्वर्गापवर्गाश्रयं सौख्यं भावि नृणां ततो गुणवतां स्युः श्रावकाः संमताः ॥ २०॥ जहाँ ऐसे धर्मात्मा प्रावकजन निवास करते हों वहाँ चैत्यालय-जिनमन्दिर होता है, और जिनमन्दिर हो वहाँ मुनि मादि धर्मात्मा आते हैं और वहाँ धर्मकी प्रवृत्ति चलती है। धर्म द्वारा पूर्व संचित पापोंका नाश होता है और स्वर्ग-मोक्षके सुखकी प्राप्ति होती है। इसप्रकार धर्मकी प्रवृत्तिका कारण होनेसे गुणवान पुरुषों द्वारा प्रावक इष्ट है-आदरणीय है-प्रशंसनीय है। भाषक जहाँ निवास करता हो यहाँ दर्शन-पूजनके लिये जिनमन्दिर बनवाता है। अनेक मुनि मादि विहार करते करते जहाँ जिनमन्दिर होता है वहाँ आते है, मौर उनके उपदेश भादिसे धर्मकी प्रवृत्ति बला करती है, और स्वर्ग-मोक्षका Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रावकधर्म-प्रकाश ] साधन होता है। श्रावक हो वहाँ ही यह सब होता है। इसलिये भव्य जीवोंको ऐसे उत्तम श्रावकका आदर-सत्कार करना चाहिये। 'संमताः' अर्थात् कि यह ए है, धर्मात्माओंको मान्य है, प्रशंसनीय है। __ देखिये, जहाँ श्रावक रहते हों वहाँ जिनमन्दिर तो होना ही चाहिये। थोडे श्रावक हों और छोटा गाँव हो तो दर्शन-पूजन हेतु चाहे छोटा-सा ही चैत्यालय पहिले बनवावे। पूर्वकालमें कई श्रावकोंके घरमें ही चैत्यालय स्थापित करते थे। देखिये न, मूडबिद्री ( दक्षिण देश )में रत्नोंकी कैसी जिन-प्रतिमाएँ है ? ऐसे जिनदेषक दर्शनसे तथा मुनि आदिके उपदेश श्रवणसे पहिलेके बैंधे हुए पाप भणमें छूट जाते हैं। पहिले नो स्थान-स्थान पर ग्रामोंमें बीतगगी जिनमन्दिर थे, क्योंकि दर्शन बिना तो श्रावकको चले ही नहीं। दर्शन किये बिना खाना तो बासी भोजन समान कहा गया है। जहाँ जिनमन्दिर और जिनधर्म न हो वह गाँव तो स्मशानतुल्य कहा गया है। अतः जहाँ जहाँ श्रावक होते हैं यहाँ बिनमन्दिर होते है और मुनि श्रादि त्यागी धर्मात्मा वहाँ आया करते है, अनेक प्रकारके उत्सव होते हैं, धर्मचर्या होती है; और इसके द्वारा पापका नाश तथा म्वर्ग-मोक्षका साधन होता है। जिनपिम्प दर्शनसे निद्धत और निकाचित मिथ्यात्वकर्मके भी सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं ऐसा उल्लेख सिद्धान्तमें है; धर्मकी रुचिसहितकी यह बात है। 'अहो, यह मेरे बायकस्वरूपका प्रतिबिम्ब ! ऐसे भावसे दर्शन करने पर, सम्यग्दर्शन न हो तो नया सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है और अनादिके पापोंका नाश हो जाता है, मोक्षमार्ग खुल जाता है। गृहस्व-श्रावकों द्वारा ऐसे जिनमन्दिरकी और धर्मकी प्रवृत्ति होती है, अतः आचार्यदेव कहते हैं कि वे श्रावक धन्य है! गृहस्थावस्थामें रहने वाले भाई-बहिन भी जो धर्मात्मा होते हैं वे सज्जनों द्वारा आदरणीय होते है। प्राधिका भी जैनधर्मकी ऐसी प्रभावना करती है; वह श्राविका-धर्मात्मा भी जगत्के जीवों द्वारा सत्कार करने योग्य है। देखिये न, चेलनारानी ने जैनधर्मकी कितनी प्रभावना की? इसप्रकार गृहस्थावस्थामें रहनेवाले श्रावक-माविका अपनी लक्ष्मी मादि न्यौछावर करके भी धर्मको प्रभावना करते हैं। सन्तोंके हृदयमें धर्मकी प्रभावनाके भाव रहते हैं, धर्मकी शोभा हेतु धर्मात्मा-श्रावक अपना हदय भी अर्पण कर देते हैं ऐसी धर्मकी तीव लगन इनके हृदय में होती है। ऐसे आवकधर्मका यहाँ पमनन्दी स्वामीने इस अधिकारमें प्रकाश किया है-उद्योत किया है। इसका विस्तार और Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] [ श्रावकधर्म प्रकाशं प्रचार करने जैसा है, अतः अपने प्रवचनमें यह अधिकार तीसरी बार पढ़ा जा रहा है । ( इस पुस्तकमें तीनों बारके प्रवचनोंका संकलन है ) देखिये, इस श्रावकधर्ममें भूमिका अनुसार आत्माकी शुद्धि तो साथ ही वर्तती है। पंचमगुणस्थानवर्ती भावक उत्तम देवगति सिवाय अन्य किसी गतिमें जाता नहीं - यह नियम है। स्वर्ग में जाकर वहाँ भी वह जिनेन्द्रदेवकी भक्ति-पूजन करता है। छठे सातवें गुणस्थानमें झूलते संत प्रमोदसे कहते हैं कि अहो ! स्वर्ग-मोक्षकी प्रवृत्तिका कारणरूप वह धर्मात्मा श्रावक हमें सम्मत है, गुणीजनों द्वारा आदरणीय है । भावक अकेला हो तो भी अपनी शक्तिअनुसार दर्शन हेतु जिनमन्दिर आदि चमचावे | जिसप्रकार पुत्र-पुत्रीके विवाहमें अपनी शक्तिअनुसार धन उमंगपूर्वक खर्च करता है, वहाँ अन्यके पास चंदा करानेके लिए जाता नहीं, उसीप्रकार धर्मी जीव जिनमंदिर आदि हेतु अपनी शक्तिअनुसार धन खर्च करता है। अपने पास शक्ति होते हुए भी धन न खरचे और अन्यके पास माँगने जाय - यह शोभा नहीं देता है । जिनमंदिर तो धर्मको प्रवृत्तिका मुख्य स्थान है। मुनि भी वहाँ दर्शन करने आते हैं। गाँवमें कोई धर्मात्माका आगमन हो तो वह भी जिनमंदिर तो जरूर जाता है । उत्तमकाल में तो ऐसा होता था कि मुनिवर आकाशमें गमन करते समय नीचे मंदिर देखकर दर्शन करने आते थे, और महान् धर्मप्रभावना होती थी । अहो, ऐसे वीतरागी मुनिका वर्तमानमें तो दर्शन होना कठिन है ! वन में विचरण करने वाले सिंह जैसे मुनिवरोंके दर्शन तो बहुत दुर्लभ हैं; परन्तु धर्मकी प्रवृति धर्मात्मा भावकों द्वारा चला करती है इसलिये ऐसे भाषक प्रशंसनीय है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवकर्म-कास] (२१५ .................... [२१] ... जिनेन्द्र-भक्तिवंत श्रावक धन्य है! F.... .......... ................... 925555SSSSSSSSSSSSSSSSSSex श्रावक प्रगाढ़ जिनभक्तिसे जैनधर्मको शोभित करता है। 8 8 शांत दशा प्राप्त धर्मी जीव किमप्रकारके होते हैं और वीतारागी देष गुरुके प्रति उनकी भक्तिका उल्लास कैसा होता है उसका भी जीवों को ज्ञान नहीं। इन्द्र जैसे भी भगवानके प्रति भक्तिसे करते हैं कि हे नाथ ! इस वैभव-विलासमें रहा हुआ हमारा यह जीवन कोई जोवन 8 नहीं, सच्चा जीवन तो आपका है.......केवलज्ञान और अतीन्द्रिय भानन्द8 मय जीवनसे आप हो जी रहे हैं। 899999999903390 SSSSSSSSScess काले दुःखमसंज्ञके जिनपतेधर्मे गते क्षीणां तुच्छे मामयिके जने बहुतरे मिथ्यान्धकारे सति । चैत्ये चैत्यगृहे च भक्तिसहितो यः सोऽपि नो दृश्यते यस्तत्कारयते यथाविधि पुनर्मव्यः स वंद्यः सताम् ॥ २१ ॥ इस दुःखमा कालमें जब कि जिनेन्द्र भगवानका धर्म क्षीण होता नाता, जैनधर्मके माराधक धर्मात्मा-जीव भी बहुत थोड़े हैं और मिथ्यात्व-अंधकार पत फैल रहा है, जिनमन्दिर और जिन-प्रतिमाके प्रति भक्तिवन्त जीव भी गुत नहीं दिखते; ऐसे इस कालमें जो जीव विधिपूर्वक जिममन्दिर तथा जिन-प्रतिमा कराते हैं वे भव्य जीव सज्जनों द्वारा वंदनीय हैं। जहाँ तीर्थकर भगवान विराजते हैं यहाँ तो धर्मकी अविरत धारा पती, चक्रवर्ती और इन्द्र जैसे इस धर्मकी आराधना करते है। परन्तु वर्तमानमें तो यहाँ जैमधर्म बहुत घट गया है। तीर्थकरोंका विरह, मुनिवरोंकी भी दुर्लभता, विपरीत मान्यताके पोषण करनेवाले मिथ्यामार्गों का मन्त नहीं, ऐसी विषमतले सम्पर्क 800000000 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भावकवर्म-प्रकाश बीचमें भी जो जीव धर्मके प्रेमको स्थिर रखकर भक्तिसे जिनमन्दिर मादि बनवाते है वे धन्य है ! स्तवनमें भी आता है कि चैत्यालय को करें धन्य सो श्रावक कहिये, तामें प्रतिमा घरें धन्य सो भी सरदहिये. पूर्वमें तो भरत चक्रवर्ती सरीखेने भी कैलास पर्वत पर तीन चौबीसी तीर्थंकरोंके रत्नमय जिनबिम्बोंकी स्थापना की थी। दूसरे भी अनेक बड़े-बड़े राजा-महाराजा और धर्मात्माओंने विशाल जिनमंदिर बनवाये थे। देखो तो, मूडबिद्रोमें “त्रिभुवनतिलक चूडामणि" जिनमन्दिर कितना बड़ा है। जिसके एक हजार तो स्तंभ है। और महामूल्य रत्नोंकी मूर्तियाँ भी वहाँ हैं, ये भी धर्मात्मा श्रावकोंने दर्शनहेतु स्थापी है। भवणबेलगोलामें भी इन्द्रगिरि पहाड़में खुदी हुई ५७ फीट ऊँची बाहुबली भगवानकी प्रतिमा कितनी अद्भुत है ! अहा, जैसे वीतरागताका पिण्ड हो! पवित्रता और पुण्य दोनों इसमें दिखाई दे रहे हैं। इस प्रकार श्रावक बहुत भक्तिसे जिनबिम्बोंकी स्थापना और जिनमंदिरका निर्माण कराता है । आजकाल तो यहाँ अनार्यवृत्ति वाले बहुत और आर्यजीव थोड़े, उसमें भी जैन थोड़े, उसमें भी धर्मके जिज्ञासु बहुत थोड़े, मौर उनमें भी धर्मात्मा और साधु तो अत्यन्त विरले । वस्तुतः वे तीनोंकालमें विरल है परन्तु वर्तमानमें यहाँ तो बहुत ही विरले हैं । जहाँ देखो वहाँ कुदेव और मिथ्यात्व का जोर फैला हुमा है। ऐसे कलिकालमें भी जो जीव भक्तिपूर्वक जिनालय और जिनबिम्बकी विधिपूर्वक स्थापना कराते हैं वे जिनदेवके भक्त, सम्यग्दृष्टि, धर्मके रुचिवंत है, और ऐसे धर्मी जीवोंकी सज्जन लोग प्रशंसा करते हैं। देखो भाई, जिनमार्गमें वीतराग-प्रतिमा अनादिकी है। स्वर्गमें शाश्वत जिनप्रतिमायें है, नन्दीश्वरमें हैं, मेरुपर्वत पर हैं । पांचसौ धनुषके रत्नमय जिनबिम्ब ऐसे अलौकिक हैं-मानों कि साक्षात् तीर्थकर हों और अभी वाणी खिरेगी !! कार्तिक, फाल्गुन और अषाढ मासकी भष्टाह्निकामें इन्द्र और देव नन्दोश्वर जाकर महा भक्तिपूर्वक दर्शन-पूजन करते हैं । शाखोंमें अनेक प्रकारके महापूजन कहे है-इन्द्र द्वारा पूजा हो वह इन्द्रध्वज पूजा है, चक्रवर्ती किमिच्छक दानपूर्वक राजाओंके साथ जो महापूजा करता है उसे कल्पद्रुम पूजा कहते हैं, अष्टान्हिकामें जो विशेष पूजा हो उसे माराम्हिक पूजन कहते हैं, मुकुटबद्ध राजा जो पूजन कराते हैं उसे सर्वतोभद्र मथवा महामहः पूजा कहते हैं, प्रतिदिन भावक जो पूजा करे वह नित्यमहः पूजन है। भरत चक्रवर्ती महापूजन रचाते थे उसका विशद वर्णन आदिपुराणमें माता है। सूर्यके अन्दर शाश्वत जिनबिम्ब है, भरत चक्रवर्तीको चक्षु संबंधी जानका Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावधर्म-प्रकाश इतना तीन भयोपशम था कि वे अपने महलमेंसे सूर्यमें रहे दुए जिनपिम्पका पर्जन करते थे। उस परसे प्रातः सूर्यदर्शनका रिवाज प्रचलित हो गया। लोग मूल वस्तुको भूल गये और सूर्यको पूजने लगे, शास्त्रोंमें स्थान-स्थान पर जिनप्रतिमाका वर्णन आता है। अरे, स्थानकवासी द्वारा माने हुए आगममें भी जिनप्रतिमाका उल्लेख आता है परन्तु वे उसका अर्थ विपरीत करते हैं! एक बार संवत् १९७८ में मैंने (पूज्य श्री कानजी स्वामीने ) एक पुराने स्थानकवासी साधुसे पूछा कि इन शास्त्रोंमें जिन-प्रतिमाका तो वर्णन आता है, क्योंकि “जिनके शरीर-प्रमाण ऊँचाई" ऐसी उपमा दी है, जो यह प्रतिमा यक्षकी हो तो ऐसी जिनकी उपमा नहीं देते। तब उस स्थानकवासी साधुने यह बात स्वीकार को और कहा कि आपकी बात सत्य है है तो ऐसा ही'। तीर्थकरकी ही प्रतिमा है। परन्तु बाहरमें ऐसा नहीं बोला जाता। तब ऐसा लगा कि अरे, यह क्या ! अन्दर कुछ माने और बाह्यमें दूसरी बात कहेऐसा भगवानका मार्ग नहीं होता। इन जीवोंको आत्माकी दरकार नहीं। भगवानके मार्गकी दरकार नहीं; सत्यके शोधक जीव ऐसे सम्प्रदायमें नहीं रह सकते। जिनमार्गमें वीतराग मूर्तिकी पूजा अनादिसे चली आ रही है, बड़े-बड़े शानी भी उसे पूजते हैं। जिसने मूर्तिका निषेध किया उसने अनन्त शानियोंकी विराधनाकी है। शास्त्रमें तो ऐसी कथा आती है कि जब महावीर भगवान् राजगृहीमें पधारे और श्रेणिक राजा उनकी वंदना करने जाते हैं तब एक मेंढक भी भकिसे मुंडमें फूल लेकर प्रभुकी पूजा करने जाता है; वह राहमें हाथीके पैरके नीचे दबकर मर जाता है और देवपर्यायमें उत्पन्न होकर तुरन्त भगवानके समवसरणमें माता है। धर्मी जीव भगवान्के दर्शन करते हुए साक्षात् भगवान्को याद करता है कि महो, भगवान् ! अहो सीमन्धरनाथ ! आप विदेहक्षेत्रमें हो और मैं यहां भरतक्षेत्रमें है, आपके साक्षात् दर्शनका मुझे घिरा हुआ ! प्रभो, पेसा अवसर कब आवे कि मापका विरह दूर हो, अर्थात् राग-द्वेषका सर्वथा नाश करके माप जैसा वीतराग कर होऊँ ! धर्मी ऐसी भावना द्वारा रागको तोड़ता है। अर्थात् भगवानसे वह क्षेत्र अपेक्षा दूर होते हुए भी भावसे समीप है कि हे नाथ! इस वैभष-विलासमें रखापचा हमारा जोवन यह कोई जीवन नहीं, वास्तविक जीवन तो आपका है; आप केवलज्ञान और अतीन्द्रिय आनन्दमय जीवन जी रहे हो, वही सच्चा जोवन है। प्रभो, हमें भी यही उद्यम करना है। प्रभो, वह घड़ी धन्य है कि जब मैं मुनि होकर आपके जैसा केदलमानका साधन करूँगा ! ऐसा पुरुषार्थ नहीं जागता तबतक धर्मी जीव भावक Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ [भावकधर्मका पालन करता है, और दान, जिनपूजा आदि कार्यों द्वारा वह अपने गृहस्थजोवनको सफल करता है। वर्तमानमें तो मुनियोंकी दुर्लभता है, और मुनि हों तो भी वे कोई जिनमन्दिर संघवाने या पुस्तक छपवाने जैसी प्रवृत्ति नहीं करते, बायकी कोई प्रवृत्तिका भार मुनि अपने सिर पर नहीं रखते, ऐसा कार्य तो श्रावक ही करता है। उत्तम श्रावक प्रगाढ़ भक्ति सहित जिनमन्दिर बनावे, प्रतिष्ठा करावे, उसकी शोभा बढ़ावे, कहाँ क्या चाहिये; और किस प्रकार धर्मकी शोभा बढ़ेगी-ऐसी प्रगाढ़ भक्ति करता है। चलो जिनमन्दिर दर्शन करने, चलो प्रभुकी भक्ति करने, चलो धर्मका महोत्सव करने, चलो कोई तीर्थकी यात्रा करने. । -स प्रकार प्रावक-श्राविका प्रगाढ़ भक्तिसे जैनधर्मको शोभित करे। अहा, शान्त दशाको प्राप्त धर्मी जीव कैसा होता है और वीतरागी देव-गुरुकी भक्तिका उसे उल्लास कैसा होता है उसकी भी जीवोंको खबर नहीं। पूर्ष समयमें तो वृद्धयुवा, बहिमें और बालक सभी धर्मप्रेमी थे और धर्म द्वारा अपनी शोभा मानते थे। इसके बदले वर्तमानमें तो सिनेमाका शौक बढ़ा है और स्वच्छन्द फूट पड़ा है। ऐसे विषमका में भी मो जीव भक्तिवाले हैं, धर्मके प्रेमी हैं और जिनमन्दिर आदि बनवाता १-वेसे भाषक धन्य हैं! - Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ m भापकर्म-प्रकाश ] ........[२२] ......... सची जिनभक्तिमें वीतरागताका आदर PRETRIOSISTERESSES FARASHTRIANRAPARIWARIRROR + RABARIRIASRANASAMEERNATA धर्मीके थोड़े शुभभावका भी महान फल है तो इसकी शुदनाकी महिमाकी तो क्या बात ! जिसे अन्तरमें वीतरागभाव रुचा उसे वीतरागताके बाह्य निमित्तोंके प्रति भी कितना उन्माह होगा ! जिनमंदिर बनवानेकी बात तो दूर रही परन्तु वहाँ दर्शन करने जानेका भी जिसे अवकाश नहीं-उसे धर्मका प्रेमी कौन कहे ? EVISERRASSHRIRAMESHRA वीतरागी जिनमार्गके प्रति श्रावकका उत्साह कैसा होता है और उसका फल क्या होता है वह कहते हैं विम्बादलोनति यवोन्ननिमेव भक्त्या ये कारयन्ति जिनसम्र निनाकति च पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता स्तोतुं परस्य किमु कारयितुः द्वयस्य :। २२ ॥ जो जीव भक्तिसे बेलके पत्र जितना छोटा जिनमंदिर बनवाता है और जो जो के दाने जितनी जिन-माकृति (मिनप्रतिमा) स्थापित कराता है उसके महान पुण्यका वर्णन करनेके लिये इस लोकमें सरस्वती-वाणी भी समर्थ महीं, तो फिर जो जीव यह दोनों कराता है, अर्थात् ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिर बनवाता है और अतिशय मध्य जिन-प्रतिमा स्थापित करवाता है-उसके पुण्यकी तो क्या बात ! देखो, इसमें " भक्तिपूर्वक "की मुख्य बात है। मात्र प्रतिष्ठा अथवा मानसन्मानके लिये अथवा देखादेखीसे कितने ही पैसे खर्च कर दे उसकी यह बात नहीं, परन्तु भक्तिपूर्वक अर्थात् जिसे सर्वश भगवानकी कुछ पहचान हुई है और मन्तरमें गुमान पैदा हुआ है कि अहो, ऐसे वीनरागी सर्वशदेव! ऐसे भगवानको में अपने मन्तरमै स्थापित कऊँ और संसारमें भी हमको प्रसिदि हो-ऐसे मार Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [ भावकधर्म-प्रकाश से भक्तिभावपूर्वक जिन-प्रतिमा और जिन-मन्दिर बनवाने का भाव जिसे आता है उसे उच्च जातिका लोकोत्तर पुण्य बँधता है; क्योंकि उसके भावोंमें वीतरागताका बहुमान हुआ है । - पश्चात् भले ही प्रतिमा मोटी हो या छोटी, परन्तु उसकी स्थापनामें वीतरागताका बहुमान और वीतरागका आदर है, यही उत्तम पुण्यका कारण है । भगवान की मूर्तिको यहाँ "जिनाकृति कहा है अर्थात् अरहन्त - जिनदेवकी जैसी आकृति होती है वैसी ही निर्दोष आकृतिवाली जिन-प्रतिमा होती है । जिनेन्द्र भगवान् - मुकुट नहीं पहनते और इनकी मूर्ति वस्त्र मुकुट सहित हो तो इसे जिनाकृति नहीं कहते । जिन प्रतिमा जिनसारखी भाखी आगम माँय । ऐसी निर्दोष प्रतिमा (6 39 "" जिनशासनमें पूज्यनीय है । यहाँ तो कहते हैं कि अहो, जो जीव भक्तिसे ऐसा वीतराग जिनबिम्ब और जिम प्रतिमा कराता है उसके पुण्यकी महिमा वाणीसे कैसे कही जा सकती है ? देखो तो सही, धर्मीके अल्प शुभभावका इतना फल ! तो इसकी शुद्धताको महिमाकी तो क्या बात !! जिसे अन्तरंगमें वीतरागभाव रचा उसे वीतरागताके बाह्य निमित्तोंके प्रति भी कितना उत्साह हो ? एक उदाहरण इसप्रकार आता है कि – एक सेठ जिनमन्दिर बनवाता था, उसमें काम करते हुए पत्थरकी जितनी रज कारीगर द्वारा निकाली जाती उसके वजन के बराबर चाँदी देता था । इसके मनमें ऐसा भाव था कि अहो, मेरे भगवान्का मन्दिर बन रहा है तो उसमें कारीगरोंको भी मैं प्रसन्न करूँ, जिससे मेरा मन्दिरका काम उत्तम हो । उस समयके कारीगर भी सच्चे हृदय वाले थे। वर्तमानमें तो लोगों की वृत्ति में बहुत फेरफार हो गया है। यहाँ तो भगवानके भक्त भावक-धर्मात्माको जिन-मन्दिर और जिन - प्रतिमाका कैसा शुभराग होता है वह बताया है । संसार में देखो तो, पाँच-इस लाख रुपयोंकी कमाई हो और लाख-दो लाख roये खर्च करके बंगला बनवाना हो तो कितनी होंश करता है ? कहाँ क्या चाहिये और किसप्रकार अधिक शोभा हो - इसका कितना विचार करता है ? इसमें तो ममताका पोषण है । परन्तु धर्मात्माको ऐसा विचार आता है कि अहो, मेरे भगवान जिसमें बिराजें पेसा जिनमंदिर, उसमें क्या-क्या चाहिये और किस रीतिले अधिक शोभित हो ? – इसप्रकार विचार करके होंशसे ( तनसे, मनसे, धनसे) उसमें वर्तन करता है। वहाँ व्यर्थकी झूठी करकसर अथवा कंजूसाई करता नहीं । भाई, ऐसे धर्मकार्यमें तू उदारता रखेगा तो तुझे ऐसा लगेगा कि मैंने जीवनमें धर्मके लिये कुछ किया है, एकमात्र पापमें ही जिन्दगी नहीं बिगाड़ी, परन्तु धर्म Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषकर्म-प्रकाश ] । १५ की तरफके कुछ भाव किये है-सप्रकार तुझे धक बहुमानका भाव रहा करेगा। इसका हो लाभ है। और ऐसे भावके साथ नो पुण्य बंधता है वह भी लौकिक दया-दानकी अपेक्षा उच्चकोटिका होता है ! एक मकान पाँधने वाला कारीगर जैसेजैसे मकान ऊँचा होता जाता है वैसे-वैसे यह भी ऊँचा बढ़ता जाता है, उसीमकार धर्मी जीव जैसे-जैसे शुद्धतामें आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे उसके पुण्यका रस भी बढ़ता जाता है। जिन मंदिर और जिन-प्रतिमा करानेवालेके थायमें क्या है ? - इसके भावमें वीतरागताका आदर है और रागका आदर छट गया है। ऐसे भावसे करावे तो सच्ची भक्ति कहलाती है। और वीतरागभावके बहुमान द्वारा यह जीव अल्पकालमें रागको तोड़कर मोक्ष प्राप्त करता है। परन्तु, यह बात लक्ष्यमें लिये बिना, ऐसे ही कोई कह दे कि तुमने मन्दिर बनवाया इसलिये ८ भषमें तुम्हारा मोक्ष हो जायेगा, यह बात सिद्धान्तकी नहीं है। भाई, श्रावकको ऐसा शुभभाव होता है यह बात सत्य है, परन्तु इस रागकी जितनी हद हो उतनी रखनी चाहिये। इस शुभरागके फलसे उच्चकोटिका पुण्य बँधने का कहा है परन्तु उससे कर्मक्षय हाने भगवानने नहीं कहा है। कर्मका क्षय तो सम्यग्दर्शन-बान-चारित्रसे ही कहा है। ___ अरे, सच्चा मार्ग और सच्चे तत्त्वको समझे बिना जीव कहाँ भटक जात है। शास्त्रमें व्यवहारके कथन तो अनेक प्रकारके आते हैं, परन्तु मूल तत्वको और वीतरागभावरूप मार्गको लक्ष्यमें रखकर इसका अर्थ समझना चाहिये। शुभरागसे ऊँचा पुण्य बन्धता है-ऐसा बतानेके लिये उसकी महिमाकी, वहाँ कोई उसमें ही धर्म मानकर अटक जाता है। अन्य कितने ही जीव तो भगवानका जिम मन्दिर होता है वहाँ दर्शन करने भी नहीं जाते । भाई, जिसे वीतरागताका प्रेम होता है और जहाँ जिन-मन्दिरका योग हो वह! वह भक्तिसे रोज दर्शन करने जाता है। जिनमन्दिर बनवानेकी बात तो दूर रही, परन्तु यहाँ दर्शन करने जानेका भी जिसे अवकाश नहीं उसे धर्मका प्रेमी कौन कहे ? बड़े-बड़े मुनि भी वीतराग प्रतिमाका भक्तिसे दर्शन करते हैं और उसकी स्तुति करते हैं। पोन्नूर प्राममें एक पुराना मंदिर है, कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्राममें आये तब वे वहाँ दर्शन करने जाते थे । (संवत् २०२० की यात्रामें मापने वह मंदिर देखा है) समन्तभद्रस्वामीने भी भगवानकी पदभुत स्तुतिकी है। २००० वर्ष पूर्व किसी बड़े सजाको जिमाविम्ब-प्रतिष्ठा करवानी थी Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] [ भावकधर्म-प्रकाश 66 99 तब उसकी विधिके लिये शास्त्र रखने की आज्ञा कुन्दकुन्दाचार्यदेवने अपने शिष्य जयसेन मुनिको दी, उन जयसेन स्वामीने मात्र दो दिनमें प्रतिष्ठा पाठकी रचनाकी इसलिये कुन्दकुन्दाचार्यदेवने उन जयसेन स्वामीको “वसुबिन्दु ( अर्थात् आठ कर्मों का अभाव करनेवाले ) ऐसा विशेषण दिया, उनका रचा प्रतिष्ठा-पाठ 'वसुबिन्दु' प्रतिष्ठा-पाठ कहलाना है। उसके आधार से प्रतिष्ठाको विधि होती है। बड़े-बड़े धर्मात्माओंको जिन भगवानकी प्रतिष्ठाका, उनके दर्शनका ऐसा भाव आता है, और तू कहता है कि मुझे दर्शन करनेका अवकाश नहीं मिलता अथवा मुझे पूजा करते शर्म आती है ! तो तुझे धर्मकी रुचि नहीं, देव गुरुका तुझे प्रेम नहीं । पापके काम में तुझे अवकाश मिलता है और यहाँ तुझे अवकाश नहीं मिलता-यह तो तेरा व्यर्थका बहाना है । और जगत् के पापकार्यों काला बाजार आदि के करनेमें तुझे शर्म नहीं आती और यहाँ भगवानके समीप जाकर पूजा करनेमें तुझे शर्म आती है !! वाह, बलिहारी है तेरी औंधाई की ! शर्म तो पापकार्य करनेमें आनी चाहिये, उसके बदले वहाँ तो तुझे होश आती है और धर्मके कार्य में शर्म आनेका कहता है, परन्तु वास्तव में तुझे धर्मका प्रेम ही नहीं है। एक राजाकी कथा आती है कि राजा राजदरबार में आ रहा था वहाँ बोचमें किन्हीं मुनिराजके दर्शन हुये, वहाँ भक्तिसे राजाने उनके चरणमें मुकुटबद्ध सिर झुकाया और पश्चात् राजदरबार में आया । वहाँ दीवानने उनके मुकुट पर धूल लगी देखी और वह उसे झाड़ने लगा । तब राजा उसे रोककर कहते हैं कि -दीवानजी रहने दो... इस रजसे तो मेरे मुकुटकी शोभा है यह रज तो मेरे बीतराग गुरुके चरणसे पवित्र हुई है ! - देखो, यह भक्ति !! इसमें इसे शर्म नहीं आती कि अरे, मेरे बहुमूल्य मुकुटमें धूल लग गई ! - अथवा अन्य मेरी हँसी उड़ायेंगे ! अरे, भक्तिमें शर्म कैसी ? भगवानके भक्तको भगवान के दर्शन बिना चैन नहीं । यहाँ ( सोनगढ़ में ) पहले मंदिर नहीं था, तब भक्तोंको ऐसा विचार आया कि अरे, अपनेको यहाँ भगवानका विरह हुआ है, उनके तो साक्षात् दर्शन नहीं और उनकी प्रतिमाके भी दर्शन नहीं ! - इस प्रकार दर्शनकी भावना उत्पन्न हुई । उस परले संवत् १९९७में यह जिन-मन्दिर बना । आचार्यदेव कहते हैं कि अहो, भगवानके दर्शनसे किसे प्रसन्नता न हो ! और उनका जिन मन्दिर तथा जिन-प्रतिमा स्थापन करावे उसके पुण्यकी क्या बात !! भरत चक्रवर्ती जैसों ने पांच-पांच सौ धनुषकी ऊँची प्रतिमाएँ स्थापित करवाई थीं, उनकी शोभाको क्या बात !! बर्तमानमें भी देखिये- बाहुबली भगवान की मूर्ति कैलो है ! अहा, वर्तमानमें तो इनकी कहीं जोड़ नहीं । नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती महान मुनि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] [१॥ थे, उनके द्वारा इसको प्रतिष्ठा हुई है और इसके सामनेकी पहाड़ी (चन्द्रगिरि) पर एक जिनालयमें उन्होंने गोम्मटसारकी रचना की थी। बाहुबली भगवानकी यह प्रतिमा गोमटेश्वर भी कहलाती है। यह तो सत्तावन फीट ऊँची है और इसका अचिन्त्य-दर्शन है...पुण्य और पवित्रता दोनोंकी झलक उनकी मुद्रा ऊपर चमकती है । और बाहुबली भगवानकी अन्य एक अत्यन्त छोटो (बनेके दाने बराबर) रत्नप्रतिमा मूलबिद्रीमें है। ऐसी प्रतिमा करवानेका उत्साह भाषक-धर्मात्मामोंको आता है ऐसा यहाँ बताना है। देखो, यह किसकी बात चलती है? यह श्रावक धर्मकी बात चलती है। आत्मा रागरहित शुद्धचैतन्यस्वरूप है, उसकी रुचि करके राग घटानेका अन्तरप्रयत्न वह गृहस्थधर्मका प्रकाश करनेवाला मार्ग है। उसमें दानके वर्णनमें जिन-प्रतिमा करानेका विशेष वर्णन किया है। जिस प्रकार, जिसे धन प्रिय है वह धनवानका गुणगान करता है, उसी प्रकार जिसे वीतरागता प्रिय है वह भक्तिपूर्वक वीतरागदेवके गुणगान करता है। उनके विग्हमें उनकी प्रतिमामें स्थापना करके दर्शन-स्तुति करता है। इस प्रकार शुद्धस्वरूपकी दृष्टि रखकर, अशुभ स्थानोंसे बचता है, ऐसा श्रावक-भूमिकाका धर्म है। कोई कहे कि शुद्धता वह मुनिका धर्म, और शुभराग यह श्रावकका धर्म,तो ऐसा नहीं। धर्म तो मुनिको अथवा श्रावकको दोनोंको एक ही प्रकारका रागरहित शुद्धपरिणतिरूप ही है। परन्तु श्रावकको अभी शुद्धता अल्प है वहाँ रागके मेद शिनपूजा, वान आदि होते हैं, इसलिये शुद्धताके साथके इन शुभकार्योंको भी गृहस्थके धर्मरूपसे वर्णन किया है। अर्थात् इस भूमिकामें ऐसे शुभभाष होते हैं। देखिये, नग्न-दिगम्बर सन्त, वनमें बसनेवाले और स्वरूपकी साधनामें छठे-सातवें गुणस्थानमें झलनेवाले मुनिको भी भगवानके प्रति कैसे भाव उल्लसित होते हैं ! वे कहते हैं कि-छोटा-सा मन्दिर बनावे और उसमें जो के दाने जितनी जिन-प्रतिमाको स्थापना करे-उस श्रावकके पुण्यकी अपूर्व महिमा! मर्थात् उसे वीतरागभावकी जो रुचि हुई है उसके महान फलकी क्या बात ! प्रतिमा चाहे छोटो हो-परन्तु वह धीतरागताका प्रतीक है ना! इसकी स्थापना करने वालेको वीतरागका आदर है, उसका फल महान है। कुन्दकुन्दस्वामी तो कहते हैं किबरहंतदेवको बराबर पहचाने तो सम्यकदर्शन हो जावे । जिसे वीतरागता प्रिय लगी, जिसे सर्वशस्वभाव रुचा, उसे सर्वच-वीतरागदेवके प्रति परमभक्तिका उल्लास माता Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (भावकधर्म-प्रकाश १२४.] ६ इन्द्र जैसे भी देवलोक से उतरकर समवसरणमें आ-आकर तीर्थकर प्रभुके चरणोंकी सेवा करते हैं... हजार हजार आँखसे प्रभुको देखते हैं - तो भी उनकी तृप्ति नहीं होती । अहो, आपकी वीतरागी शान्त मुद्रा देखा ही करें ऐसा लगता है ! गृहस्थकी भूमिकामें ऐसे भावोंसे ऊँची जातिका पुण्य बँधता है, इसे राग तो है, परन्तु रागकी दिशा संसारकी तरफ से हटकर धर्मकी तरफ हो गई है, इसलिये arrrrrrकी भावना खूब घुटती रहती है । अहा, भगवान् स्वरूपमें ठहर गये लगते हैं, तादृष्टापनेसे जगत्को साक्षीरूप देख रहे हों और उपशम-रसकी धाग बरस रही हो-ऐसी भावषाही जिन प्रतिमा होती है । ऐसी निर्विकार वीतराग जिनमुद्राका दर्शन वह अपने वीतरागस्वभावके स्मरणका और ध्यानका निमित्त है । धर्मका ध्येय वीतरागता है। जिसप्रकार चतुर किसान चारेके लिये नहीं बोता परन्तु अनाज हेतु बोता है; अनाजके साथ चारा भी बहुत होता है । उसीप्रकार धर्मीका प्रयत्न वीतरागताके लिये है राग हेतु नहीं । चैतन्यस्वभावकी दृष्टिपूर्वक शुद्धताको साधते - साधते बीचमें पुण्यरूपी ऊँचा घास भी बहुत पकता है । परन्तु इस घासको कोई मनुष्य नहीं खाताः मनुष्य तो अनाज खाता है; उसीप्रकार धर्मी जीव रागको अथवा पुण्यको आदरणीय नहीं मानता है, वीतरागभावको ही आदरणीय मानता है । देखो, इसमें दोनों बातें इकट्ठी हैं, धावककी भूमिकामें राग कैसा होता है और धर्म कैसा होता है- इन दोनोंका स्वरूप इसमें आ जाता है । पुष्टिकर होता है; दुष्कालमें नहीं होती; उसीप्रकार जहाँ शानीको धर्म सहित जो पुण्य होता है वह ऊँची जातिका होता है; अज्ञानीका पुण्य बिना सारवाला होता है, उसकी पर्याय में धर्मका दुष्काल है । जिसप्रकार उत्तम अमाजके साथ नो घास पकता है वह घास भी अनाज बिना अकेला घास पकता है उसमें बहुत पुष्टि धर्मका दुष्काल है वहाँ पुण्य भी हलका होता है, और धर्मकी भूमिका में पुण्य भी ऊँची जातिका होता है । तीर्थकरपना, चक्रवर्तीपना, इन्द्रपना आदिका लोकोत्तर पुण्य धर्मकी भूमिकामें ही बँधता है गृहस्थोंको जिन-मन्दिर जिनबिम्ब बनवानेसे तथा आहारदान आदिले महान पुण्य बँधता है, इसीलिये मुनिराजने उसका उपदेश दिया है। अधिकृत स्क्रूसके आनन्दमें झूलनेवाले संत-प्राण जावें तो भी जो झूठ नहीं बोलें, और इन्द्राणी आकाशसे उत्तर आवे तो भी अशुभवृत्ति जिन्हें नहीं उठे, - ऐसे वीतरागी मुनिका यह कथन है, जगत के पाससे इन्हें एक कण भी नहीं चाहिये, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावपर्म प्रकाश मात्र जगतके जीवोंको लोभरूपी पापके कुएँसे निकालने और धर्म में लगाने हेतु करुणापूर्वक उपदेश दिया है। जिसका पत्थर जैसा हदय होवे उसकी भित्र बात है, परन्तु फूलकी कली जैसा कोमल जिसका हृदय हो उसे तो इस वीतरागी उपदेशकी गुंगार सुनते ही प्रसन्नता हो उठेगी: जिनेन्द्र भक्तिवंत तो आनन्दित होगा। परन्तु जिस प्रकार उल्लूको अथवा घुग्घूको सूर्यका प्रकाश अच्छा नहीं लगता है, उसे तो अंधेरा अच्छा लगता है, उसी प्रकार चैतन्यका प्रकाश करनेवाला यह वीतरागी उपदेश जिसे नहीं रुचता वह भी मिथ्यात्वके घोर अन्धकारमें पड़ा हुआ है। जिज्ञासुको तो ऐसा उल्लास आता है कि अहो, यह तो मेरे चैतन्यका प्रकाश करने वाली अपूर्व बात है। तीनलोकके नाथ जिनदेव जिसमें विराजमान होते हैं उसकी शोभा हेतु धर्मी भक्तोंको उल्लास होता है। वादिराज स्वामी कहते हैं-प्रभो! आप जिस नगरीमें मवतार लेते हैं वह नगरी सोनेकी हो जाती है, तो ध्यान द्वारा मैंने मेरे हृदयमें आपको स्थापन किया और यह शरीर बिना रोगके सोने जैसा न होवे यह कैसे हो सकता है ? और आपको आत्मामें विराजमान करते ही आत्मामें से मोहरोग नष्ट होकर शुद्धता न होवे यह कैसे बने ? धर्मी श्रावकको, उसीप्रकार धर्मके जिज्ञासु नैनको ऐसा भाव आता है कि महो, मैं मेरे वीतरागस्वभावके प्रतिबिम्बरूप इस जिनमुद्राको प्रतिदिन देख। जिसप्रकार माताको बिना पुत्रके चैन न पड़े उसी प्रकार भगवानके विरहमें भगवानके दर्शन बिना भगवानके पुत्रोंको-भगवानके भक्तोंको चैन नहीं पड़ता। घेलना रानी श्रेणिक राजाके राज्यमें आई परन्तु श्रेणिक तो बौद्ध धर्मको मानता था, इसलिये उसे वहाँ जैनधर्मकी छटा नहीं दिखी, इस कारण बेलनाको किसी प्रकार चैन नहीं पड़ा, आखिर में राजाको समझाकर बड़े-बड़े जिन मन्दिर बनवाए और श्रेणिक राजाको भी जैनधर्म ग्रहण करवाया। इसीप्रकार हरिषेण चक्रवर्तीकी भी कथा आती है। इनकी माता जिनदेवकी विशाल रथयात्रा निकालनेकी मांग करती रहीं परन्तु दूसरी रानियोंने उस रथको रुकवा दिया इसलिये हरिषेणकी माता ने अनशनकी प्रतिज्ञा ली थी कि मेरे जिनेन्द्र भगवानका रथ धूमधामसे निकलेगा तभी मैं आहार लूंगी ।