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[ भावकधर्म-प्रकाश
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कोई जीव अन्तर्मुहूर्त ही मुनिपना पाले, और उस अन्तर्मुहूर्त में शुभपरिणाममें ऐसा पुण्य बाँधे कि नवमी ग्रैवेयकमें इकतीस सागरोपमकी स्थिति वाला देव होता है । देखो, इस जीवके शुभ, अशुभ अथवा शुद्धपरिणामकी शक्ति और उसका फल ! उसमें शुभ-अशुभसे स्वर्ग-नरक के भव तो अनन्तबार जीवने किये. परन्तु शुद्धता प्रगट करके मोक्षको साधे उसकी बलिहारी है !
कोई जीव देवमें से सीधा देव नहीं होता । कोई जीव देवमें से सीधा नारकी नहीं होता । कोई जीव नारकी में से सीधा नारकी नहीं होता । कोई जीव नारकीमें से सीधा देव नहीं होता । देव मरकर मनुष्य अथवा तिर्यचमें उपजे । नारकी मरकर मनुष्य अथवा तिर्यचमें उपजे । मनुष्य मरकर चारोंमें से कोई भी गतिमें उपजे । तिर्यच मरकर चारोंमें से कोई भी गतिमें उपजे । यह सामान्य बात की अब सम्यग्दृष्टिकी बातः
देव में से सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यमें ही अवतरे । नरक से सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यमें ही आवे । मनुष्य सम्यग्दृष्टि जीव देवगतिमें जावे, परन्तु जो मिथ्यात्वदशामें आयु बंध गई हो तो नरक अथवा तिर्यच अथवा मनुष्य में भी जावे । तियंच सम्यग्दृष्टि जीव देवगतिमें ही जावे,
और पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक ( तिर्यच हो या मनुष्य )
वह तो नियमसे स्वर्ग में ही जावे, अन्य किसी गतिका आयुष्य उसे नहीं होता ।
इस प्रकार धर्मी श्रावक स्वर्गमें जाता है, और वहाँसे मनुष्य होकर, चौदह प्रकारका अन्तरंग और दस प्रकारका बाह्य - सर्व परिग्रह छोड़कर, मुनि होकर, शुद्धताकी श्रेणी मांड़कर, सर्वक्ष होकर सिद्धलोकको जाता है, वहा सदाकाल अनन्त आत्मिक आनन्दका भोग करता है । अहा, सिद्धोंके मानन्दका क्या कहना !
इस प्रकार सम्यक्त्वसहित अणुव्रतरूप भावकधर्म वह भावकको परम्परासे मोक्षका कारण है, इसलिये श्रावक उस धर्मको अंगीकार करके उसका पालन करे - ऐसा उपदेश है।