-आस्बिरमें उसके पुत्रने चक्रवर्ती होकर बड़ी धूमधामसे भगवानकी रथयात्रा निकाली। अकलंक स्वामीके समयमें भी ऐसी ही पात दुई और उन्होंने बौद्ध गुरुको वाद-विवादमें हराकर भगवानकी रथयात्रा निकलवायी और जैनधर्मकी बहुत प्रभावनाकी। (इन तीनोंके-चेलनारानी, हरिषेण चक्रवर्ती भौर अकलंक स्वामीके धार्मिक नाटक सोनगढ़में हो चुके है।) इसप्रकार धर्मी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ आवकच प्रकाश १२६ ] धावक भक्तिपूर्वक जिनशासनकी प्रभावना करते हैं, जिन-मन्दिर बन्धवाते हैं, वीतराग जिनबिम्बकी स्थापना करते हैं और इसके कारण उन्हें अतिशय पुण्य बँधता है ! चाहे छोटी से छोटी वीतराग प्रतिमा हो परन्तु उसकी स्थापनामें त्रैकालिक वीतरागमार्गका आदर है ! इस मार्गके आइरसे ऊँचा पुण्य बँधता है । - इसप्रकार जिनदेवके भक्त धर्मी- श्रावक अत्यन्त बहुमानसे जिन - मन्दिर तथा जिन-बिम्बको स्थापना कराते हैं वह बात कही तथा उसका उत्तम फल बताया । जहाँ जिन-मन्दिर होता है वहाँ सदैव धर्मके नये-नये मंगल-उत्सव होते रहते हैं, वह बात अब अगली गाथामें कहेंगे । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] [२३] श्रावककी धर्मप्रवृत्तिके विविध प्रकार ********** **************** ************ சு ******************* ❤❤ சு धर्मी जीवको घरकी शोभाकी अपेक्षा जिन-मंदिरकी शोभाका अधिक उत्साह होता है; सर्व प्रकारसे संसारकी ओरका प्रेम कम करके धर्मके प्रेमको वह बढ़ाता है। मात्र किसी कुल में जन्म लेनेसे श्रावकपना नहीं होता, परन्तु सर्वज्ञको पहिचान और स्त्रसन्मुखता पूर्वक श्रावकधर्म का आचरण करनेसे श्रावकपना होता है । जहाँ धर्मके उत्सव के लिये रोज दान होता है, जहाँ मुनि आदि धर्मात्माओंका आदर होता है वह गृहस्थाश्रम शोभा पाता है, इसके बिना श्रावकपना शोभा नहीं पाता है । [ १२७ जहाँ जिन-मन्दिर हो वहाँ श्रावक हमेशा भक्तिसे नये-नये उत्सव करता है, उसका वर्णन करते हैं यात्राभिः स्नपनैर्महोत्सवशतैः पूजाभिरुल्लोचकैः नैवेद्यैर्बलिभिर्ध्वजैश्व कलशैः सूर्यत्रिकेर्जागरेः । घंटा चारदर्पणादिभिरपि प्रस्वार्य शोभां पर्श भव्याः पुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्यत्र चैत्यालये ॥ २३ ॥ इस जगतमें जहाँ बैत्यालय हो वहाँ भव्य जोव रथयात्रा निकाले | भगवानका कलशाभिषेक आदि सैकड़ों प्रकारके बड़े-बड़े उत्सव करे, अनेक प्रकारके पूजनादि करे, चाँदनी - बँदेवा - तोरण चढ़ावे, नैवेद्य तथा अन्य भेंट चढ़ावे ध्वज, कलश, सूर्यत्रिक अर्थात् गीत-नृत्य - साज, जागरण, घंटा, बँवर तथा दर्पण आदि द्वारा उत्कृष्ट शोभाका विस्तार करे। - इसप्रकार निरन्तर पुण्यका उपार्जन करता है । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२८ ] [ भावकधर्म-प्रकाश देखो, जहाँ धर्मके प्रेमी श्रावक हो वह जिन-मंदिर हो, और जहाँ मन्दिर हो वहाँ प्रतिदिन मंगल-महोत्सव हुआ करे। किसी समय मंदिरकी वर्षगाँठ हो, भगवानके कल्याणकका प्रसंग हो, पर्युषण हो, अष्टाह्निका-पर्व हो, ऐसे अनेक प्रसंगोंमें धर्मी जीव भगवानके मन्दिर में पूजा-भक्तिका उत्सव करावे । इस बहाने दानादिमें अपना धन खर्च करके शुभभाव करे और रागको घटावे। जो कि वीतरागभगवान तो कुछ नहीं देते और कुछ नहीं लेते, पूजा करनेवालेके प्रति अथवा निन्दा करने वालेके प्रति उन्हें तो वीतरागभाव ही वर्तता है, परन्तु भक्तको जिन-मन्दिरकी शोभा आदिका उल्लासभाव आये बिना नहीं रहता। अपने घरकी शोभा बढ़ानेका भाव कैसे माता है ?--उसीप्रकार धर्मीको धर्मप्रसंगमें जिन मन्दिरकी शोभा किसप्रकार बड़े,-ऐसा भाव आता है। श्रावक अत्यन्त भक्तिसे शुद्ध जल द्वारा भगवानका मभिषेक करे तब उसे ऐसा भाव उल्लसित होवे कि मानों साक्षात् अरहन्तदेवका ही स्पर्श हो रहा हो। जिसप्रकार पुत्रके लग्न आदि प्रसंगमें उत्सव करता है और मंडपकी तथा घरकी शोभा कराता है, उसकी अपेक्षा अधिक उत्साहसे धर्मी जीव धर्मकी शोभा और उत्साह करावे ।-जहाँ मन्दिर हो और जहाँ धर्मो श्रावक हो वहाँ बारम्बार आनन्द-मंगलके ऐसे प्रसंग बना करें, और घरके छोटे बच्चोंमें भो धर्मके संस्कार पड़े। धर्मके लिये जो अनुकूल न हो अथवा धर्मके लिये जो बाधाकारक लगे ऐसे देशको, ऐसे संयोगको धर्मी जोव छोड़ दे। जहाँ जिन-मन्दिर आदि हो वहां धर्मात्मा रहे, और वहां नये-नये मंगल-उत्सव हुआ करें। और कोई प्रकारका जिनमन्दिर अथवा जिनप्रतिमा हो वहाँ यात्रा करनेके लिये अनेक श्रावक आवें; तथा सम्मेदशिखर, गिरनार आदि तीर्थोकी यात्रा भो श्रावक करे,-सप्रकार वह मोक्षगामी सन्तोंको याद करता है। किसी समय मन्दिरको वर्षगाँठ हो, किसी समय मन्दिरको दस अथवा पच्चीस अथवा सौ वर्ष पूरे होते हो तो वह उसका उत्सव करे; कोई बड़े संत-महात्मा मुनि मादि पधारें तब उत्सव करे, पुत्र-पुत्रीके लग्नोत्सव-जन्मोत्सव मादिके निमित्त भी मन्दिरमें पूजनादिसे शोभा करावे, रथयात्रा निकलवाये, इस प्रकार प्रत्येक प्रसंगमें गृहस्थ धर्मको याद किया करे । कोई नया महान् शान आवे तब उसके बहुमानका उत्सव करे । शास्त्र अर्थात् जिनवाणी, वह भी भगवानकी तरह ही पूज्य है। अपने घरको जैसे तोरण आदिसे शृंगारित करता है और नये-नये बन लाता है उसीप्रकार जिन-मन्दिरके द्वारको भौति-भांतिके तोरण मादिसे शृंगारित करे और नये-नये बंदोषा आदिसे शोभा बढ़ाये। इसप्रकार भावकके Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] रागकी दशा बदल गई है। साथ ही साथ वह यह भी जानता है कि यह राग पुण्यावका कारण है, और जितनी वीतरागी शुद्धता है उतना ही मोसमार्ग है। जिन-मन्दिरके ऊपर कलश तथा ध्वज चढ़बानेका भी महान उत्सव होता है। पूर्व समयमें तो शिखर में भी कीमती रत्न लगवाते थे, वे जगमगाते थे। नये-नये वीतरागी चित्रों द्वारा मन्दिरकी शोभा करे-स प्रकार भावक सर्वप्रकारसे संसारका प्रेम कम करके धर्मका प्रेम बढ़ाता है। जिसे वीतरागमार्गके प्रति प्रेम उल्लसित हुमा है उसे ऐसे भाव श्रावकदशामें आते हैं। इस धूलके ढेर जैसा शरीरका फोटो किस प्रकार निकलवाता है ? और कितने प्रेमसे देखता है और शंगार करता है? तो वीतराग-जिनबिम्ब वीतरागभगवानका फोटो है, परमात्मदशा जिसे प्रिय हो उसे इनके प्रति प्रेम और उल्लास आता है। केवल कुल-विशेषमें जन्म लेनेसें श्रावकपना नहीं हो जाता, परन्तु सर्पक्षकी पहिचान पूर्वक श्रावकधर्मका आचरण करनेसे श्रावकपना होता है । समयमारमें जिस प्रकार एकत्व-विभक्त शुद्धात्मा बताया है उस प्रकार शुद्ध मात्माकी पहिचानपूर्वक सम्यकदर्शन होवे तो श्रावकपना शोभा देता है। सम्यग्दर्शनके बिना भावकपना शोभा नहीं देता । निर्विकल्प अनुभूति सहित सम्यग्दर्शन होवे उसके बाद मानन्दकी अनुभूति और स्वरूपस्थिरता बढ़ जानेसे अप्रत्याख्यान कषायोंका भी प्रभाव होता है, ऐसी आंशिक अरागी दशा होवे उसका नाम धावकपना है । और उस भूमिकामें जो राग बाकी है उसमें जिनेन्द्रदर्शन-पूजन, गुरुसेवा, शासस्वाध्याय, दान, अणुवत आदि होते हैं, इसलिये वह भी व्यवहारसे श्रावकका धर्म है। ऐसे भावकधर्मका यह प्रकाशन है। __वर्तमानमें तीर्थकर भगवान साक्षात् नहीं है परन्तु उनकी वाणी तो है, इस पाणीसे भी बहुत उपकार होता है, इसलिये उस वाणीकी (शासकी) भी प्रतिष्ठा की जाती है। और भगवानकी मूर्ति समक्ष देखनेसे ऐसा लगता है मानो साक्षात् भगवान मेरे सामने ही विराज रहे हैं-स प्रकार अपने ज्ञानमें भगवानको प्रत्यक्ष करके साधकको भक्ति-भाष पल्लसित होता है। प्रतिदिन भगवानका अभिषेक करते समय प्रभुका स्पर्श होने पर श्रावक महान हर्ष मानता है कि अहो, माज मैंने भगवानके चरण स्पर्श किये, माज भगवानकी वरण-सेवाका परम सौभाग्य मिला । इस प्रकार धर्मात्माके हृदयमें भगवानके प्रति प्रेम उमड़ता है। मन्दिरमें भगवानके पाससे घर जाना पड़ता है वहाँ इसे अच्छा नहीं लगता, उसे लगता है कि भगवान Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] [ श्रावकधर्म प्रकाश के पास ही बैठा रहूँ। भगवानकी पूजा आदिके बर्तन भी उत्तम हो; घरमें तो अच्छे बर्तन रखे और पूजन करने हेतु · मामूली बर्तन ले जावे-ऐसा नहीं होता। इसप्रकार श्रावकको तो चारों ओरसे सभी पहलुओंका विवेक होता है। साधर्मियों पर भी उसे परम वात्सल्यभाव होता है। जिसे बीतरागस्वभावका भान हुआ है और मुनिदशाकी भावना वर्तती है ऐसे जीवका यह वर्णन है। उसके पहले जिज्ञासु भूमिकामें भी यह बात यथायोग्य समझ लेना चाहिए। धर्मके उत्सवमें जो भक्तिपूर्वक भाग नहीं लेता, जिसके घरमें दान नहीं होता उसे शास्त्रकार कहते हैं कि भाई ! तेरा गृहस्थाश्रम शोभा नहीं पाता। जिस गृहस्थाश्रममें रोज-रोज धर्मके उत्सव हेतु दान होता है, जहाँ धर्मात्माका आदर होता है वह गृहस्थाश्रम शोभा पाता है और वह श्रावक प्रशंसनीय है। अहा! शुद्धात्माको राष्टिमें लेते हो जिसकी दृष्टिमेंसे सभी राग छूट गया है उसके परिणाममें रागकी कितनी मंदता होती है ! और यह मंद राग भी सर्वथा छूटकर वीतरागता होवे तब ही केवलज्ञान और मुक्ति होती है !-ऐसे मोक्षका जो साधक हुआ उसे रागका आदर कैसे होवे ? अपने वीतरागस्वभावका जिसे भान है वह सामने वीतरागबिम्पको देखते ही साक्षात्की तरह ही भक्ति करता है, क्योंकि इसने अपने शानमें तो भगवान साक्षातरूप देखे हैं ना! श्रावकको स्वभावके आनंदका अनुभव हुमा है, स्वभावके आनंदसागरमें एकाप्र होकर बारम्यार उसका स्वाद चखता है, उपयोगको अंतरमें जोड़कर शान्तरसमें बारम्बार स्थिर होता है, परन्तु वहाँ विशेष उपयोग नहीं ठहरता इसलिये अशुभ प्रसंगोंको छोड़कर शुभ प्रसंगमें वह वर्तता है, उसका यह वर्णन है। ऐसी भूमिकावाला श्रावक आयु पूर्ण होने पर स्वर्गमें ही जावे-ऐसा नियम है, क्योंकि श्रावकको सीधी मोक्षप्राप्ति नहीं होती; सर्वसंगत्यागी मुनिपनेके बिना सीधी मोक्षप्राप्ति किसीको नहीं होती। साथ ही पंचमगुणस्थानी श्रावक स्वर्ग सिवाय अन्य कोई गतिमें नहीं जाता है। अतः श्रावक शुभभावके फलमें स्वर्गमें ही जाता है, और पीछे क्या होता है वह बात आगेकी गाथामें कहेंगे। .. . . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावधर्म-प्रकाश ] .................[२४]........... श्रावकको पुण्यफलप्राप्ति और मोक्षकी साधना . . . ********* EBRUAE333333BABESBXB भ A RERAISATANISATRITIERSA श्रावकको सिद्ध भगवान जैसे आत्मिक-आनन्दका अंश होता है। वह उत्तम स्वर्गमें जाता है परन्तु उसके वैभवमें मूञ्छित नहीं होता, वहाँ भी आराधकभाव बनाये रखता है, और बादमें मनुष्य होकर वैराग्य प्राप्त कर मुनि होकर आत्मसाधना पूरी करके केवलशान प्रगट * करके सिद्धाळयमें जाता है। ऐसा श्रावकधर्मका फल है। STARTRSRARARIAN RAATRA + ARTISRIVASRHARURREARS धर्मी श्रावक सर्वशदेवको पहिचानकर देवपूजा आदि षट्कार्य प्रतिदिन करता है, जिन-मन्दिरमें अनेक उत्सव करता है, और उससे पुण्य बांधकर स्वर्गमें जाता है। वहाँ आराधना चालू रखकर बादमें उत्तम मनुष्य होकर मुनिपना लेकर केवलहान और मोक्ष पाता है; ऐसी बात अब कहते हैं ते चाणुव्रतधारिणोऽपि नियतं यान्त्येव देवालय तिष्ठंत्येव महर्दिकामरपदं तत्रैव लन्ध्वा चिरम् । अनागत्य पुनः कुलेऽतिमहति प्राप्त प्रकृष्टं शुभाव मानुष्यं च विरागतां च सकलत्यागं च मुक्तास्ततः ॥ २४ ॥ वह धावक चाहे मुनिवत न ले सके और अणुव्रतधारी ही होवे तो भी, मायु पूर्ण होने पर नियमसे स्वर्गमें जाता है, वहाँ अणिमा मादि महान ऋद्धिसहित बहुत काल पर्यन्त अमरपदमें (देवपदमें ) रहता है, उसके बाद प्रकृट शुम द्वारा महान उत्तम कुलमें मनुष्यपना प्राप्त कर, वैरागी होकर, सकल परिप्रहका त्याग कर मुनि होकर शुद्धोपयोगरूपी साधन द्वारा मोक्ष पहुँचता है।-स प्रकार श्रावक परम्पराले मोसको साधता है-ऐसा जानना । । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] (भावकधर्म-प्रकाश मुनि तो मोक्षके साक्षात् साधक है; और श्रावक परम्परासे मोक्षका साधक है। श्रावकको केवल व्यवहारसाधन है ऐसा नहीं, किन्तु उसे भी अंशरूप निश्चयसाधन होता है और वह निश्चयके बलसे ही (अर्थात् शुद्धिके बलसे ही) आगे बढ़कर राग तोड़कर केवलज्ञान और मोक्ष पाता है। श्रावकको अभी शुद्धता कम है और राग शेष है-इसलिये वह स्वर्गमें महान ऋद्धि सहित देव होता है। श्रावक मरकर कभी भी विदेहक्षेत्रमें जन्म नहीं लेता। मनुष्यगसिसे मरकर विदेहक्षेत्रमें उत्पन्न होनेवाला तो मिथ्यादृष्टि ही होता है पहले बंधी हुए आयुके कारण जो समकिती मनुष्य पुनः सीधा मनुष्य ही बने वह तो असंख्य वर्षकी आयु वाली भोगभूमिमें ही जन्म लेवे, विदेह आदिमें जन्म नहीं लेता. और पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक तो कभी मनुष्यपर्यायमेंसे मनुष्य होता ही नहीं, देवगतिमें ही जाता है, ऐसा नियम है। सम्यक्ष्टि मनुष्य कभी मनुष्य, तिर्यच अथवा नरककी आयु नहीं बांधता; मनुष्यगतिमें ये तीनों आयु मिथ्याष्टिको भूमिकामें ही बंधती हैं;-आयु बंधने पर चाहे सम्कदर्शन प्राप्त हो जाय-यह बात अलग है, परन्तु इन तीनमें से कोई आयु बाँधते समय तो वह मनुष्य मिथ्यादृष्टि ही होता है। सम्यक्दृष्टि देव होवे या नारकी हो वह मनुष्यकी आयु बाँध सके, परन्तु सम्यकदृष्टि मनुष्य यदि उसे भव होवे और आयु बघि, तो देवगतिकी ही आयु बाँधे, अन्य न बाँधे -ऐसा नियम है। गृहस्थपने में अधिकसे अधिक पांचवें गुणस्थान तक की भूमिका होती है, इससे ऊँची भूमिका नहीं होती, वह अधिकसे अधिक एकभवावतारी हो सके परन्तु गृहस्थावस्थामें मोक्ष नहीं पा सकता । बाह्य-मभ्यन्तर दिगम्बर मुनिदशा हुए बिना कोई जीव मोक्ष नहीं पा सकता। भाषक-धर्मात्मा आराधकभाषके साथ उत्तम पुण्यके कारण यहाँसे वैमानिक देवलोकमें जाता है, वहाँ अनेक प्रकार महानऋद्धि और वैभव होते हैं, परन्तु धर्मी उसमें मूच्छित (मोहित) नहीं होता, वह वहाँ भी आराधना चालू रखता है। उसने मात्माका सुख बखा है इसलिये बाह्यवैभवमें मूच्छित होता नहीं। स्वर्गमें जन्म होने पर वहाँ सबसे पहले इसे ऐसा भाव होता है किअहो! यह तो मैंने पूर्वभवमें धर्मका सेवन किया उसका प्रताप है, मेरी आराधना मधूरी रह गई, और राग शेष रहा इस कारण यहाँ अवतार हुआ; पहले जिनेन्द्रभगवानकी पूजन-भक्ति की थी उसका यह फल है। इसलिये चलो, सबसे पहले जिनेन्द्र भगवानका पूजन करना चाहिये। ऐसा कहकर स्वर्गमें जो शाश्वत जिनप्रतिमा हैं उनकी पूजा करता है। इस प्रकार यह स्वर्गमें भी भाराधकभाव चालू Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषकधर्म-प्रकाश रखकर वहाँ असंख्य वर्षकी आयु पूर्ण होने पर उत्तम मनुप्यकुलमें जन्म लेता है, और योग्य कालमें वैराग्य पाकर मुनि होकर आत्मसाधना पूर्ण करके केवलज्ञानप्रगट करके सिद्धालयमें जाता है। देखो, इस भावकवशाका फल ! श्रावकको मिद भगवान जैसा मास्मिक मानन्दका अंश होता है, और वह एकभवावतारी भी होता है । या उत्कए बात कही। कोई जीव को दो-तीन अथवा अधिकसे अधिक आठ भव भी (माराधकभाव सहितके, मनुष्यके ) होते हैं । परन्तु वह तो मोक्षपुरी में जाते-जाते बीचमें विभाम लेने जितने हैं। देखो, यह प्रावकधर्मके फलमें मोक्षप्राप्ति कहो, अर्थात् यहाँ श्रावकधर्ममें एकमात्र पुण्यकी बात नहीं, परन्तु सम्यक्त्वसहितकी शुद्धतापूर्वकको यह बात है। आत्माके शान बिना सच्चा श्रावकपना नहीं होता, श्रावकपना क्या है इसका भी बहुतोंको ज्ञान नहीं । जैनकुलमें जन्म लेनेसे ही श्रावकपना मान ले, परन्तु ऐसा श्रावकपना नहीं । भावकपना तो आत्माको दशामें है। अपन ता गृहस्थ है इसलिये सी-कुटुम्बको संभाल करना अपना कर्तव्य' है-ऐसा मानी मानता है। परन्तु माई ! तेरा सच्चा कर्तव्य तो अपनी आत्माको सुधारनेका है, जीवनमें यही सच्चा कर्तव्य है, अन्यका कर्तव्य तेरे पर नहीं। अरे, पहले पेसी श्रद्धा तो कर ! प्रसार पश्चात् अल्प रागादि होंगे परन्तु धर्मी उसे कर्तव्य नहीं स्वीकारता इसलिये वे लैंगरे हो जायेंगे, अत्यन्त मन्द हो जायेंगे । जैसे रंग-बिरंगे कपड़ेसे लिपटो सोनेकी लकड़ी वह कोई वस्त्ररूप नहीं होती, उसी प्रकार चित्र-विचित्र परमाणु मोंके समूहसे लिपटी यह चैतन्य-लकड़ो कोई शरीररूप हुई नहीं, भिन्न ही है। आत्माको जहाँ शरीर ही नहीं वहाँ पुत्र मकान आदि कैसे?-यह तो स्पष्टरूपसे बाहर-दूर पड़े हैं। ऐसा मेदवान करना सच्चा विवेक और चतुराई है। बाहरको चतुराई में तो कोई हित नहीं। चतुर उसे कहते हैं जो चैतन्यको चेते, जाने; विवेकी उसे कहते कि है जो स्व-परका विवेक करे अर्थात् भिन्नता जाने; जीव उसे कहते हैं जो बान-आनन्दमय जीवन जीवे; चतुर उसे कहते हैं जो आत्माके जाननेमें अपनी चतुराई खर्च करे ? आत्माके जाननेमें जो मूढ़ रहे उसे चतुर कौन कहे ?-उसे विवेकी कौन कहे! मोर भात्मपान बिना जीने को जीवन कौन कहे ? भाई, मूलभूत वस्तु तो मारमाको पहचान है। तीर्थयात्रामें भी मुस्य हेतु यह है कि तीर्थ में माराधक जीवोंका विशेष स्मरण रोता है तथा कोई सन्त-धर्मास्माका सत्संग मिले । अहिंसा आदि अणुवतका पालन, जिनेन्द्रदेवका दर्शन-पूजन, तीर्थयात्रा आदिसे श्रावकको उत्तम पुण्य संधता है और Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] [भावकधर्म-प्रकाश यह स्वर्गमें जाता है। श्रावकको ऐसी भावना नहीं है कि मैं पुण्य करूँ और स्वर्गमें आऊँ परन्तु जैसे किसीको चौबीस गाँव जाना हो और सोलह गाँव चलकर बीचमें थोड़े समय विश्रामके लिये रुक जावे, वह कोई वहाँ रुकनेके लिये नहीं, उसका ध्येय तो चौबीस गाँव जानेका है; उसोप्रकार धर्मीको सिद्धपदमें जाते-जाते, राग छूटते छूटते कुछ राग शेष रह गया, इसलिये बीच में स्वर्गका भव होता है, परन्तु इसका ध्येय कोई वहाँ रुकनेका नहीं, इसका ध्येय तो परमात्मस्वरूपकी प्राप्ति करना ही है। मनुष्यभवमें हो अथवा स्वर्गमें हो, परन्तु वह परमात्मपदकी प्राप्ति की भावनासे ही जीवन बिताता है । देखो तो, श्रीमद् राजचन्द्रजी भी गृहस्थपनामें रहकर मुनिदशाकी कैसी भावना भाते थे ? ( 'अपूर्व-अवसर' काव्यमें मुनिपदसे लेकर सिचदशा तकके परमपदकी भावना भायी है।) आंशिक शुद्धपरिणति सहित धर्मात्माका जीवन भी अलौकिक होता है। पुण्य और पाप, अथवा शुभ या अशुभराग विकृति है; उसके अमावसे मानन्ददशा प्रगट होती है वह स्वभाविक मुक्तदशा है । श्रावक साधकको भी ऐसी आनन्ददशाका नमूना प्रगट हो गया है ।-ऐसी दशाको पहचानकर उसकी भावना भाकर, जिसकार बने उसप्रकार स्वरूपमें रमणता बढ़ाने और रागको घटानेका प्रयत्न करना जिससे अल्पकालमें पूर्ण परमात्मदशा प्रगट होनेका प्रसंग आवे । भाई, सम्पूर्ण राग न छूटे और तू गृहस्थदशामें हो तब तेरी लक्ष्मीको धर्मप्रसंगमें खर्च करके सफल कर । जैसे चन्द्रकान्त-मणिकी सफलता कय कि चन्द्रकिरणके स्पर्शसे उसमेंसे अमृत झरे तबः उसीप्रकार लक्ष्मीकी शोभा कब? कि सत्पात्रके योगसे वह दानमें खर्च होवे तब । श्रावक-धर्मीजीव निश्चयसे तो अन्तरमें स्वयं अपनेका वीतरागभावका दान करता है, और शुभराग द्वारा मुनियोंके प्रति, साधर्मियों के प्रति भक्तिसे दानादि देता है, जिनेन्द्रदेवकी पूजनादि करता है-ऐसा उसका व्यवहार है। इसप्रकार चौथी-पाँचवीं भूमिकामें धर्माको ऐसा निश्चय-व्यवहार होता है। कोई कहे कि चौथी भूमिकामें जरा भी निश्चयधर्म नहीं होता-तो वद पात असत्य है: निश्चय बिना मोक्षमार्ग कैसा? और, वहाँ निश्चयधर्मके साथ पूजा-दान-अणुवत आदि जो व्यवहार है उसे भी जो न स्वीकारे तो वह भी भूल है। जिस भूमिकामें जिसप्रकारका निश्चय-व्यवहार होता है उसे बरावर स्वीकार करना चाहिये । व्यवहारके आश्रयसे मोक्षमार्ग माने तो ही व्यवहारको स्वीकार किया कहा जाय' ऐसा श्रद्धान ठोक नहीं है। बहुतसे ऐसा कहते हैं कि तुम Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषकधर्म-प्रकाश ] [ १३५ व्यवहारके अवलम्बनसे मोक्ष होना नहीं मानते, इसलिये तुम व्यवहारको ही नहीं मानते, परन्तु यह बात बराबर नहीं है। जगतमें तो स्वर्ग-नरक, पुण्य-पाप, जीवअजीव सब तत्त्व हैं, उनके आश्रयसे लाभ माने तो ही उन्हें स्वीकार किया कहा जावे ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है; इसीप्रकार व्यवहारको भी समझना । मुनिधर्म और श्रावकधर्म ऐसे दोनों प्रकारके धर्मों का भगवानने उपदेश दिया है। इन दोनों धर्मोंका मूल सम्यग्दर्शन है। वहाँ स्वोन्मुखताके बल द्वारा जितना राग दूर होकर शुद्धता प्रगट हुई उतना ही निश्चयधर्म है, और महावत-अणुक्त अथवा दान-पूजा आदि सम्बन्धी जितना शुभराग रहा उतना उस भूमिकाका भसद्भूत व्यवहारनयसे जानने योग्य व्यवहारधर्म है। धर्मी जीव स्वर्गमें जाता है वहाँ भी जिनेन्द्र-पूजन करता है, भगवानके समवसरणमें जाता है, नन्दीश्वर द्वीप जाता है, भगवानके कल्याणक प्रसंगोंको मनाने आता है, ऐसे अनेक प्रकारके शुभकार्य करता है। देवलोकमें धर्मीकी आयु इतनी होती है कि देवके एक भवमें तो असंख्य तीर्थंकरों के कल्याणक मनाये जाते हैं । इसलिये देवोंको 'अमर' कहा जाता है। देखो तो, जीवके परिणामकी शक्ति कितनी है ! शुद्ध परिणाम करे सो दो घड़ीमें केवलज्ञान प्राप्त करे; दो घड़ीके शुभपरिणाम हाग असंख्य वर्षका पुण्य बँधे; और अज्ञान द्वारा तीव्र पाप करे तो दो घडीमें असंख्य वर्ष तक नरकके दुःख को प्राप्त करे !-उदाहरणस्वरूप ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीकी आयु कितनी ? कि सात सौ (७००) वर्षः इन सात सौ वर्षोंकी संख्यात सेकंड होती हैं। इतने कालमें इसने नरककी तैतीस सागरोंकी अर्थात् असंख्यात अरब वर्षको आयुष बांधी; अर्थात् एक एक सेकंडके पापके फलमें असंख्य अरब वर्षके नरकका दुःम्व प्राप्त किया। पाप करते समय जीवको विचार नहीं रहता परन्तु इस नरकके दुःख की बात सुने तों घबराहट हो जाय । ये दुःख जो भोगता है-उसकी पीड़ाकी तो क्या बात,-परन्तु इसका वर्णन सुनते ही अज्ञानीको भय पैदा हो जाय ऐसा है । इसलिये ऐसा अवसर प्राप्त करके जीवको चेतना चाहिये । जो चेतकर आत्माकी आराधना करे तो उसका फल महान है, जिसप्रकार पापके एक सेकंडके फलमें असंख्य वर्षका नरकदुःख कहा, उसीप्रकार साधकदशाके एक एक समयकी आराधनाके फलमें अनन्तकालका अनन्तगुना मोक्षसुख है। किसी जीवको साधकदशाका कुल काल असंख्य समयका ही होता है, संख्यात समयका नही होता, अथवा अनन्त समयकामही होता; और मोक्षका काल तो सादि-अनन्त है अर्थात् एक-एक समयके साधकभावके फलमें अनन्तकालका मोक्षसुख आया ।-वाह, कैसा लाभका व्यापार ! भाई, तेरे आत्माके शुद्धपरिणामकी शक्ति कितनी है-वह तो देख ! ऐसे शुद्धपरिणामसे आत्मा जागृत हो तो क्षणमात्रमें कर्मोको तोड़फोड़ कर मोक्षको प्राप्त कर के । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भावकधर्म-प्रकाश १३६ ] कोई जीव अन्तर्मुहूर्त ही मुनिपना पाले, और उस अन्तर्मुहूर्त में शुभपरिणाममें ऐसा पुण्य बाँधे कि नवमी ग्रैवेयकमें इकतीस सागरोपमकी स्थिति वाला देव होता है । देखो, इस जीवके शुभ, अशुभ अथवा शुद्धपरिणामकी शक्ति और उसका फल ! उसमें शुभ-अशुभसे स्वर्ग-नरक के भव तो अनन्तबार जीवने किये. परन्तु शुद्धता प्रगट करके मोक्षको साधे उसकी बलिहारी है ! कोई जीव देवमें से सीधा देव नहीं होता । कोई जीव देवमें से सीधा नारकी नहीं होता । कोई जीव नारकी में से सीधा नारकी नहीं होता । कोई जीव नारकीमें से सीधा देव नहीं होता । देव मरकर मनुष्य अथवा तिर्यचमें उपजे । नारकी मरकर मनुष्य अथवा तिर्यचमें उपजे । मनुष्य मरकर चारोंमें से कोई भी गतिमें उपजे । तिर्यच मरकर चारोंमें से कोई भी गतिमें उपजे । यह सामान्य बात की अब सम्यग्दृष्टिकी बातः देव में से सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यमें ही अवतरे । नरक से सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यमें ही आवे । मनुष्य सम्यग्दृष्टि जीव देवगतिमें जावे, परन्तु जो मिथ्यात्वदशामें आयु बंध गई हो तो नरक अथवा तिर्यच अथवा मनुष्य में भी जावे । तियंच सम्यग्दृष्टि जीव देवगतिमें ही जावे, और पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक ( तिर्यच हो या मनुष्य ) वह तो नियमसे स्वर्ग में ही जावे, अन्य किसी गतिका आयुष्य उसे नहीं होता । इस प्रकार धर्मी श्रावक स्वर्गमें जाता है, और वहाँसे मनुष्य होकर, चौदह प्रकारका अन्तरंग और दस प्रकारका बाह्य - सर्व परिग्रह छोड़कर, मुनि होकर, शुद्धताकी श्रेणी मांड़कर, सर्वक्ष होकर सिद्धलोकको जाता है, वहा सदाकाल अनन्त आत्मिक आनन्दका भोग करता है । अहा, सिद्धोंके मानन्दका क्या कहना ! इस प्रकार सम्यक्त्वसहित अणुव्रतरूप भावकधर्म वह भावकको परम्परासे मोक्षका कारण है, इसलिये श्रावक उस धर्मको अंगीकार करके उसका पालन करे - ऐसा उपदेश है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश ] [ २५ ] मोक्षमार्ग में निश्चयसहित व्यवहारधर्म मान्य ह ********........................*** ***** ************* *********** *********** [ १३० க SSSSSSSS भाई, उत्तम सुखका भंडार तो मोक्षमें है, इसलिये मोम पुरुषार्थ ही सब पुरुषार्थों में श्रेष्ठ है ! साधकको मोक्षपुरुषार्थके साथ अणुव्रतादि शुभरागरूप जो धर्मपुरुषार्थ है वह व्यवहारसे मोक्षका साधन है, इसलिये श्रावककी भूमिका में वह भी ग्रहण करने योग्य है । परन्तु मोक्षके पुरुषार्थ बिना मात्र पुण्य ( मात्र व्यवहार ) की शोभा नहीं, इसका तो फळ संसार है ! CSSSSSSSSSS फ occossos श्रावक पुण्यफलको प्राप्त करके मोक्ष पाता है ऐसा बताया। अब कहते हैं कि शुभराग होते हुए भी धर्मीको मोक्षपुरुषार्थ हो मुख्य है और वह उपादेय और उसके साथका अणुवतादिरूप जो व्यहारधर्म है वह भी मान्य है- . पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्वळतरो मोक्षः परं सत्सुखः शेषास्तद्विपरीतधर्म कलिता हेया मुमुक्षोरतः । तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोपि नो संमतः यो भोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं बुधैर्मन्यते ।। २५ ।। धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंमें मात्र मोक्ष ही ि नाशी और सत्यसुखरूप है, शेष तीन तो इससे विपरीत स्वभाव वाले हैं अर्थात् अस्थिर और दुःखरूप हैं: अतः मुमुक्षुके लिये वे हेय हैं और केवल मोक्ष ही उपादेय है । तथा उस मोक्षके साधनरूप वर्तता होवे वह धर्म भी हमें मान्य हैसंमत है, अर्थात् मोक्षमार्गको साधते साधते उसके साथ महावत अथवा अणुवतके जो शुभभाव होते हैं वे तो संमत हैं, क्योंकि वे भी व्यवहारसे मोक्षके साधन हैं, परन्तु जो मात्र भोगादिके निमित्त है उन्हे तो पंडितजन पाप कहते हैं । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] [भावकधर्म-प्रकाश माचार्यदेव कहते हैं कि अहो, सच्चा सुख तो एक मोक्षपदमें ही है, अतः मुमुक्षुओंको उसका ही पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके सिवाय अन्य भाव तो विपरीत होनेसे हेय हैं । देखिये, इसे विपरीत और हेय कहा उसमें शुभराग भी आ गया । इसप्रकार उसे विपरीत और हेयरूपमें स्वीकार करके, पश्चात् यदि वह मोक्षमार्ग सहित होवे तो उसे मान्य किया है, अर्थात् व्यवहारसे उसे मोक्षमार्गमें स्वीकार किया है । परन्तु जो साथमें निश्चय मोक्षसाधन (सम्यग्दर्शनादि ) न होवे तो मोक्षमार्ग बिना ऐसे अकेले शुभरागको मान्य नहीं करते अर्थात् उसे व्यवहार मोक्षसाधन भी नहीं कह सकते । इसके सिवाय जो काम और अर्थ सम्बन्धी पुरुषार्थ है वह तो पाप ही है, अतः सर्वथा हेय है। भाई, उत्तम सुखका भंडार तो मोक्ष : अतः मोक्षपुरुषार्थ ही सर्व पुरुषार्थ में श्रेष्ठ है । पुण्यका पुरुषार्थ भी इसकी अपेक्षा हल्का है; और संसारके विषयोंकी प्राप्ति हेतु जितने प्रयत्न है वे तो एकदम पाप है, अतः वे सर्वथा त्याज्य है। अब साधकको पुरुषार्थके साथ अणुव्रतादि शुभरागरूप जो धर्मपुरुषार्थ है वह भसद्भूत व्यवहारसे मोक्षका साधन है मतः श्रावककी भूमिकामें वह भी व्यवहारनयक विषयमें ग्रहण करने योग्य है। मोक्षका पुरुषार्थ तो सर्वश्रेष्ठ है, परन्तु उसके अभावमें (अर्थात् निचली साधकदशामें) व्रत-महावतादिरूप धर्मपुरुषार्थ जरूर ग्रहण करना चाहिये। अज्ञानी भी पाप छोड़कर पुण्य करता है तो इसे कोई अस्वीकार नहीं करते: पापकी अपेक्षा तो पुण्य भला ही है। परन्तु कहते हैं कि भाई, मोक्षमार्ग बिना तेरा अकेला पुण्य शोभा नहीं पाता है। क्योंकि जिसे मोक्षमार्गका लक्ष्य नहीं वह तो पुण्यके फलमें मिले हुये भोगोंमें आसक्त होकर पुनः पापमें चला जावेगा। मतः बुधजन-बानी-विज्ञान ऐसे पुण्यको परमार्थसे तो पाप कहते हैं । (देखो, योगीन्द्रदेव आचार्यकृत योगसार दोहा नं. ७१-७२ समयसार गा. १६३, पश्चात् श्री जयसेनाचार्यकी सं. टीकामें परिशिष्ट पुण्य-पाप अधिकार ।) मोसमें ही सच्चा सुख है ऐसा जो समझे वह रागमें या पुण्यफलमें सुख कैसे माने ?-नहीं ही माने । जिसकी दृष्टि अकेले रागमें है और उसके फलमें जिसे सुख लगता है उसे तो शुभभावके साथ भोगकी अभिलाषा पड़ी है, अतः इस शुभ को मोक्षमार्गमें मान्य करते नहीं, मोसके साधनका व्यवहार उसे लागू नहीं पड़ता। धर्मीको मोक्षमार्ग साधते साधते बीबमें अभिलाषा रहित और भद्धामें हेयबुद्धि सहित शुभराग रहता है, उसमें मोसके साधनका व्यवहार लागू पड़ता है। परन्तु Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भापकर्म-प्रकाश ] [११९ शुरूसे ही जो रागको श्रद्धा इष्ट मानकर अपनाता है यह रागसे दूर कैसे होवेगा? और रागरहित मोक्षमार्गमें कहाँसे आवेगा? ऐसे जीव शुभको तो 'भोगहेतु धर्म' समयसारमें कहा है, उसे 'मोक्षहेतु धर्म' नहीं कहते । मोक्षके हेतुभूत सच्चे धर्मकी अबानीको पहचान भी नहीं, रागरहित ज्ञान क्या है उसे यह नहीं जानता, शुबमानके अनुभवका उसे अभाव है इसलिये मोक्षमार्गका उसे अभाव है। धमीको शुद्धजानके अनुभव सहित जो शुभराग शेष रहा उसे व्यवहारसे धर्म, अथवा मोक्षका साधन कहने में आता है। नीचेकी साधक भूमिकामें ऐसा व्यवहार है जहर, उसे जैसा है वैसा मानना चाहिये ।-- इसका अर्थ यह नहीं कि इसे ही उपादेय मानकर सन्तुष्ट हो जाना । वास्तवमें उपादेय तो मोक्षार्थीको निश्चयरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग ही है, उसके साथ उस. उस भूमिकामें जो व्यवहार होता है उसे व्यवहारमें आदरणीय कहा जाता है। तीर्थकर. देवका आदर करना दर्शन-पूजन करना, मुनिवरोंको भक्ति, आहारदान, स्वाध्याय, अहिंसादि व्रतोंका पालन-ये सब व्यवहार है वह सत्य है, मान्य है, मादरणीय, परन्तु निश्चयष्टिमें शुद्धात्मा ही उपादेय है और उसके आश्रयसे दी मोक्षमार्ग है। ऐसी श्रद्धा प्रारम्भसे ही होनी चाहिये । ___ व्यवहारको एकान्त हेय कहकर कोई जीव देवदर्शन-पूजन-अक्ति, मुनि मादि धर्मात्माका बहुमान, स्वाध्याय व्रतादिको छोड़ दे और अशुभको सेवे वह तो स्वच्छन्दी और पापी है; शुद्धात्माके अनुभवमें लीनता होते ही ये सब व्यवहार र जाते है, परन्तु उसके पूर्व तो भूमिकाके अनुसार व्यवहारके परिणाम होते हैं। शुखस्वरूपकी दृष्टि और साथमें भूमिका अनुसार व्यवहार-यह दोनों साधकको साथमें होने हैं। मोक्षमार्गमें ऐसा निश्चय-व्यवहार होता है । कोई एकान्त प्रहण करे अर्थात् नीचेकी भूमिकामें भी व्यवहारको स्वीकार न करे अथवा निश्चय बिना उसे ही सर्वस्व मान ले तो वे दोनों मिथ्यादृष्टि हैं, एकान्तवादी है, और उन्हें निश्चयकी मथवा व्यवहारकी खबर नहीं। बय और निक्षेप सम्यक्सानमें होते हैं अर्थात् सम्यकदृष्टिके ही वे सच्चे होते है। स्वभावष्टि हुई उस सम्यक् भावश्रुत हुमा, और उस समय प्रमाण मौर नय सच्चे हुए; बादमें निश्चय क्या मौर व्यवहार क्या-ऐसी उसको बबर पढ़ती है। निश्चयसापेक्ष व्यवहार धर्मीको हो होता है; मवानीको जो एकान्त व्यवहार है वह सच्चा मार्ग नहों अथवा वह सच्चा व्यवहार नहीं । धर्मी वीव शुद्धताको गाते हुए Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] [भावकधर्म प्रकाश और बीच भूमिकानुसार प्रतादि व्यवहारका पालन करते हुए अंतमें अनन्तसुखके मंडाररूप मोक्षको साधते है। ऐसा मोक्षमार्ग ही मुमुक्षुका परम कर्तव्य है, अर्थात् वीतरागता कर्तव्य है: राग कर्तव्य नहीं। वीतरागता न हो वहाँ तक क्रमशः जितना राग घटे उतना घटाना प्रयोजनवान है। पहले ऐसी वीतरागी सम्यक्दृष्टि करे पीछे ही 'धर्ममें धरण पड़ते हैं, इसके बिना तो, कलश-टीकामें पंडित श्री राजमलजी कहते है, "मरके चूरा होते हुए बहुत कष्ट करते हैं तो करो, तथापि ऐसा करते हुए कर्ममय तो नहीं होता' । देखिये, ३०० वर्ष पहले पंडित बनारसीदासजीने श्री राजमलजी को 'समयसार नाटकके मरमी' कहा है। भावकधर्मके मूलमें भी सम्यग्दर्शन तो होता ही है। ऐसे सम्यक्त्व सहित राग घटानेका जो उपदेश है यह हितकारी उपदेश है। भाई, किसी भी प्रकार जिनमार्ग को पाकर तू स्वद्रव्यके आश्रयके बल द्वारा राग घटा उसमें तेरा हित है: दान आदि का उपदेश भी उसी हेतु दिया गया है। कोई कहे कि खूब पैसा मिले तो उसमेंसे थोड़ा दानमें लगाऊँ (दस लाख मिले तो एक लाख लगाऊँ)-इसमें तो उलटी भावना हुई, लोभका पोषण हुआ; पहले घर को आग लगा और पीछे कुआँ खोदकर उसके पानीसे माग बुझाना-सप्रकारको यह मूर्खता है। वर्तमानमें पाप बाँधकर पीछे दानादि करनैको कहता है, इसकी अपेक्षा वर्तमानमें ही तू तृष्णा घटा लेना भाई! एक बार आत्माको जोर देकर तेरी रुचिकी दिशा ही बदल डाल कि मुझे राग अथवा राग फले कुछ नहीं चाहिये, मात्माकी शुद्धताके अतिरिक्त अन्य कुछ भी मुझे मी । ऐसी रुचिकी दिशा पलटनेसे तेरी दशा पलट जावेगी; अपूर्व दशा प्रगट हो विगी। धीको जहाँ आत्माकी अपूर्व दशा प्रगटो वहाँ उसे देहमें भी एक प्रकार की अपूर्णता मा गई, क्योंकि सम्यक्त्व आदिमें निमित्तभूत होवे ऐसी देह पूर्वमें कभी नहीं मिली थीः अथवा सम्यक्त्वसहितका पुण्य जिसमें निमित्त हो ऐसी देह पूर्वमें मिथ्यात्वदशामें कभी नहीं मिली थी। वाह, धर्मोका आत्मा अपूर्व, धर्मीका पुण्य भी अपूर्व और धर्मीका देह भी अपूर्व ! धर्मी कहता है कि यह देह अंतिम है अर्थात् फिरसे पेसा (विराधकपनाका) देह मिलनेका नहीं; कदाचित् कुछ भव होंगे और देह मिलेंगे तो वे आराधकभाष सहित ही होंगे, अतः उसके रजकण भी पूर्वमें न आये हों ऐसे अपूर्व होंगे, क्योंकि यहाँ जीवके भावमें (शुभमें भी) अपूर्वता मा गो, धर्मी जीवकी सभी बाते अलौकिक है । भक्तामर स्तोत्रमें मानतुंगस्वामी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ . भगवानकी भक्ति करते हुये कहते हैं कि हे प्रभो ! जगतमें उत्कृष्ट शान्तरसरूप परिणमित जितने रजकण थे वे सब आपकी देहरूप परिणमित हो गये हैं। इस कथनमें गहन भाव भरे हैं । प्रभो, मापके केवलज्ञानकी और बैतम्यक उपशमरसकी तो अपूर्वता, और उसके साथकी परमऔदारिक देहमें भी अपूर्वता,-ऐसी देह अन्यको नहीं होती। आराधककी सभी बात जगतसे अनोखी है, इसकी आत्माकी शुद्धता भी जगतसे अनोखी है और इसका पुण्य भी अनोखा है। इसप्रकार मोक्ष और पुण्यफल दोनोंको बात की: फिर भी कहते हैं कि हे मुमुक्षु ! तुझे आदरणीय तो मोक्षका ही पुरुषार्थ है: पुण्य नो इसका भानुषंगिक फल है अर्थात अनाजके माथके घासकी तरह यह तो बीचमें सहज ही आ जाता है। इसमें भी जहाँ हेयबुद्धि है वहाँ श्रावकके लिये पापकी तो बात ही कैसो ? इसप्रकार पी श्रावकको मोक्षपुरुषार्थकी मुख्यताका उपदेश किया और उसके साथ पुण्यके शुभपरिणाम होते हैं यह भी बताया। अरे जीव! तू सर्वशकी और ज्ञानकी प्रतीति बिना धर्म क्या करेगा? रागमें स्थित रहकर सर्वक्षकी प्रतीति नहीं होती; रागसे जुदा पड़कर, ज्ञानरूप होकर, सर्वरको प्रतीति होती है। इसप्रकार ज्ञानस्वभावके लक्षपूर्वक सर्वशकी पहिचान करके उसके वचनानुसार धर्मको प्रवृत्ति होती है । सम्यकदृष्टि-बानी के जो वचन हैं वे भी सर्वअनुसार है, क्योंकि उसके हृदयमें सर्वदेव विराज रहे हैं। जिसके हृदयमें सर्वह न हो अर्थात् सर्व को जो न मानता हो उसके धर्मवचन सच्चे नहीं होते । इसप्रकार सर्वतकी पहचान धर्मका मूल है। १ Indane . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१४२] [भावकधर्म-प्रकाश ...........[२६].......... मोक्षकी साधनासहित ही अणुव्रतादिकी सफलता ** ** **** ************** * WEBEBRBRBRBRBH358333 తల్లి हे भव्य ! तेरा साध्य मोक्ष है; अर्थात् प्रत अथवा महाव्रतके पालनमें उस-उस प्रकारको अंतरंगशुद्धि बढ़ती जाय और मोक्षमार्ग सघता जाय-उसे तू लक्ष्यमें रखना । मोक्षके ध्येयको चूककर जो कुछ करनेमें आवे वह तो दुःख और संसारका ही कारण है। ETRIETRIHARJHIK38333 5 3 3353HIREXJRARIES धर्मी जीवको मोक्ष ही साध्यरूप है; मोक्षरूप साध्यको भूलकर जो अन्यका आदर करता है उसके वतादि भी संसारके ही कारण होते हैं-ऐसा अब EVERBETERBETERESERT भव्यानामणुभिव्रतैरनणुभिः साध्योत्र मोक्षः परं नान्यत्किंचिदिइव निश्चयनयात् जीवः सुखी जायते । सर्व तु व्रतनातमिदृशधिया साफल्यमेत्यन्यथा संसाराश्रयकारणं भवति यत् तन्दुःखमेव स्फुटम् ॥२६॥ यहाँ भव्य जीघको अणुवन अथवा महाव्रत द्वारा मात्र मोक्ष ही साध्य है, संसार संबंधी अन्य कोई भी साध्य नहीं, क्योंकि निश्चयनयसे मोक्षमें ही जीव सुखी होता है। ऐसी बुद्धि अर्थात् मोक्षकी बुद्धिसे जो व्रतादि करनेमें आते हैं वे सर्व सफल है; परन्तु इस मोक्षरूपी ध्येयको भूलकर जो व्रतादि करने में आते हैं ये तो संसारके कारण है और दुःखी ही है। देखो, अधिकार पूरा करते हुये अन्तमें स्पट करते हैं कि भाई, हमने प्रावकके धर्मरूपमें पूजा-दान आदि अनेक शुभभावोंका वर्णन किया तथा अणुवत आदिका वर्णन किया, परन्तु उसमें जो शुभराग है उसे साध्य न मानना, उसको ध्येय न Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावकधर्म-प्रकाश [ १४३ मानना, ध्येय और साध्य तो 'सम्पूर्ण वीतरागभावरूप' मोक्ष ही है, और वही परम सुख है। धर्मीकी दृष्टि-रुचि रागमें नहीं, उसे तो मोक्षको साधनेकी ही भावना है। सच्चा सुख मोक्षमें ही है। रागमें अथवा पुण्यके फल में कोई सुख नहीं। इसलिये हे भव्य ! व्रत अथवा महावतके पालने में उस-उस प्रकारकी अन्तरंगशुद्धि बढ़ती जाय और मोक्षमार्ग सघता जाय-उसे तू लक्ष्यमें रखना। शुद्धताके साथ-साथ जो व्रत-महाव्रतके परिणाम होते हैं वे मोक्षमार्गके साथ निमित्त है, परन्तु जरा भी शुद्धता जिसे प्रगट नहीं और मात्र रागकी भावनामें ही रुक गया है उसका तो व्रतादि पालन करना भी संसारका कारण होता है और वह दुःख ही प्राप्त करता है। इसप्रकार मोक्षमार्गके यथार्थ व्रत-महावत सम्यग्दृष्टिको ही होते हैं-यह बात इसमें आ गई। बीचमें व्रतके परिणाम आगे इससे पुण्य उच्चकोटिका बंधेगा और देवलोकका अचिन्त्य वैभव मिलेगा। परन्तु हे मोनार्थी ! तुझे इनमें किसीकी रुचि अर्थात् भावना नहीं करनी है। भावना तो मोक्षकी ही करना कि कब यह राग तोड़कर मोक्षदशा प्राप्त हो, क्योंकि मोक्षमें आत्मिकसुख है, स्वर्गके वैभवमें सुख नहीं, वहाँ भी आकुलताके अंगारे हैं। धर्मीको भी स्वर्गमें जितना गग और विषयतृष्णाका भाव है उतना क्लेश है धर्मीको उससे छूटनेकी भावना है ऐसी भावनासे मोक्षके लिये जो व्रत-महाबत पालन करनेमें आवें वे सर्व सफल हैं और इससे विपरीत संसारके स्वर्गादिके सुखकी भावनासे जो कुछ करने में आवे वह दुःखका और भवभ्रमणका कारण है। इसलिये मोक्षार्थी भव्योंको आत्माकी श्रद्धा-बानअनुभव करके वीतरागताको भावनासे शक्तिअनुसार प्रत-महावत करना चाहिये। जैसे, किसीने स्थान जानेका सचा मार्ग जान लिया है परन्तु चलने में थोड़ी देर लगती है तो भी वह मार्गमें ही है, उसी प्रकार धर्मी जीवने वीतरागताका मार्ग देखा है, रागरहित स्वभावको जाना है, परन्तु सर्वथा राग दूर करने में थोड़ा समय लगता है, तो भी वह मोक्षके मार्गमें ही है। परन्तु जिसने सच्चा मार्ग नहीं जाना, विपरीत मार्ग माना है वह शुभराग करे तो भी संसारके मार्गमें है। 'निश्वयसे वीतरागमार्ग ही मोक्षका साधन है, शुमराग वास्तवमें मोक्षका साधन नहीं'-ऐसा कहने पर किसीको बात न रुचे तो कहा है कि भाई, हम अन्य क्या बतावें ! वीतरागदेव द्वारा कहा हुआ सत्यमार्ग ही यह है। जिस प्रकार पमनन्दी स्वामी ब्रह्मचर्य-अष्टकमें ब्रह्मचर्यका उत्तम वर्णन करके अंतमें कहते हैं कि जो मुमुक्षु है उसके लिये स्त्री-संगके निषेधका यह उपदेश मैंने दिया है, परन्तु जो जीव भोगरूपी रागके सागरमें डूबे हुये हैं उन्हें इस ब्रह्मचर्यका उपदेश न रुचे तो वे Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भावकधर्म-प्रकार मेरे पर क्रोध न करें, क्योंकि मैं तो मुनि हूं; मुनिके पास तो यही वीतरागी उपदेश होता है, कोई रागके पोषणकी बात मुनिके पास नहीं होती। उसी प्रकार यहाँ मोक्षके पुरुषार्थ में पुण्यका निषेध किया गया है, वहाँ रागकी रुचिवाले किसी जीवको वह न रुचे तो क्षमा करना, क्योंकि संतोंका उपदेश तो मोक्षकी प्रधानताका है इसलिये उसमें रागको आदरणीय कैसे कहा जाय? भाई, तुझसे संपूर्ण राग अभी चाहे न छूट सके, परन्तु यह छोड़ने योग्य है ऐपा सच्चा ध्येय तो पहले ही ठीक कर। ध्येय सच्चा होगा तो वहाँ पहुंचेगा। परन्तु ध्येय ही खोटा रखोगे-रागका ध्येय रखोगे तो राग तोड़कर वीतरागता कहाँसे लाओगे ? अतः सत्यमार्ग वीतरागी संतोंने प्रसिद्ध किया है। ___ सर्पक्षताको साधते-साधते वनविहारी संत पद्मनंदी मुनिराजने यह शास रचा है, वे भी आत्माकी शक्तिमें जो पूर्ण आनन्द भरा है उसकी प्रतीति करके उसमें लीन होकर बोलते थे, सिद्ध भगवानके साथ स्वानुभव द्वारा बात करते थे और सिद्धप्रभु जैसे अतीन्द्रिय-आनन्दका बहुत अनुभव करते थे, तब ही उन्होंने भव्य जीवों पर करुणा करके यह शास्त्र रचा है। उसमें कहते हैं कि अरे जीव! सबसे पहले तू सर्वदेवको पहिचान । सर्पक्षदेवको पहिचानते ही तेरी सच्ची जाति तुझे पहिचानने में मा सकेगी। पन्दना पदप्रायश्यक स्वाध्याय Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४५ भावकधर्म-प्रकाश ] summ e ...[२७]....................: श्रावकधर्मकी आराधनाका अंतिम फल-मोक्ष In............ ..................... SSSSSSSSSSS S SSSSSSSSex श्रावकधर्मका अधिकार पूर्ण करते हुये मंगल आशीर्वाद पूर्वक 8 श्री मुनिराज कहते हैं कि इस श्रावकधर्मका प्रकाश जयवंत रहो.... 8 9 ऐसे धर्मके आराधक जीव जयवंत रहो! धर्मकी आराधना द्वारा ही " मनुष्यभवकी सफलता है। bao cao so 8 o oooh इस देशवत-उद्योतन अधिकारमें श्री पननन्दी मुनिराजने भावकके धर्मका बहुत घर्णन २६ गाथामें किया । अब अंतिम गाथामें आशीर्वाद पूर्वक अधिकार समाप्त करते हुये कहते हैं कि उत्तम कल्याणकी परम्परा पूर्वक मोक्षफल देनेवाला यह देशवतका प्रकाश जयवन्त रहे यत्कल्याणपरम्परार्पणपरं भव्यास्मनां संस्तो पर्यन्ते यदनन्तसौख्यसदनं मोक्षं ददाति ध्रुवम् । तज्जीयादतिदुर्लभं मुनरतामुख्येर्गुणैः प्रापितं श्रीमत्पंकजनंदिभिर्विरचितं देशवतोद्योतनम् ॥ २७॥ धर्मी जीवके लिये यह देशवत संसारमें तो उत्तम कल्याणकी परम्परा (चक्रवर्तीपद, इन्द्रपद, तीर्थकरपद आदि) देने वाला है और अन्तमें अनन्तसुखका घाम ऐसे मोक्षको अवश्य देता है। श्रीमान् पननन्दी मुनिने जिसका वर्णन किया है, तथा उत्तम दुर्लभ मनुष्यपमा और सम्यग्दर्शनादि गुणके द्वारा जिसकी प्राप्ति होती है, ऐसे देशवतका उद्योतन (प्रकाश ) जयवन्त रहे। जो जीव धर्मी है, जिसे आत्माका भान है, जो मोक्षमार्गकी साधनामें तत्पर है उसे व्रत-महावतके रागसे ऐसा ऊँचा पुण्य बँधता है कि चक्रवतींपना, तीर्थकरपना आदि लोकोत्तर पदवी मिल जाती है, पंचकल्याणक मादिकी कल्याणपरम्परा उसे प्राप्त होती है, और अन्तमें गग तोड़कर वह मोक्ष पाता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भावकधर्म-प्रकाश देखो! यह मनुष्यपनेकी सफलताका उपाय ! जीवनमें जिसने धर्मका उल्लास नहीं किया, आत्महितके लिये रागादि नहीं घटाये और मात्र विषय-भोगके पापभावमें ही जीवन बिताया है वह तो निष्फल अवतार गुमाकर संसारमें ही परिभ्रमण करता है। जबकि धर्मात्मा श्रावक तो आत्महितका उपाय करता है, सम्यकदर्शन सहित व्रतादि पालन करता है और स्वर्गमें जाकर वहाँसे मनुष्य होकर मुनिपना लेकर मुक्ति प्राप्त करता है। भाई, ऐसा उत्तम मनुष्यपना और उसमें भी धर्मात्माके संगका ऐसा योग संसारमें बहुत दुर्लभ है; महाभाग्यसे तुझे ऐसा सुयोग मिला है तो इसमें सर्वशकी पहिचान कर सम्यक्त्वादि गुण प्रगट कर। और उसके पश्चात् शक्तिअनुसार वत अंगीकार कर, दान आदि कर। उस दानका तो बहुत प्रकारका उपदेश दिया । वहाँ कोई कहे कि-बाप दानकी तो बात करते हो, परन्तु हमें आगे-पीछेका (स्त्री-पुत्रादिका) कोई विचार करना या नहीं ? तो कहते हैं कि भाई, तू तनिक धीरज धर! जो तुझे आगे-पोछेका तेरा हितका सञ्चा विचार हो तो अभी ही तू ममता घटा, वर्तमानमें स्त्री-पुत्रादिके बहाने तू ममतामें डूबा हुआ है और अपने भविष्यके हितका विचार नहीं करता। भविष्यमें मैं मर जाऊँगा तो स्त्री-पुत्रादिका क्या होगा-सप्रकार उनका विचार करता है, परन्तु भविष्यमें तेरी आत्माका क्या होगा-इसका विचार क्यों नहीं करता ? अरे, राग तोड़कर समाधि करनेका समय आया उसमें फिर आगे-पीछेका अन्य क्या विचार करना? जगतके जीवोंको संयोग-वियोग तो अपने-अपने उदय अनुसार सबको हुआ करते हैं, ये कोई तेरे किये नहीं होते। इसलिये भाई, दूसरेका नाम लेकर तू अपनी ममताको मत बढ़ा । चाहे लाखों-करोड़ों रुपयोंकी पूँजी हो परन्तु जो दान नहीं करता तो वह हृदयका गरीब है। इसकी अपेक्षा तो थोड़ी पूँजीवाला भी जो धर्म-प्रसंगमें तन-मन-धन उल्लासपूर्वक लगाता है वह उदार है, उसकी लक्ष्मी और उसका जीवन सफल है। सरकारी टेक्स (कर) आदिमें परतंत्ररूपसे देना पड़े उसे देवे परन्तु स्वयं ही धर्मके काममें होशपूर्वक जीव खर्च न करे तो आचार्यदेव कहते हैं कि भाई, तुझे तेरी लक्ष्मीका सदुपयोग करना नहीं आता; तुझे देव-गुरु-धर्मकी भक्ति करते नहीं आती और तुझे श्रावकधर्मका पालन करना नहीं आता, श्रापक तो देव-गुरु-धर्मके लिये उल्लासपूर्वक दानादि करता है। एक मनुष्य कहता है कि महाराज ! मुझे व्यापारमें २५ लाख रुपये मिलने वाले थे, परन्तु रुक गये, जो वे मिल जायें तो उसमेंसे ५ लाख रुपये धर्मार्थ में देने का विचार था; इसलिये आशीर्वाद दीजिये! अरे मूर्ख! कैसा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाबकधर्म - प्रकाश ] [ २४७ 6. आशीर्वाद ? क्या तेरे लोभ-पोषणके लिये ज्ञानी तुझे आशीर्वाद दें ! शानी तो धर्मकी आराधनाको आशीर्वाद देते हैं । ५ लाख रुपये खर्च करनेकी बात करके वास्तवमें तो इसे २० लाख लेना है, और इसकी ममता पोषनी है । ' जैसे कोई माने कि प्रथम जहर खा लूँ पीछे उसकी दवा करूंगा " - इसके जैसे तेरी मूर्खता है । तुझे वास्तवमें धर्मका प्रेम हो और तुझे राग घटाना हो तो अभी तेरे पास जो है उसमेंसे राग घटाना ! तुझे राग घटाकर दान करना हो तो कौन तुझे रोकता है ? भाई, ऐसा मनुष्यपना और ऐसा अवसर प्राप्त कर तू धन प्राप्त करने की तृष्णाके पापमें अपना जीवन नष्ट कर रहा है। इसके बदले धर्मको आराधना कर। धर्म की आराधना द्वारा ही मनुष्यभवकी सफलता है । धर्मकी आराधना के बीच पुण्यफलरूप बड़े-बड़े निधान सहज ही मिल जावेंगे, तुझे इसकी इच्छा ही नहीं करनी पड़ेगी । - ' मांगे उसके दूर और त्यागे उसके आगे ' - पुण्यकी इच्छा करता है उसे पुण्य नहीं होता । मांगे उसके आगे अर्थात् कि दूर जाता है; और त्यागे उसके आगे अर्थात् जो पुण्यकी रुचि छोड़कर चैतन्यको साधता है उसको पुण्यका वैभव समक्ष आता है। धर्मी जीव आत्माका भान करके और पुण्यकी अभिलाषा सर्वथा छोड़कर मोक्ष तरफ चलने लगा है, बहुत-सा रास्ता तय कर लिया है, थोड़ा शेष है, वहाँ पुरुषार्थकी मंदताले शुभराग हुआ अर्थात् स्वर्गादिका एक या दो उत्तम भवरूपी धर्मशाला में थोड़े समय रुकता है, उसे ऐसा ऊँचा पुण्य होता है कि जहाँ जन्मता है वहाँ समुद्र में मोती पकते हैं, आकाशमेंसे रजकण उत्कृष्ट रत्नरूप परिणमन कर बरसते हैं, पथ्थरकी खानमें नीलमणि उत्पन्न होते हैं, राजा हो वहाँ उसे प्रजासे बरजोरी कर आदि नहीं लेना पड़ता । परन्तु प्रजा स्वयं चलकर देने आती है, और संत-मुनि-धर्मात्माओंका समूह और तीर्थंकरदेवका संयोग मिलता है और संतोंके सत्संगमें पुनः आराधकभाव पुष्ट कर, राज-वैभव छोड़ मुनि होकर केवलज्ञान प्रगट कर साक्षात् मोक्ष प्राप्त करता है । सर्वशदेवकी पहिचानपूर्वक श्रावकने जो धर्मकी आराधना की उसका यह उत्तम फल कहा है, वह जयवंत हो... और उसे साधनेवाले साधक जगतमें जयवंत हों ! - ऐसे आशीर्वाद सहित यह अधिकार समाप्त होता है । ( श्री पद्मनन्दीपचीसीके देशव्रत उद्योतन पर पूज्य श्री कानजीस्वामीके प्रवचन पूर्ण हुए । ) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ en opg8888888888888888888888888888888888 स्वतंत्रता की घोषणा HERLASRIRATRAILE B A RSANRARIERTAINS [चार बोलोंसे स्वतंत्रताको घोषणा करता हुआ विशेष प्रवचन ] समयमार-कलश २११ ] [सं० २०२२ कार्तिक शुक्ला ३-४ EYESTERESEARNASEEBRSEEBHB भगवान सर्वज्ञदेवका देखा हुआ वस्तुस्वभाव कैसा है, उसमें कर्ता-कर्मपना किसमकार है, वा अनेक प्रकारसे दृष्टांत और युक्तिपूर्वक पुनः पुनः समझाते हुए, उस स्वभावके निर्णयमें मोक्षमार्ग किसप्रकार आता है वह पूज्य गुरुदेवने इन प्रवचनोंमें बतलाया है । इनमें पुनः पुनः मेदवान कराया है और वीतरागमार्गके रहस्यभूत स्वतंत्रताको घोषणा करते हुए कहा है कि-सर्वशदेव द्वारा कहे हुए इस परमसत्य वीतरागविज्ञानको जो समझेगा उसका अपूर्व कल्याण होगा। RATRITIYATREATRISALALAILS LARITREETIMATAJITATASATRE कर्ता-कर्म सम्बन्धी मेदशान कराते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि ननु परिणाम एष किल कर्म विनिश्चयतः स भवति मापरस्य परिणामिन एव भवेत् । न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चेकतया स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तु तदेव ततः ।। २११ ॥ वस्तु स्वयं अपने परिणामकी कर्ता है, और अन्य के साथ उसका कर्ता-कर्म का सम्बन्ध नहीं है-इस सिद्धांतको आचार्यदेवने बार बोलोंसे स्पष्ट समझाया है: (१) परिणाम अर्थात् पर्याय ही कर्म है-कार्य है। (२) परिणाम अपने मायभूत परिणामीके ही होते हैं, अन्यके नहीं होते। क्योंकि परिणाम अपने-अपने आश्रयभूत परिणामी (द्रव्य)के आश्रयसे होते है। भन्यके परिणाम अन्यके आश्रयसे नहीं होते। (३) कर्म-कर्ताके बिना नहीं होता, अर्थात् परिणाम वस्तुके बिना नहीं होते। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्रताको घोषणा (४) वस्तुकी निरन्तर एकसमान स्थिति नहीं रहती, क्योंकि वस्तु म्यपर्यायस्वरूप है। इसप्रकार आत्मा और जड़ सभी वस्तुएँ स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्मकी कर्ता है ऐसा वस्तुस्वरूपका महान सिद्धांत आचार्यदेवने समझाया है और उसीका यह प्रवचन है । इस प्रवचनमें अनेक प्रकारसे स्पष्टीकरण करते हुए गुरुदेवने मेदवान को पुनः पुनः समझाया है। देखो, इसमें वस्तुस्वरूपको चार बोलों द्वारा समझाया है। इस जगतमें छह वस्तुएँ है, आत्मा अनन्त है, पुद्गलपरमाणु अनन्त हैं तथा धर्म, अधर्म, भाकाश और काल,-ऐसी छहों प्रकारकी वस्तुएँ और उनके स्वरूपका वास्तविक नियम क्या है? सिद्धान्त क्या है ? उसे यहाँ चार बोलोंमें समझाया जा रहा है: (१) परिणाम ही कर्म है। प्रथम तो 'ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः' अर्थात् परिणामी पस्तुके जो परिणाम है वही निश्चयसे उसका कर्म है। कर्म अर्थात् कार्य परिणाम अर्थात् अवस्था; पदार्थकी अवस्था ही वास्तवमें उसका कर्म-कार्य है। परिणामी अर्थात् अखण्ड वस्तु; यह जिस भावसे परिणमन करे उसको परिणाम कहते हैं। परिणाम कहो, कार्य कहो, पर्याय कहो या कर्म कहो-वह वस्तुके परिणाम ही हैं। जैसे कि-आत्मा भानगुणस्वरूप है; उसका परिणमन होनेसे माननेकी पर्याय हुई वह उसका कर्म है, वह उसका वर्तमान कार्य है । राग या शरीर पर कोई शानका कार्य नहीं; परन्तु 'यह राग है, यह शरीर है'-ऐसा उन्हें जाननेवाला गो बान है वह आत्माका कार्य है। मात्माके परिणाम वह मात्माका कर्म और जड़के परिणाम अर्थात् जड़की अवस्था वह जड़का कार्य है, सप्रकार एक बोल पूर्ण हुआ। (२) परिणाम वस्तुका ही होता है दूसरेका नहीं। अब, इस दूसरे बोलमें कहते हैं कि-जो परिणाम होता है वह परिणामी पदार्थका ही होता है, परिणाम किसी अन्यके आश्रयसे नहीं होता । जिसप्रकार भवणक समय जो ज्ञान होता है यह शान कार्य है-कर्म है। वह किसीका कार्य है? वह कही शब्दोंका कार्य नहीं है, परन्तु परिणामी वस्तु जो आत्मा है सीका वह कार्य है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ स्वतंत्रताको घोषणा परिणामीके विना परिणाम नहीं होता। बात्मा परिणामी है-उसके बिना ज्ञानपरिणाम नहीं होता-यह सिद्धांत है; परन्तु वाणीके बिना ज्ञान नहीं होता- यह बात सच नहीं है। शब्दोंके बिना ज्ञान नहीं होता-ऐसा नहीं, परन्तु आत्माके बिना ज्ञान नहीं होता। इसप्रकार परिणामीके आश्रयसे ही शानादि परिणाम हैं । देखो, यह महा सिद्धांत है, वस्तुस्वरूपका यह अबाधित नियम है। परिणामीके आश्रयसे ही उसके परिणाम होते हैं। जाननेवाला आत्मा वह परिणामी है, उसके आश्रित ही शान होता है; वे शानपरिणाम आत्माके हैं, वाणीके नहीं। वाणीके, रजकणोंके आश्रित ज्ञानपरिणाम नहीं होते, परन्तु मानस्वभावी आत्मबस्तुके बायसे वे परिणाम होते हैं। आत्मा त्रिकाल स्थित रहनेवाला परिणामी है, बह स्वयं रूपांतर होकर नवीन-नबीन अवस्थाओंको धारण करता है। उसके मानमानन्द इत्यादि जो वर्तमान भाव हैं बे उसके परिणाम हैं। __ 'परिणाम' परिणामीके ही हैं अन्यके नहीं, इसमें जगतके सभी पदार्थोंका नियम मा जाता है। परिणाम परिणामीके ही आश्रित होते हैं, अन्यके आश्रित नहीं होते। बानपरिणाम आत्माके आथित हैं, भाषा आदि अन्यके आश्रित शानके परिणाम नहीं हैं। इसलिये इसमें परको ओर देखना नहीं रहता; परन्तु अपनी वस्तुके सामने देखकर स्वसन्मुख परिणासन करना रहता है; उसमें मोक्षमार्ग आजाता है। वाणी तो अनन्त जड़-परमाणुओंकी अवस्था है, यह अपने परमाणुओंके भित है। बोलनेकी जो इच्छा हुई उसके आथित भाषाके परिणाम तीनकालमें नहीं हैं। अब इच्छा हुई और भाषा निकली उस समय उसका जो शान हुआ, वह जान मायाके आश्रयसे हुआ है। भाषाके आश्रयसे तथा इच्छाके आश्रयसे शान नहीं __ परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामीके ही होते हैं, अन्यके आश्रयसे नहीं होते, सप्रकार अस्ति-नास्तिसे अनेकान्त द्वारा वस्तुस्वरूप समझाया है। सत्यके सिवांतकी अर्थात् वस्तुके सत्स्वरूपकी यह बात है, उसको पहिचाने बिना मूढ़ता पूर्षक महावतामें ही जीवन पूर्ण कर डालता है। परन्तु भाई ! आत्मा क्या? जड़ क्या? उसकी भिन्नता समझकर वस्तुस्वरूपके वास्तविक सत्को समझे बिना शानमें सपना नहीं आता, अर्थात् सम्यक्षान नहीं होता, वस्तुस्वरूपके सत्यज्ञानके बिना वि और श्रद्धा भी सच्ची नहीं होती, और सभी श्रद्धाके बिना वस्तुमें स्थिरतारूप Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्रताको घोषणा ] चारित्र प्रगट नहीं होता, शांति नहीं होती, समाधान और सुख नहीं होता । इसलिये वस्तुस्वरूप क्या है उसे प्रथम समझना चाहिये। वस्तुस्वरूपको समझनेसे मेरे परिणाम परसे और परके परिणाम मुझसे -ऐसी पराश्रित बुखि ही रहती भाद स्वाभित-स्वसन्मुख परिणाम प्रगट होता है, यही धर्म है। _आत्माको जो शान होता है उसको जामनेके परिणाम मात्माके माश्रित, वे परिणाम वाणीके आश्रयसे नहीं हुए है, कानके आश्रयले नहीं हुए है तथा उस समयको इच्छाके आश्रयसे भी नहीं हुए हैं । यद्यपि इच्छा भी मात्मा परिणाम है, परन्तु उन परिणामोंके आश्रित ज्ञानपरिणाम नहीं हैं, बानपरिणाम भान्मवस्तु के मामिल हैं;-इसलिये वस्तुसन्मुख दृष्टि कर । बोलनेकी इच्छा हो, होंठ हिलें, भाषा निकले और उस समय उसप्रकारका शान हो, ऐसी चारों क्रियाएँ एकसाथ होते हुये भी कोई क्रिया किसीके आश्रित नहीं, सभी अपने-अपने परिणामीके ही आश्रित हैं । इच्छा वह आत्माके चारित्रगुणके परिणाम हैं, होंठ हिले वह होंठके रजकणों की अवस्था है, वह अवस्था इच्छाके माधारसे नहीं हुई । भाषा प्रगट हो वह भाषावर्गणाके रजकणोंकी अवस्था है वह अवस्था इच्छाके आश्रित या होंठके आश्रित नहीं हुई, परन्तु परिणामी ऐसे रजकणोंके भायसे वह भाषा उत्पन्न हुई है और उस समयका ज्ञान आत्मवस्तुके आश्रित है. इच्छा अथवा भाषाके आश्रित नहीं है,-ऐसा वस्तुस्वरूप है। भाई, तीनकाल तीनलोकमें सर्वश भगवानका देखा हुआ यह घस्तुस्वभाव है। उसे जाने बिना और समझनेकी परवाह बिना अन्धेकी भाँति चला जाता है. परन्तु वस्तुस्वरूपके सच्चे ज्ञानके बिना किमीप्रकार कहीं भी कल्याण नहीं हो सकता । इस वस्तुम्वरूपको बारम्बार लक्षमें लेकर परिणामोंमें मेदशान करनेके लिये यह बात है। एक वस्तुके परिणाम अन्य वस्तुके गाश्रित तो हैं नहीं. परन्तु उस वस्तुमें भी उसके एक परिणामके आश्रित दूसरे परिणाम नहीं है. परिणामी वस्तुके आखिम ही परिणाम है। यह महान सिद्धान्त है। प्रतिक्षण इच्छा, भाषा और ज्ञान यह तीनों एकसाथ होते हुए भी इच्छा और शान जीवके आश्रित हैं और भाषा वह जड़के आश्रित है; इच्छाके कारण माषा हुई और भाषाके कारण शान हुआ-ऐमा नहीं: उसीप्रकार इच्छाके आश्रित शान मी नहीं । इच्छा और शान-यह दोनों हैं तो आत्माके परिणाम तथापि एक आश्रित दूसरेके परिणाम नहीं हैं। ज्ञानपरिणाम और इच्छापरिणाम दोनों भिन्न-भिन्न है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [स्वतंत्रताकी घोषणा बाम वह इच्छाका कार्य नहीं है और इच्छा बहानका कार्य नहीं है। जहाँ बानका कार्य इच्छा भी नहीं, वहाँ जड़ भाषा आदि तो उसका कार्य कहांसे हो सकता है? वह तो जड़का कार्य है। जगतमें जो भी कार्य होते हैं वह सत्की अवस्था होती है, किसी वस्तुके परिणाम होते है, परन्तु वस्तुके बिना अधरसे परिणाम नहीं होते । परिणामीका परिणाम होता है, मित्यस्थित वस्तुके आश्रित परिणाम होते हैं, परके आश्रित नहीं होते। परमाणुमें होंठोंका हिलना और भाषाका परिणमन-यह दोनों भी मित्र वस्तु है । मात्मामें इच्छा और शान-यह दोनों परिणाम भी भिन्न-भिन्न है। होंठ हिलनेके आश्रित भाषाको पर्याय नहीं है। होंठका हिलना वह होंठके पुद्गलोंके आश्रित है, भाषाका परिणमन वह भाषाके पुद्गलोंके आश्रित है। होंठ और भाषा, इच्छा और शान, -इन चारोंका काल एक होने पर भी चारों परिणाम अलग है। उसमें भी इच्छा और शान-यह दोनों परिणाम आत्माश्रित होने पर भी इच्छापरिणामके माभित बानपरिणाम नहीं है। ज्ञान वह आत्माका परिणाम है, इच्छाका नहीं, इसीप्रकार इच्छा वह आत्माका परिणाम है, शानका नहीं। इच्छाको जानने वालाहान वह इच्छाका कार्य नहीं है, उसीप्रकार वह मान इच्छाको उत्पन्न नहीं करता । इच्छा-परिणाम मात्माका कार्य अवश्य है परन्तु शानका कार्य नहीं। भिन्नभिन्न गुणके परिणाम भिन्न-भिन्न हैं, एक ही द्रव्यमें होने पर भी एक गुणके आमित दूसरे गुणके परिणाम नहीं है। कितनी स्वतंत्रता!! और इसमें परके आश्रयकी तो बात ही कहाँ रही ? आत्मामें चारित्रगुण इत्यादि अनन्तगुण है, उनमें पारित्रके विकृत परिणाम सो इच्छा है, वह चारित्रगुणके माश्रित है, और उस समय उस इच्छाका ज्ञान हुमा बह बानगुणकप परिणामीके परिणाम है, वह कहीं इच्छाके परिणामके आश्रित नहीं है। इसप्रकार इच्छापरिणाम और सानपरिणाम दोनोंका भिन्न परिणमन है, एक-दूसरेके भाभित नहीं है। - सत् जैसा है उसीप्रकार उसका गान करे तो सत् बान हो, मौर सत्का बान करे तो उसका बहुमान पवं यथार्षका आदर प्रगट हो, रुचि हो, श्रद्धा हो Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्रताको घोषणा [१५२ और उसमें स्थिरता हो, उसे धर्म कहा जाता है। सतसे विपरीत शान करे तो धर्म नहीं होता। स्वमें स्थिरता ही मूल धर्म है, परन्तु वस्तुस्वरूपके सच्चे पान बिना स्थिरता कहाँ करेगा? मात्मा और शरीरादि रजकण भिन्न-भिन्न तस्व है। शरीरकी अवस्था, हलनचलन-बोलना, वह उसके परिणामी पुद्गलोंका परिणाम है, उन पुद्गलोंके आश्रित यह परिणाम उत्पन्न हुए हैं, इच्छाके आश्रित नहीं, उसी प्रकार इच्छाके आश्रित शान भी नहीं । पुद्गलके परिणाम आत्माके आश्रित मानना, और आत्माके परिणाम पुद्गलाश्रित मानना, उसमें तो विपरीत मान्यतारूप मूढ़ता है। जगतमें भी जो वस्तु जैसी हो उससे विपरीत बतलानेवालेको लोग मूर्ख कहते हैं, तो फिर सर्वशकथित यह लोकोत्तर वस्तुस्वभाव जैसा है वैसा न मानकर विरुद्ध माने तो वह लोकोत्तर मूर्ख और अविवेकी है, विवेकी और विवक्षण कब कहा जाय ? कि वस्तुके जो परिणाम हुए उसे कार्य मानकर, उसे परिणामी-वस्तुके आश्रित समझे और दुसरेके आश्रित न माने, तब स्व-परका मेदक्षान होता है, और तभी विवेकी है ऐसा कहने में आता है। आत्माके परिणाम परके आश्रयसे नहीं होते। विकारी और अविकारी जो भी परिणाम जिस वस्तुके हैं वह उसी वस्तुके आश्रित है, अन्यके आश्रित नहीं। पदार्थके परिणाम वही उसका कार्य है-यह एक बात, दूसरी बात यह कि वह परिणाम उसी वस्तुके आश्रयसे होते हैं, अन्यके आश्रयसे नहीं होते। यह नियम जगतके समस्त पदार्थों में लागू होते हैं। देखो, भाई ! यह तो मेदज्ञानके लिये धस्तुस्वभावके नियम बतलाये गये हैं। धीरे-धीरे दृष्टांतसे, युक्तिसे वस्तुस्वरूप सिद्ध किया जाता है। किसीको ऐसे भाव उत्पन्न हुए कि सौ रुपये दानमें हूँ, उसके वह परिणाम आत्मवस्तुके आश्रित हुए हैं; वहाँ रुपये जाने की जो क्रिया होती है वह रुपयेके रजकणोंके आश्रित है, जीवकी इच्छाके आश्रित नहीं। अब उस समय उन रुपयोंको क्रियाका शान, अथवा इच्छाके भावका हान होता है वह हानपरिणाम आत्माभित हुआ है -इस प्रकार परिणामोंका विभाजन करके वस्तुस्वरूपका ज्ञान करना चाहिये। भाई, तेरा ज्ञान और तेरी इच्छा, यह दोनों परिणाम आत्मामें होते हुए भी वे एक-दूसरेके, आथित नहीं है, तो फिर परकै आश्रयकी तो बात ही कहाँ रही. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { स्वतंत्रताको घोषणा पानकी इच्छा हुई और रुपये दिये गये, वहाँ रुपये जानेकी क्रिया भी हाथके आश्रित नहीं, हाथका हिलना इच्छाके आश्रित नहीं, और इच्छाका परिणमन वह ज्ञानके आश्रित नहीं है। सभी अपने-अपने माश्रयभूत वस्तुके माधारसे हैं। देखो, यह सर्व विज्ञानपाठ है। ऐसा वस्तुस्वरूपका शान सच्चा पदार्थ विज्ञान है। जगसके पदार्थोंका स्वभाव ही ऐसा है कि वे सदा एकरूप नहीं रहते, परन्तु परिणमन करके नवीन-नवीन अवस्थारूप कार्य किया करते हैं, यह बात चौथे बोल में कही जायगी । जगतके पदार्थोका स्वभाव ऐसा है कि वह नित्यस्थायी रहे और उसमें प्रतिक्षण नवीन-नवीन अवस्थारूप कार्य उसके अपने आश्रित हुआ करे । वस्तु. स्वभावका ऐसा जान ही सम्यग्ज्ञान है। जीवको इच्छा हुई इसलिये हाथ हिला और सौ रुपये दिये गये-ऐसा नहीं है। इच्छाका भाधार आत्मा है, हाथ और रुपयोंका आधार परमाणु है। रुपये जाना थे इसलिये इच्छा हुई ऐसा भी नहीं है। हाथका हलम-खलन वह हाथके परमाणुओंके आधारसे है। रुपयोंका आना-जाना वह रुपयोंके परमाणुओंके आधारसे है। इच्छाका होना वह आत्माके चारित्रगुणके आधारसे है। यह तो भिन्न-भिन्न द्रव्यके परिणामकी भिन्नताकी बात हुई; यहाँ तो उससे भी आगे अन्तरकी बात लेना है। एक ही द्रव्यके अनेक परिणाम भी एक-दूसरेके आश्रित नहीं है ऐसा बतलाना है । राग और शान दोनोंके कार्य भिन्न हैं, एक-दूसरे के आश्रित नहीं है। किसीने गाली दी और जीवको द्वेषके पाप-परिणाम हुए, वहाँ वे पापके परिणाम प्रतिकूलताके कारण नहीं हुए, और गाली देनेवालेके आश्रित भी नहीं हुए, परन्तु चारित्रगुणके आश्रित हुए हैं, चारित्रगुणने उस समय उस परिणामके अनुसार परिणमन किया है। अन्य तो निमित्तमात्र हैं। अब वेषके समय उसका भान हुभा कि 'मुझे यह द्वेष हुआ' यह शानपरिणाम हानगुणके आभित है, क्रोधके माश्रित नहीं है । शानस्वभावी द्रव्यके भाभित हानपरिणाम होते हैं, मन्यके आश्रित नहीं होते। इसीप्रकार सम्यग्दर्शन परिणाम सम्यमान परिणाम, आनन्द परिणाम इत्यादिमें भी ऐसा ही समझना । यह ज्ञानादि परिणाम इव्यके आभित है, अन्यके भाभित नहीं है, तथा परस्पर एक-दूसरे के माश्रित भी नहीं है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्रताकी घोषणा | [ १५५ गालीके शब्द अथवा द्वेषके समय उसका ज्ञान हुआ, वह ज्ञान शब्दोंके आश्रित नहीं और क्रोधके आश्रित भी नहीं है, उसका आधार तो ज्ञानस्वभावी वस्तु है,इसलिये उसके ऊपर दृष्टि लगा तो तेरी पर्यायमें मोक्षमार्ग प्रगट हो; इस मोक्षमार्गरूपी कार्यका कर्ता भो तू ही है, अन्य कोई नहीं । अहो, यह तो सुगम और स्पष्ट बात है । लौकिक पढ़ाई अधिक न की हो, तथापि यह समझमें आजाये ऐसा है । जरा अन्तरमें उतरकर लक्षमें लेना चाहिये कि आत्मा अस्तिरूप है, उसमें अनन्तगुण हैं, ज्ञान है, आनन्द है, अदा है, मस्तित्व है, इसप्रकार अनन्तगुण हैं। इन अनन्तगुणोंके भिन्न-भिन्न भनन्त परिणाम प्रतिसमय होते हैं, उन सभीका आधार परिणामी ऐसा आत्मद्रव्य है, अन्य वस्तु तो उसका आधार नहीं है, परन्तु अपने में दूसरे गुणोंके परिणाम भी उसका भाधार नहीं हैं,जैसे कि - श्रद्धापरिणामका आधार ज्ञानपरिणाम नहीं है और ज्ञानपरिणामका आधार श्रद्धा नहीं; दोनों परिणामका आधार आत्मा ही है । उसीप्रकार सर्व गुणोंके परिणामोंके लिये समझाना । इसप्रकार परिणाम परिणामीका ही है, अन्यका नहीं । इस २११ कलशमें आचार्यदेव द्वारा कहे गये वस्तुरूपके बार बोलोंमेंसे अभी दूसरे बोलका विवेचन चल रहा है। प्रथम तो कहा कि ' परिणाम एव किल कर्म' और फिर कहा कि ' स भवति परिणामिन एव, न अपरस्य भवेत्' परिणाम ही कर्म है, और वह परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं, ऐसा निर्णय करके स्वद्रव्यसम्मुख लक्ष जानेसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होता है । सम्यग्दर्शन परिणाम हुए वह आत्माका कर्म है, वह आत्मारूप परिणामीके आधारसे हुए हैं । पूर्वके मन्दरागके आश्रयसे अथवा वर्तमानमें शुभरागके माभयले वे सम्यग्दर्शन परिणाम नहीं हुए । यद्यपि राग भी है तो आत्माका परिणाम, परन्तु श्रद्धापरिणामले रागपरिणाम अन्य हैं, वे अद्धाके परिणाम रागके मामित नहीं हैं । क्योंकि परिणाम परिणामीके ही आधयले होते हैं, अन्यके आश्रयसे नहीं होते । उसीप्रकार अब चारित्र परिणाममें - मात्मस्वरूपमें स्थिरता वह चारित्रका कार्य है; वह कार्य श्रद्धापरिणामके आश्रित नहीं, ज्ञानके आश्रित नहीं, परन्तु चारित्रगुण धारण करनेवाले आत्माके ही आश्रित है | शरीरादिके आश्रयसे चारित्र नहीं है । श्रद्धाके परिणाम आत्मद्रव्यके आश्रित है; ज्ञानके परिणाम आत्मद्रव्यके आश्रित है; स्थिरता के परिणाम आत्मद्रव्यके आश्रित हैं; आनन्द के परिणाम आत्मद्रव्यके भाश्रित हैं । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] [ स्वतंत्रताकी घोषणा बस, मोक्षमार्गके सभी परिणाम स्वद्रव्याश्रित है, अन्यके आश्रित नहीं है। उस समय अन्य (रागादि) परिणाम होते हैं उनके आश्रित भी यह परिणाम नहीं है। एक समयमें श्रद्धा-शान-चारित्र इत्यादि अनंत गुणोंके परिणाम वह धर्म, उसका माधार धर्मी अर्थात् परिणमित होनेवाली वस्तु है; उस समय अन्य जो अनेक परिणाम होते हैं उनके आधारसे श्रद्धा इत्यादिके परिणाम नहीं हैं। निमित्तादिके आधारसे तो नहीं हैं. परन्तु अपने दूसरे परिणामके आधारसे भी कोई परिणाम नहीं है। एक ही द्रव्यमें एकसाथ होने वाले परिणामोंमें भी एक परिणाम दूसरे परिणामके आश्रित नहीं; द्रव्यके ही आभित सभी परिणाम हैं, सभी परिणामोंरूपसे परिणमन करने वाला द्रव्य ही है-अर्थात् द्रव्यसन्मुख लक्ष जाते ही सम्यक् पर्यायें प्रगट होने लगती है। वाह ! देखो, आचार्यदेवको शैली थोड़ेमें बहुत समा देने की है। चार बोलोंके इस महान सिद्धांतमें वस्तुस्वरूपके बहुतसे नियमोंका समावेश हो जाता है। यह त्रिकाल सत्यका सर्वक द्वारा निश्चित किया हुआ सिद्धांत है। अहो, यह परिणामीके परिणामकी स्वाधीनता, सर्वक्षदेव द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूपका तत्त्व सन्तोंने इसका विस्तार करके आश्चर्यकारी कार्य किया है, पदार्थका पृथक्करण करके मेदशान कराया है। अंतरमें इसका मंथन करके देखे तो मालूम हो कि अनंत सर्वक्षों तथा संतोंने ऐसा ही वस्तुस्वरूप कहा है और ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है। __ सर्वश भगवंत दिव्यध्वनि द्वारा ऐसा तत्त्व कहते आये हैं-ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है; दिव्यध्वनि तो परमाणुओंके आश्रित है। कोई कहे कि अरे, दिव्यध्वनि भी परमाणु-आश्रित है? हाँ, दिव्यध्वनि वह पुद्गलका परिणाम है, और पुद्गल परिणामका आधार तो पुद्गल द्रव्य ही होता है; जीव उसका आधार नहीं हो सकता। भगवानका आत्मा तो अपने केवलज्ञानादिका माधार है। भगवानका मात्मा तो केवलक्षान-दर्शन-सुख इत्यादि निज-परिणामरूप परिणमन करता है. परन्तु कहीं देह और वाणीरूप अवस्था धारण करके भगवानका आत्मा परिणक्ति नहीं होता, उसरूप तो पुद्गल ही परिणमित होता है। परिणाम परिणामीके होते हैं, अन्यके नहीं। ___ भगवानकी सर्वशताके आधारसे दिव्यध्वनिके परिणाम हुए-ऐसा वस्तुस्वरूप नहीं है। भाषापरिणाम अनंत पुद्गलाधित है, और सर्पक्षता आदि परिणाम जीवाश्रित हैं; इसप्रकार दोनोंको भिन्नता है। कोई किसीका कर्ता या आधार नहीं है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्रताकी घोषणा ] देखो, यह भगवान आत्माको अपनी बात है। समझमें नहीं आयेगी, ऐसा महीं मानना; अंतर्लक्ष करे तो समझमें आये-ऐसी सरल है। देखो, लक्षमें लो कि अंदर कोई वस्तु है या नहीं ? और यह जो जाननेके या रागादिके भाव होते हैं इन भावोंका कर्ता कौन है? आत्मा स्वयं उनका कर्ता है। इसप्रकार आत्माको लक्षमें लेने के लिये दूसरी पढ़ाई की कहाँ आवश्यकता है ? दुनियाको बेगार करके दुःखी होता है उसके बदले वस्तुस्वभावको समझे तो कल्याण हो जाये । अरे जीव ! पेसे सरस न्यायों द्वारा सन्तोंने वस्तुस्वरूप समझाया है, उसे तू समझ । वस्तुस्वरूपके दो बोल हुए। अब तीसरा बोलः (३) कर्त्ताके बिना कर्म नहीं होता कर्ता अर्थात् परिणमित होनेवाली वस्तु और कर्म अर्थात् उसको अवस्थारूप कार्य कर्ताके बिना कर्म नहीं होता; अर्थात् वस्तुके बिना पर्याय नहीं होती; सर्वथा शून्यमें से कोई कार्य उत्पन्न हो जाये ऐसा नहीं होता । देखो, यह वस्तुविज्ञानके महा सिद्धान्त ! इस २११ वें कलशमें चार बोलों द्वारा चारों पक्षोंसे स्वतंत्रता सिद्धकी है। विदेशोंमें अशानकी पढ़ाईके पीछे हैरान होते हैं, उसकी अपेक्षा सर्वशदेव कथित इस परमसत्य वीतरागी विज्ञानको समझे तो अपूर्व कल्याण हो। (१) परिणाम सो कर्मः यह एक बात । (२) वह परिणाम किसका ?-कि परिणामी वस्तुका परिणाम है, दूसरेका नहीं। यह दुसरा बोल; इसका बहुत विस्तार किया है। अब इस तीसरे बोलमें कहते हैं कि-परिणामीके बिना परिणाम नहीं होता। परिणामी वस्तुसे भिन्न अन्यत्र कहीं परिणाम हो ऐसा नहीं होता। परिणामी वस्तुमें ही उसके परिणाम होते हैं, इसलिये परिणामी वस्तु वह कर्ता है, उसके बिना कार्य नहीं होता। 'देखो, इसमें निमित्तके बिना कार्य नहीं होता-ऐसा नहीं कहा। निमित्त निमित्तमें रहता है, वह कहीं इस कार्यमें नहीं आ जाता, इसलिये निमित्तके बिना कार्य है परन्तु परिणामी बिना कार्य नहीं होता। निमित्त भले हो, परन्तु उसका अस्तित्व तो निमिचमें है, इसमें उसका अस्तित्व नहीं है। परिणामी वस्तुकी सत्तामें ही उसका कार्य होता है। मात्माके बिना सम्यक्त्वादि परिणाम नहीं होते। अपने समस्त परिणामोंका कर्ता आत्मा है, उसके बिना कर्म नहीं होता। "कर्म कर्तृशून्यं न भवति"-प्रत्येक पदार्थको अवस्था Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] [स्वतंत्रताकी घोषणा उस-उस पदार्थके बिना नहीं होती। सोना नहीं है और गहने बन गये, वस्तु नहीं है और अवस्था हो गई-ऐसा नहीं हो सकता। अवस्था है वह त्रैकालिक वस्तुको प्रगट करती है-प्रसिद्ध करती है कि यह अवस्था इस वस्तुकी है। जैसे कि-जड़कर्मरूप पुद्गल होते हैं, वे कर्मपरिणाम कर्ताके बिना नहीं होते। अब उनका कर्ता कौन ?-तो कहते हैं कि-उस पुद्गलकर्मरूप परिणमित होने वाले रजकण ही कर्ता हैं; मात्मा उनका कर्ता नहीं है। -मात्मा कर्ता होकर जड़कर्मका बंध करे-ऐसा वस्तुस्वरूपमें नहीं है। -जड़कर्म आत्मा को विकार करायें-ऐसा वस्तुस्वरूपमें नहीं है। -मंदकषायके परिणाम सम्यक्त्वका आधार हो-ऐसा वस्तुस्वरूपमें नहीं है। -शुभरागसे क्षायिकसम्यक्त्व हो-ऐसा वस्तुस्वरूपमें नहीं है। तथापि अज्ञानी ऐसा मानता है-यह सब तो विपरीत है-अन्याय है। भाई, तेरे यह अन्याय वस्तुस्वरूपमें सहन नहीं होंगे । वस्तुस्वरूपको विपरीत माननेसे तेरे आत्माको बहुत दुःख होगा,-ऐसी करुणा सन्तोंको आती है । सन्त नहीं चाहते कि कोई जीव दुःखी हो । जगतके सारे जीव सत्यस्वरूपको समझें और दुःखसे छूटकर सुख प्राप्त करें ऐसी उनकी भावना है। भाई! तेरे सम्यग्दर्शनका आधार तेरा आत्मद्रव्य है । शुभराग कहीं उसका आधार नहीं है। मन्दराग वह कर्ता और सम्यग्दर्शन उसका कार्य ऐसा त्रिकालमें नहीं है। वस्तुका जो स्वरूप है वह तीनकालमें आगे-पीछे नहीं हो सकता । कोई जीव अज्ञानसे उसे विपरीत माने उससे कहीं सत्य बदल नहीं जाता । कोई समझे या न समझे, सत्य तो सदा सत्यरूप ही रहेगा, वह कभी बदलेगा नहीं । जो उसे यथावत् समझेंगे वे अपना कल्याण कर लेंगे और जो नहीं समझेंगे उनकी तो बात हो क्या ? वे तो संसारमें भटक ही रहे हैं। देखो, वाणी सुनी इसलिये बान होता है न! परन्तु सोनगढ़वाले इन्कार करते है कि 'वाणीके आधारसे शान नहीं होता;-ऐसा कहकर कुछ लोग कटाक्ष करते हैं, लेकिन भाई! यह तो वस्तुस्वरूप है; त्रिलोकीनाथ सर्वक्ष परमात्मा भी दिव्यध्वनिमें यही कहते हैं कि-बान आत्माके आश्रयसे होता है, शान वह आत्माका कार्य है, विष्यध्वनिके परमाणुका वह कार्य नहीं है। जानकार्यका कर्ता आत्मा हैन कि वाणीके रजकण? जिस पदार्थके जिस गुणका जो वर्तमान हो वह मन्य Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्रताको घोषणा ] पदार्थके या अन्य गुणके आश्रयसे नहीं होता। उसका कर्ता कौन ?-कि वस्तु स्वयं कर्ता और उसका कार्य दोनों एक ही वस्तुमें होने का नियम है, वे भिन्न वस्तुमें नहीं होते। यह लकड़ी ऊपर उठी सो कार्य है। यह किसका कार्य है ?-कि कर्ताका कार्य, कर्ताके बिना कार्य नहीं होता । कर्ता कौन है ?-कि लकड़ीके रजकण ही लकड़ीकी इस अवस्थाके कर्ता हैं; यह हाथ, अंगुली या इच्छा उसका कर्ता नहीं हैं। ___ अब अन्तरका सूक्ष्म दृष्टान्त लें तो-किसी आत्मामें इच्छा और सम्यगदान दोनों परिणाम वर्तते हैं; वहाँ इच्छाके आधारसे सम्यग्ज्ञान नहीं है। इच्छा सम्यग्ज्ञानकी कर्ता नहीं है। आत्मा ही कर्ता होकर उस कार्यको करता है। कर्ताके बिना कर्म नहीं है और दूसरा कोई कर्ता नहीं है। इसलिये जीवकर्ता द्वारा जानकार्य होता है। इस प्रकार समस्त पदार्थोके सर्व कार्योंमें उस-उस पदार्थका ही कर्तापना है ऐसा समझना चाहिये। देखो भाई, यह तो सर्वज्ञ भगवानके घरकी बात है; उसे सुनकर सन्तुष्ट होना चाहिये । अहा! मन्तोंने वस्तुस्वरूप समझाकर मार्ग स्पष्ट कर दिया है। संतोंमे सारा मार्ग सरल और सुगम बना दिया है, उसमें बोयमें कहीं अटकना पड़े ऐसा नहीं है। परसे भिन्न ऐमा स्पष्ट वस्तुस्वरूप समझे तो मोन हो जाये। बाहरसे तथा अन्तरसे ऐसा मेरशान समझने पर मोक्ष हथेलीमें आ जाता है । मैं तो परसे पृथक है और मुझमें एक गुणका कार्य दूसरे गुणसे नहीं है-यह महाग सिद्धान्त समझने पर स्वाभयभावसे अपूर्व कल्याण प्रगट होता है। कर्म अपने कर्ताके बिना नहीं होता-यह बात तीसरे बोलमें कही; और चौथे बोलमें कर्ताकी (-वस्तुकी) स्थिति एकरूप अर्थात् सदा एक-समान नहीं होती परन्तु वह नये-नये परिणामोरूपसे बदलता रहता है-यह बात कहेंगे। हर बार प्रवचनमें इस चौथे बोलका विशेष विस्तार होता है; इस बार दूसरे बोलका विशेष विस्तार आया। कर्ताक बिना कार्य नहीं होता यह सिद्धान्त है: वहाँ कोई कहे कि यह जगत सो कार्य है और ईश्वर उसका कर्ता है, तो यह बात वस्तुस्वरूप की नहीं है। प्रत्येक वस्तु स्वयं ही अपनी पर्यायका ईश्वर है और वही कर्ता है। उससे भिन्न दूसरा कोई पर या अन्य कोई पदार्थ फर्ता नहीं है। पर्याय सो कार्य और पदार्थ रखका का। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० [स्वतंत्राकी घोषणा कर्ताके बिना कार्य नहीं और दूसरा कोई कर्ता नहीं । कोई भी अवस्था हो-शुद्ध अवस्था, विकारी अवस्था या जड़ अवस्था, उसका कर्ता न हो ऐसा नहीं होता, तथा दूसरा कोई कर्ता हो-ऐसा भी नहीं होता। -तो क्या भगवान उसके कर्ता हैं ? -हो, भगवान कर्ता अवश्य हैं, परन्तु कौन भगवान ? अन्य कोई भगवान नहीं परन्तु यह आत्मा स्वयं अपना भगवान है, वही कर्ता होकर अपने शुद्ध-अशुद्ध परिणामोंको करता है। जड़के परिणामको जड़ पदार्थ करता है। वह अपना भगवान है। प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी अवस्थाकी रचयिता ईश्वर है। स्वका स्वामी है परका स्वामी मानना मिथ्यात्व है। संयोगके बिना अवस्था नहीं होती-ऐसा नहीं है; परन्तु वस्तु परिणमित हुए बिना अवस्था नहीं होती-ऐसा सिद्धान्त है। अपनी पर्यायके कर्तृत्वका अधिकार वस्तुका अपना है, उसमें परका अधिकार नहीं है। इच्छारूपी कार्य हुआ उसका कर्ता आत्मद्रव्य है। उस समय उसका शान हुआ, उस शानका कर्ता आत्मद्रव्य है। पूर्व पर्यायमें तीव राग था इसलिये वर्तमानमें राग हुआ, इसप्रकार पूर्व पर्यायमें इस पर्यायका कर्तापना नहीं है । वर्तमानमें आत्मा वैसे भावरूप परिणमित होकर स्वयं कर्ता हुआ है। इसीप्रकार झानपरिणाम, श्रद्धापरिणाम, आनन्दपरिणाम उन सबका कर्ता आत्मा है । पर कर्ता नहीं, पूर्वके परिणाम भी कर्ता नहीं तथा वर्तमानमें उसके साथ वर्तते हुए अन्य परिणाम भी कर्ता नहीं हैं-आत्मद्रव्य स्वयं कर्ता है । शास्त्रमें पूर्व पर्यायको कभी-कभी उपादान कहते हैं, वह तो पूर्व-पश्चात् की संधि बतलाने के लिये कहा है; परन्तु पर्यायका कर्ता तो उस समय वर्तता हुआ द्रव्य है, वही परिणामी होकर कार्यरूप परिणमित हुआ है। जिस समय सम्यग्दर्शनपर्याय हुई उस समय उसका कर्ता आत्मा ही है। पूर्वकी इच्छा, वीतरागकी वाणी. या शास-वे कोई वास्तव में इस सम्यग्दर्शनके कर्ता नहीं हैं। उसीप्रकार जानकार्यका कर्ता भी आत्मा ही है। इच्छाका ज्ञान हुमा, वहाँ वह शाब कहीं इच्छाका कार्य नहीं है और इच्छा वह शानका कार्य नहीं है। दोनों परिणाम एक ही वस्तु के होनेपर भी उनको कर्ता-कर्मपना नहीं है। कर्ता तो परिणामी वस्तु है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्रताकी घोषणा ] [ १६१ पुद्गलमें खट्टी-खारी अवस्था थी और ज्ञानने तदनुसार जाना, वहाँ लट्टेखारे तो पुद्गल के परिणाम हैं और पुद्गल उनका कर्ता है; तत्सम्बन्धी जो ज्ञान हुआ उसका कर्ता आत्मा है; उस ज्ञानका कर्ता वह वह खट्टी-खारी अवस्था नहीं है। कितनी स्वतंत्रता !! उसीप्रकार शरीरमें रोगादि जो कार्य हो उसके कर्ता वे पुद्गल हैं, आत्मा नहीं; और उस शरीरको अवस्थाका जो ज्ञान हुआ उसका कर्ता आत्मा है। आत्मा कर्ता होकर ज्ञानपरिणामको करता है परन्तु शरीरकी अवस्थाको वह नहीं करता । परमेश्वरके घरकी बात है । परमेश्वर सर्वश यह तो परमेश्वर होनेके लिये देव कथित यह वस्तुस्वरूप है। जगतमें चेतन या जड़ अनन्त पदार्थ अनन्तरूपसे नित्य रहकर अपने वर्तमान कार्यको करते हैं; प्रत्येक परमाणु में स्पर्श-रंग आदि अनन्त गुणः स्पर्शको चिकनी आदि अवस्था रंगको काली आदि अवस्था, उस उस अवस्थाका कर्ता परमाणुद्रव्य है; चिकनी अवस्था वह काली अवस्थाकी कर्ता नहीं है । इसप्रकार आत्मामें - प्रत्येक आत्मामें अमन्त गुण हैं; ज्ञानमें केवलज्ञानपर्यायरूप कार्य हुआ, आनन्दमें पूर्ण आनन्द प्रगट हुआ, उसका कर्ता आत्मा स्वयं है । मनुष्य - शरीर अथवा स्वस्थ शरीरके कारण वह कार्य हुआ ऐसा नहीं है। पूर्वकी मोक्षमार्गपर्याय के आधारसे वह कार्य हुआ- ऐसा भी नहीं है, ज्ञान और आनन्दके परिणाम भी एक- दूसरेके आश्रित नहीं हैं, द्रव्य ही परिणमित होकर उस कार्यका कर्ता हुआ है। भगवान आत्मा स्वयं ही अपने केवलज्ञानादि कार्यका कर्ता है, अन्य कोई नहीं है । यह तीसरा बोल हुआ । (४) वस्तुको स्थिति सदा एकरूप ( - कूटस्थ ) नहीं रहती सर्वशदेव द्वारा देखा हुआ वस्तुका स्वरूप ऐसा है कि वह नित्य भवस्थित रहकर प्रतिक्षण नवीन अवस्थारूप परिणमित होता रहता है । पर्याय बदले बिना ज्योंका त्यों कूटस्थ ही रहे- ऐसा वस्तुका स्वरूप नहीं है । वस्तु द्रव्य- पर्यायस्वरूप है, इसलिये उसमें सर्वथा अकेला नित्यपना नहीं है, पर्यायसे परिवर्तनपना भी है । वस्तु स्वयं ही अपनी पर्यायरूपसे पलटती है, कोई दूसरा उसे परिवर्तित करे- ऐसा नहीं है। नयी-नयी पर्यायरूप होना वह वस्तुका अपना स्वभाव है, तो कोई उसका क्या करेगा ? इन संयोगोंके कारण यह पर्याय हुई, इसप्रकार संयोगके कारण जो पर्याय मानता है उसने वस्तुके परिणमनस्वभावको नहीं जाना है, दो द्रव्योंको एक माना है । भाई, तू संयोगले न देख, वस्तुके स्वभावको देख । वस्तुका स्वभाव Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ [ स्वतंबाकी घोषणा ही ऐसा है कि वह नित्व एकरूप रहे। इव्बम्पसे एकरूप रहे परन्तु पर्यावरूपसे एकरूप न रहे, पलटता ही रहे-ऐसा वस्तुका स्वरूप है। इन चार वोलासे ऐसा समझाया कि वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कार्य की कर्ता है, यह निश्चित सिद्धान्त है। इस पुस्तकका पृष्ठ पहले ऐसा था और फिर पलट गया; वहाँ हाथ लगनेसे पलटा हो ऐसा नहीं है, परन्तु उन पृष्ठोंके रजकणों में ही ऐसा स्वभाव है कि सदा एकरूप उनकी स्थिति न रहे, उनकी अवस्था बदलती रहती है। इसलिये वे स्वयं पहली अवस्था छोड़कर दूसरी अवस्थारूप हुए है, दूसरेके कारण नहीं । वस्तुमें भिन्न-भिन्न अवस्था होती ही रहती है। वहाँ संयोमके कारण वह भिन्न अवस्था हुई-ऐसा अज्ञानीका भ्रम है, क्योंकि वह संयोगको ही देखता है परन्तु वस्तुके स्वभावको नहीं देखता । वस्तु स्वयं परिणमनस्वभाषी है, इसलिये वह एक ही पर्यायरूप नहीं रहती;-ऐसे स्वभावको जाने तो किसी संयोगसे अपनेमें या अपनेसे परमें परिवर्तन होने की बुद्धि छट जाये और स्वद्रव्यकी मोर देखना रहे, इसलिये मोक्षमार्य प्रगट हो। पानी पहले ठंडा था और चूल्हे पर मानेके बाद गर्म हुथा, वहाँ उन रजकणों का ही पेसा स्वभाव है कि उनकी सदा एक अवस्थारूप स्थित न रहे; इसलिये वे अपने स्वभावसे ही ठंडी अवस्थाको छोड़कर गर्म अवस्थारूप परिणामत हुए हैं। इसप्रकार स्वभाषको न देखकर भवानी संयोगको देखता है कि-अग्निके मानेसे पानी गर्म हुमा । यहाँ आचार्यदेवने चार बोलों द्वारा स्वतंत्र वस्तुस्वरूप समझाया है; उल्ले समझ ले तो कहीं भ्रम न रहे। एक समयमें तीनकाल–तीमलोकको जाननेवाले सर्वत्र परमात्मा वीतराग तीर्थकरदेषकी दिव्यध्वनिमें भाया हुआ यह तस्व है और संतोंने इसे प्रगट किया है। बर्फ के संयोगसे पानी ठंडा हुआ और अग्निके संबोगसे गर्म हुमा-ऐसा अबानी देखता है, परन्तु पानीके रजकणोंमें ही ठंडी-गर्म अवस्थारूप परिणमित होने का स्वभाव है उसे अक्षणी नहीं देखता । माई! वस्तुका स्वरूप ऐसा ही है कि अवस्थाकी स्थिति एकरूप न रहे। वस्तु कूटस्थ नहीं है परन्तु बहते हुए पानीकी भौति द्रवित होती है-पर्यायको प्रवाहित करती है, उस पर्यायका प्रवाह वस्तुमें से प्राता है संयोगमेंसे नहीं आता। भिन्न प्रकारके संयोगले कारण अवस्थाकी भिन्नता , मथवा संयोग बदले इसलिये अवस्था बदल यई-ऐसा भ्रम बहानीको Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतंत्रताकी घोषणा ] [१६३ होता है, परन्तु वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। यहां चार बोलों द्वारा वस्तुका स्वरूप एकदम स्पष्ट किया है। १-परिणाम ही कर्म है। २–परिणामी वस्तुके ही परिणाम है, अन्यके नहीं। ३-वह परिणामरूपी कर्म कर्ताके बिना नहीं होता । ४-वस्तुकी स्थिति एकरूप नहीं रहती। -इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्मकी कर्ता है-यह सिद्धांत है। इन चारों बोलों में तो बहुत रहस्य भर दिया है। उसका निर्णय करनेसे मेदज्ञान तथा द्रव्यसन्मुखदृष्टिसे मोक्षमार्ग प्रगट होगा। प्रश्नः-संयोग आये तदनुसार अवस्था बदलती दिखायी देती है न ? उत्तर:-यह बराबर नहीं है; वस्तुस्वभावको देखनेसे ऐसा दिखायी नहीं देता। अवस्था बदलनेका स्वभाव वस्तुका अपना है-ऐसा दिखायी देता है। कर्मका मंद उदय हो इसलिये मंद राग और तीव्र उदय हो इसलिये तीव्र राग-ऐसा नहीं है। अवस्था एकरूप नहीं रहती परन्तु अपनी याग्यतासे मंद-तीव्ररूपसे बदलती है-पेसा स्वभाव वस्तुका अपना है, वह कहीं परके कारण नहीं है। भगवानके निकट जाकर पूजा करे या शास्त्र-प्रवण करे उस समय अलग परिणाम होते है, और घर पहुँचने पर अलग परिणाम हो जाते है तो क्या संयोगके के परिणाम बदले ? नहीं; वस्तु एकरूप न रहकर उसके परिणाम बदलते रहेंऐसा ही उसका स्वभाव है; उन परिणामोंका बदलना वस्तुके मामयले ही होता है, संयोगके मायसे नहीं। इसप्रकार वस्तु स्वयं अपने परिणामकी कर्ता है-यह निश्वित् सिवान्त है। इन चार बोलोंके सिद्धान्तानुसार वस्तुस्वरूपको समझे तो मिथ्यात्यकी बड़े उखड़ जायें और पराश्रितबुद्धि छूट जाये। पेसे स्वभावकी प्रतीति होनेसे अखंड स्ववस्तु पर लक्ष जाता है और सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्जामपरिणामका कर्ना मात्मा स्वयं है। पहले अक्षानपरिणाम भी वस्तुके ही माश्रयसे थे और अब सानपरिणाम हुए वे भी वस्तुके ही आश्रयसे हैं। मेरी पर्यायका कर्ता दूसरा कोई नहीं है, मेरा द्रव्य ही परिणमित होकर मेरी पर्यायका कर्ता होता है-पेसा निक्षय करनेसे स्वद्रब्य पर लक्ष जाता है और मेवज्ञान Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] [स्वतंत्रताकी शेषणा तथा सम्यग्ज्ञान होता है। अब, उस काल कुछ चारित्र-दोषसे रागादि परिणाम रहे वही भी अशुद्ध निश्चयनयसे आत्माका परिणमन होनेसे आत्माका कार्य है-ऐसा धर्मी जीव जानता है। उसे जाननेकी अपेक्षासे व्यवहारनयको उस कालमें जाना हुआ प्रयोजनवान कहा है। धर्मीको द्रव्यका शुद्धस्वभाव लक्षमें आ गया है इसलिये सम्यक्त्वादि निर्मल कार्य होते हैं और जो राग शेष रहा है उसे भी वे अपना परिणमन जानते हैं परन्तु अब उसकी मुख्यता नहीं है, मुख्यता तो स्वभावकी हो गई है। पहले अहानदशामें मिथ्यात्वादि परिणाम थे वे भी स्वद्रव्यके अशुद्ध उपादानके आश्रयसे ही थे परन्तु जब निश्चित किया कि मेरे परिणाम अपने द्रव्यके ही आश्रयसे होते हैं तब उस जीवको मिथ्यात्वपरिणाम नहीं रहते; उसे तो सम्यक्त्वादिरूप परिणाम ही होते हैं। अब जो रागपरिणमन साधकपर्यायमें शेष रहा है उसमें यद्यपि उसे एकत्वबुद्धि नहीं है तथापि वह परिणमन अपना है-पेसा वह जानता है। ऐसा व्यवहारका शान उस काल प्रयोजनवान है। सम्यग्बान होता है तब निश्चय-व्यवहारका स्वरूप यथार्थ ज्ञात होता है, तब द्रव्य-पर्यायका स्वरूप ज्ञात होता है, तब कर्ता. कर्मका स्वरूप ज्ञात होता है और स्वद्रष्यके लक्षसे मोक्षमार्गरूप कार्य प्रगट होता है। उसका कर्ता आत्मा स्वयं है। -इसप्रकार इस 2113 कलशमें आचार्यदेवने चार बोलों द्वारा स्पष्टरूपसे अलौकिक वस्तुस्वरूप समझाया है, उसका विवेचन पूर्ण हुआ / इति स्वतंत्रताकी घोषणा पूर्ण * जय जिनेन्द्र * बन्द .. ..